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Saturday, June 11, 2016

प्रवासी साहित्य के झंडाबरदार ·

हिंदी में पिछले कई सालों से प्रवासी साहित्य को लेकर काफी कोलाहल है । विदेशों में रहनेवाले हिंदी भाषी कई लेखक अपनी लेखनी से समकालीन साहित्य में सार्थक तो कई अपने क्रियाकलापों से निरर्थक हस्तक्षेप कर रहे हैं । लेखनी से हस्तक्षेप का स्वागत होता है लेकिन जब विदेशों में रहनेवाले लेखक अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए साहित्य के नाम पर व्यूहरचना रचते हैं तो वो खुद को ही साहित्य में हल्का कर लेते हैं । यह बात बार-बार साहित्य में साबित हो चुकी है कि आयोजनों से कोई साहित्य में अपनी जगह नहीं बना सकता है । ज्यादा ज्यादा से वो साहित्य का इवेंट मैनेजर या फिर साहित्यप्रेमी का दर्जा प्राप्त कर सकता है । अव्वल तो इस बात पर ही बहस होती रही है कि साहित्य साहित्य है वो प्रवासी लिखें या आवासी लेकिन विदेशों में रहनेवाले कई लेखक बहुधा इस बात को उपरी तौर पर मानते हैं कि साहित्य में इस तरह वर्णव्यवस्था नहीं होनी चाहिए लेकिन उनकी आंतरिक इच्छा होती है कि साहित्य में उनको प्रवासी साहित्यकार का दर्जा मिले ताकि भारत सरकार समेत तमाम तरह की संस्थाओं आदि से पुरस्कार सम्मान हासिल कर सकें । हिंदी में प्रवासी साहित्यकारों को लेकर बीच बीच में काफी हो हल्ला मचता रहता है लेकिन इसपर गंभीर काम कम ही होता है । कभी कभा निजी प्रयास से पत्रिका आदि के अंक सामने आ जाते हैं । राकेश पांडेय अवश्य इस दिशा में गंभीरता से काम कर रहे हैं और समय-समय पर वो अपनी पत्रिका के जो अंक निकालते हैं वो बेहद उम्दा होते हैं ।लेकिन उनके इस प्रयास को और मजबूत करने की जरूरत है । हिंदी साहित्य की गंगा प्रवासी साहित्य को अपने साथ लेकर चलती है और उसको उचित सम्मान भी देती है लेकिन अब वक्त आ गया है कि इन प्रवासी साहित्यकारों से पूछा जाना चाहिए कि वो हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए उन देशों में क्या कर रहे हैं जहां वो रहते हैं । विदेशों में हिंदी साहित्य की अपनी दुकान चलाने के अलावा वो हिंदी के बढ़ावा देने के लिए या उसके विस्तार के लिए क्या कर रहे हैं । क्या हिंदी को विश्वभाषा बनाने के हिंदी भाषी लोगों के सपनों को पूरा करने के लिए वो अपनी तरफ से कोई योगदान कर रहे हैं ।
हाल ही में फेसबुक से ये जानकारी मिली कि ब्रिटेन में रह रही कवयित्री शिखा वार्ष्णेय हर रविवार को हिंदी की एक कहानी वहां के एक रेडियो स्पाइस बॉक्स पर पढ़ती हैं और हिंदी कहानी के प्रचार प्रसार में जुटी हैं । रेडियो स्पाइस बॉक्स पर कथासागर के नाम से चलनेवाले इस साप्ताहिक कार्यक्रम का प्रसारण इंटरनेट के जरिए भारत, अमेरिका और युनाइटेड किंगडम में होता है जिसको अलग अलग समय पर सुना जा सकता है । पश्चिमी देशों में निजी रेडियो चैनल पर साहित्य के लिए जगह बनाना और हर हफ्ते किसी हिंदी कहानीकार का चयन कर उसको आवाज देना एक श्रमसाध्य कार्य है । हाल के दिनों में इस कार्यक्रम में उसने साहित्य की अन्य विधाओं को शामिल करना शुरू किया है । इस तरह के