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Saturday, June 18, 2016

मुद्राराक्षस की बेबाकी को सलाम

पिछले दिनों जब हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार मुद्राराक्षस के निधन की खबर आई तो अचानक पच्चीस साल पहले की एक स्मृति दिमाग में कौध गई । कॉलेज के दिन थे और मैं साहित्य की दुनिया में एक पाठक की तरह विचरने लगा था । तभी एक नाम से सामना हुआ था - मुद्राराक्षस । यह ठीक से याद नहीं है कि उनकी कौन सी कृति थी लेकिन तब उस नाम को लेकर मन में जिज्ञासा हुई थी । कई लोगों से तब इसके बारे में पूछा था लेकिन ठोस जवाब नहीं मिल पाया था, लेकिन ये नाम जेहन में कहीं अटका हुआ था । बाद में पता चला था कि तार सप्तक की समीक्षा की वजह से उनका नाम बदल गया था । ये उस वक्त की बात है जब वो सुभाष चंद्र आर्य थे । तारसप्तक की समीक्षा छपने के लिए उन्हॆंने  डॉ देवराज के पास भेज दिया था जो उन दिनों एक पत्रिका निकाला करते थे । अपनी समीक्षा में उन्होंने अज्ञेय पर जमकर हमला बोला था और ये साबित करने की कोशिश की थी कि उनके लेखन पर विदेशी लेखकों की गहरी छाप है । उस वक्त अज्ञेय की साहित्य में तूती बोलती थी, लिहाजा देवराज जी ने उनको सलाह दी कि इस लेख को नाम बदलकर छापना चाहिए । दोनों के बीच सलाह मशविरा के बाद मुद्राराक्षस नाम तय हुआ और वो ही नाम आखिर तक चलता रहा । मुद्राराक्षस ने लंबी उम्र पाई और अपनी लंबी जीवन यात्रा में साहित्य के कई सफल मुकाम हासिल किए । उन्होंने साहित्य की हर विधा में हाथ आजमाया । करीब दर्जनभर नाटक लिखे और निर्देशित किए । उनके बारह उपन्यास, पांच कहानी संग्रह, तीन व्यंग्य संग्रह और आलोचना और इतिहास की कई किताबें प्रकाशित हैं । मुद्राराक्षस जी ने लंबे समय तक साहित्यक पत्रिकाओं का संपादन भी किया और अपने संपादकीय कौशल से हिंदी साहित्य में सार्थक हस्तक्षेप किया । मुद्राराक्षस ने आकाशवाणी की नौकरी भी लेकिन वहां भी उन्होंने समाज के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन किया ।

छोटे कदकाठी के मुद्राराक्षस अंत तक अपने सिद्धांतों पर डिगे ही नहीं रहे बल्कि उसको फैलाने के लिए सक्रिय भी रहे । विचारों से मार्क्सवादी-लेनिनवादी मुद्रा जी ने सामजिक आंदोलनों में भी भागीदारी की । इस बात को कई लोग स्वीकार करते हैं कि मुद्राराक्षस सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे । मुझे याद है दो तीन साल पहले कथाक्रम सम्मान के मौके पर एक गोष्ठी थी जिसमें मुझे बोलना था । तमाम उद्भट मार्क्सवादियों की मौजूदगी में मैंने मंच से मार्क्सवाद के अंतर्विरोधों और मार्क्स के अंधभक्तों पर हमला बोला था । कार्यक्रम के बाद मुद्रा जी मुझसे मिले तो बोले कि मैं तुम्हारे तर्कों से सहमत नहीं हूं लेकिन तुम्हारे साहस की दाद देता हूं । उस वक्त भी उनकी तबीयत ठीक नहीं थी और वो किसी के सहारे से चल रहे थे लेकिन साहित्य समारोह में उनकी मौजूदगी उनके साहित्यप्रेम को दर्शाता था । 13 जून 1933 को लखनऊ के पास बेहटा में जन्मे मुद्राराक्षस ने रंगमंच की दुनिया में भी अपना लोहा मनवाया । उनका लिखा - आला अफसर – बेहतरीन नाटक है । उन्हें रंगमंच की गहरी समझ थी और वो नाट्य निर्देशक के तौर पर कई प्रयोग करते थे जो कि दर्शकों और आलोचकों दोनों को चौंकाते थे । मुद्राराक्षस हिंदी भाषा को लेकर भी बेहद चिंतित रहा करते थे लेकिन गोष्ठियों आदि में इस बात पर बेहद कुपित नजर आते थे कि हिंदी के लिए विलाप सिर्फ सेमिनारों तक सिमट गया है और लोग आगे बढ़कर उसके लिए कुछ सार्थक नहीं कर रहे हैं । वो युवा लेखन से भी संतुष्ट नजर नहीं आते थे और बहुधा इस बात को लेकर टिप्पणी भी करते चलते थे कि सोशल मीडिया के लिए हो रहे लेखन से साहित्य का भला नहीं हो सकता है । अपनी बेबाकी के लिए जाने जानेवाले मुद्राराक्षस के निधन से जो क्षति हुई है उसकी भारपाई निकट भविष्य में तो संभव नहीं दिखाई देती है । नमन ।    

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