दिल्ली विधानसभा चुनाव में जब आम आदमी पार्टी ने सत्तर में से सड़सठ
सीटें जीती थीं तब ना तो पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल को और ना ही उनके इक्कीस
विधायकों को ये अंदाज रहा होगा कि उनको पांच साल के पहले एक बार फिर से चुनाव
मैदान में जाना पड़ेगा । अब इस बात के आसार बन रहे हैं कि सड़सठ में से इक्कीस
विधायकों को पांच साल के पहले ही जनता की अदालत में जाना पड़े । दरअसल ये पूरा
मामला लाभ के पद से जुड़ा है । केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने 70 में से 67 सीटें
जिताकर विराट बहुमत दिया था । इस विराट बहुमत और जनता की अन्य राजनीतिक दलों से
नाराजगी की वजह से केजरीवाल सरकार ने केंद्र से दो दो हाथ करने की ठान ली थी ।
लंबे समय तक उपराज्यपाल से उनकी ठनी हुई है । दिल्ली की स्थिति देश के अन्य राज्यों से अलग है
और यहां के नियम कायदे भी अलग हैं । केजरीवाल ने कई नियमों को चुनौती देने का
जोखिम उठाना शुरू कर दिया । संविधान और कानून की व्याख्या अलग अलग तरीके से होने
लगी । केजरीवाल सरकार ने कई नियमों को अदालत में तो कई को मीडिया के मंचों के पर
चुनौती दी । इसी कोलाहल के बीच केजरीवाल सरकार ने अपने इक्कीस विधायकों को संसदीय
सचिव नियुक्त कर दिया और अलग अलग मंत्रालयों से उनको अटैच कर दिया गया । उस वक्त
तक दिल्ली में एक संसदीय सचिव नियुक्त करने का प्रावधान था । इस बारे में भी भ्रम
की स्थिति है कि एक संसदीय सचिव भी लाभ के पद के दायरे में आता है या नहीं । बीजेपी
के शासनकाल के दौरान नंदकिशोर गर्ग मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव बनाए गए थे लेकिन
जब बाद में उसपर विवाद हुआ को उन्होंने पद छोड़ दिया था । इसी तरह से इस वक्त के
दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष अजय माकन भी शीला दीक्षित के संसदीय सचिव रह चुके हैं
। तब लाभ के पद का मामला नहीं उछला था । लेकिन जब केजरीवाल ने अपने इक्कीस
विधायकों को संसदीय सचिव बनाया तो इसको लाभ का पद मानते हुए एक शख्स ने चुनाव आयोग
के समक्ष याचिका दायर कर दी । विवाद बढ़ता देख दिल्ली सरकार ने विधानसभा में एक
बिल पास करवाया जिसमें संसदीय सचिवों को लाभ के पद के दायरे से बाहर करते हुए इसको
भूतलक्षी ( रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव से लागू कर दिया ताकि उनके विधायकों पर कोई
आंच नहीं आए । लेकिन इस बिल को राष्ट्रपति ने मंजूरी देने से इंकार कर दिया ।
राष्ट्रपति के इंकार करने के बाद दिल्ली की आम आदमी पार्टी और उसके
सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल आगबबूला हैं और प्रधानमंत्री मोदी पर अपनी सरकार को
अस्थिर करने का आरोप लगा रहे हैं । बीजेपी और आम आदमी पार्टी दोनों एक दूसरे पर
बयानों की तीरंदाजी कर रहे हैं । आम आदमी पार्टी को लग रहा है कि उनके इक्कीस
विधायक गंभीर संकट में फंस गए हैं तो वो इसका भी राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं । हर
बार की तरह इस बार भी उनके निशाने पर सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं । दरअसल इस मसले पर. ऐसा लगता है कि, आम आदमी
पार्टी से गलती हो गई है लेकिन अपनी गलती को छुपाने के लिए अब इस तरह की दलीलें भी
दी जा रही हैं कि उनके विधायकों ने किसी प्रकार का कोई धनालाभ या अन्य आर्थिक लाभ
सरकार से नहीं लिया । कहा तो यहां तक जा रहा है कि उनके विधायकों ने संसदीय सचिव
के लिए बने दफ्तरों का इस्तेमाल भी नहीं किया । लेकिन इस मामले में शिकायतकर्ता का
दावा है कि उनके पास एक आरटीआई का जवाब है जिसमें बताया गया है कि विधानसभा परिसर में
इन सभी इक्कीस संसदीय सचिवों को दफ्तर के लिए कमरे अलॉट किए गए थे । ये सारा मामला
अब चुनाव आयोग के समक्ष है और वो सभी विधायकों का पक्ष सुनने के बाद अपना फैसला
सुनाएगा । विशेषज्ञों का मानना है कि चुनाव आयोग को फैसला लेने में करीब छह माह का
समय लग सकता है । तबतक राजनीति की बिसात पर शह और मात का खेल चलता रहेगा । लेकिन
यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि दो हजार छह में सोनिया गांधी ने जब राष्ट्रीय
सलाहकार परिषद के अध्यक्ष का पद संभाला था तब उनको लेकर भी सवाल खड़े हुए थे और
उन्होंने रायबरेली के सांसद के तौर पर इस्तीफा देकर फिर से चुनाव लड़ा था । इसी
तरह से समाजवादी पार्टी की राज्यसभा सांसद जया बच्चन भी जब यूपी फिल्म विकास निगम
की अध्यक्ष नियुक्त की गई थी तब उनकी सदस्यता भी गई थी । बाद में वो फिर से चुनकर
आई थी । इसलिए यह माना जाना चाहिए कि दिल्ली में इक्कीस सीटों पर फिर से चुनाव
होना लगभग तय है, वक्त चाहे जितना लगे । दरअसल संसदीय सचिवों को लेकर हर राज्य में
अलग अलग कायदे कानून हैं । पूर्वोत्तर के कई राज्यों में जहां साठ विधायकों वाली
विधानसभा है वहां भी अठारह संसदीय सचिव हैं लेकिन जब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी
ने दो हजार तेरह में तेरह संसदीय सचिवों की नियुक्ति की तो कलकत्ता हाईकोर्ट ने
उसको जून दो हजार पंद्रह में रद्द कर दिया जबकि ये नियुक्तियां दो हजार बारह के एक
कानून के तहत की गई थी । कई राज्यों के हाईकोर्ट ने संसदीय सचिवों की नियुक्तियों
को रद्द कर दिया है जिसके खिलाफ राज्यों की कई अपील सुप्रीम कोर्ट में लंबित है । हिमाचल
प्रदेश का मामला तो 2005 से सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है । इस मामले में अलग अलग
राज्यों में भ्रम की स्थिति होने से अब वक्त आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट संविधान की
उचित व्याख्या कर स्थिति को साफ करे ।
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 'पिता 'पॉवर' है - फादर्स डे पर विशेष ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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