कार्यक्रमों से हिंदी को विस्तार मिलता है । विदेशों में प्रवासियों के बीच समकालीन हिंदी साहित्य को पहुंचाकर शिखा एक बेहद महत्वपूर्ण काम कर रही है । ये बात कल्पना से परे थी कि पटना के कहानीकार रत्नेश्वर की कहानी अमेरिका और युनाइटेड किंगडम में रेडियो पर सुनाई जाएगी । क्या नवोदित लेखिका सोनाली मिश्रा ने ये सोचा होगा कि उसकी रचना को विस्तार का ये क्षितिज हासिल होगा लेकिन रेडियो स्पाइस ने इसको मुमकिन बनाया है । संभव है कि इस तरह के और भी कार्यक्रम चल रहे हों जिसकी जानकारी हमें नहीं है लेकिन जिसकी जानकारी हो उसकी हिंदी साहित्य जगत को नोटिस लेनी चाहिए और उनके प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए । इस प्रयास की एक खास बात यह भी है कि इससे हिंदी के प्रसार और विस्तार के अलावा कोई निजी स्वार्थ नहीं सधता है । वर्ना तो इस तरह की कोशिशों को भुनाने की भी खबरें आती रहती हैं । विदेशों में दिए जानेवाले पुरस्कार के एवज में देश में सम्मान आदि की खबरें आम हैं । दावा चयन में पारदर्शिता को अवश्य होता है लेकिन कभी भी निर्णायकों की सूची और उनकी संस्तुति वगैरह सामने आई हो स्मरण नहीं आता । आप हमें दो हम आपको देगें की तर्ज पर पुरस्कारों का खेल चल रहा है । दरअसल ये हिंदी के नाम पर चलनेवाला कारोबार है । इस तरह के हिंदी के कारोबारियों को भी चिन्हित किया जाना चाहिए ।
रेडियो के अलावा कई देशों में हिंदी के लोग साहित्यक पत्र-पत्रिकाओं को प्रकाशन भी करते हैं । भारतीय गिरमिटिया जहां जहां गए और उस देश को अपना बनाया वहां वहां हिंदी को लेकर छोटे-छोटे प्रयास होते रहे हैं और अब भी हो रहे हैं चाहे वो सूरीनाम हो, फिजी हो त्रिनिदाद-टुबैगो हो या फिर गुयाना हो या दक्षिण अफ्रीका हो । यह काम सलंबे समय से हो रहा है लेकिन अपेक्षा को उन हिंदी भाषियों से है जो अमेरिका, स्विट्जरलैंड, फ्रांस आदि जगहों पर जाकर बसे । अमेरिका आदि में हिंदी को लेकर छिटपुट प्रयास हो रहे हैं । व्यक्तिगत स्तर पर हिंदी के लेखकों को वहां बुलाकर सम्मानित कर देने और छोटी मोटी गोष्ठियां कर देने की खबरें आती रहती हैं लेकिन हिंदी को आगे बढ़ाने को लेकर कोई ठोस पहल की खबरें नहीं आती हैं ।  कनाडा में रह रही लेखिका सुधा ओम ढींगरा भी हिंदी को विस्तार देने के लिए प्रयासरत दिखाई देते हैं लेकिन उनकी पत्रिकाओं और पुस्तकों में फोकस उनपर या उनकी रचनाओं पर ही ज्यादा होता है । यहां तक तो ठीक है लेकिन कनाडा में हिंदी के लिए जो हो रहा है उससे भारत में रह रहे हिंदी भाषियों को परिचित करवाना चाहिए । भारत में निकल रही सैकड़ों साहित्यक पत्रिकाओं की तरह एक और पत्रिका निकालकर हिंदी का विदेश में विस्तार संभव नहीं है । दरअसल प्रवासी साहित्य और साहित्यकारों को कसौटी पर कसा जाना चाहिए । कसौटी हिंदी की हो और कसनेवाले निरपेक्ष साहित्यकार हों जो विदेश जाने के लाभ-लोभ और पुरस्कृत होने की आकांक्षा से मुक्त हों । नतीजा जो हो भी निकले उससे प्रवासी साहित्य का तो भला होगा ही प्रवासी साहित्यकारों की साख में भी इजाफा होगा ।    


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