बात नब्बे के शुरुआती दशक की रही होगी, संभवत
उन्नीस सौ तिरानवे की । उस वक्त राजेन्द्र यादव के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका
हंस की हिंदी साहित्य में तूती बोलती थी । यादव जी अपनी पत्रिका में नए नए प्रयोग
के उसको नई ऊंचाई प्रदान कर रहे थे । आमतौर पर उन दिनों हंस के प्रकाशन की तिथि के
आसपास पत्रिका के कार्यालय चला जाता था । उसका एक फायदा यह होता था कि डाक डाकुओं
के प्रकोप से पत्रिका बच जाती थी और वक्त से पहले हंस पढ़ने की चाहत भी पूरी हो
जाती थी । ऐसे ही एक दिन हंस का अंक छप कर आया था । अंत उलटते पलटते उसमें एक महिला
कथाकार की तस्वीर पर नजकर गई । सालों पुरानी तस्वीर छपी थी बल्कि यों कहें कि उनकी
उस जमाने की तस्वीर छपी थी जब वो युवा रही होंगी । उस वक्त वो अपने उम्र के चौथे
वय में थीं लेकिन यादव जी हंस के पन्नों पर उनको जवान बनाए हुए थे । मैंने यादव जी
से चुटकी ली और उसकी वजह जाननी चाही तो उन्होंने कहा कि अरे वो तो अभी युवा लेखिका
है । मेरे अनुमान के मुताबिक जिस यादव जी उनको युवा बता रहे थे उस वक्त वो पैंसठ
के आसपास की रही होंगी । यादव जी ने इस तरह के कई युवा लेखक हिंदी साहित्य को दिए
। मुझे हमेशा ऐसा लगता रहा कि उनका मानना था पाठक कगानीकार की फोटो देखकर कहानियां
पढ़ लेते हैं या इसको इस तरह भी कहा जा सकता है कि कहानीकारों की ग्लैमरस फोटो
देखकर पत्रिका भी खरीद लेते हैं । इसी सोच के तहत यादव जी लेखिकाओं की तरुणाई की
तस्वीरें छापते रहे और उन्होंने युवा लेखक के बारे में साहित्य में एक भ्रम की
स्थिचि पैदा की । जवानी की तस्वीरें देख-देख कर रचनाकार खुद तो युवा मानचा रहा और
साथी लेखकों से ये अपेक्षा भी करता रहा कि उसे युवा लेखक माना जाए । दूसरी ओर
रवीन्द्र कालिया ने युवाओं पर एक के बाद एक कई अंक निकालकर हिंदी साहित्य तो
युवामय कर दिया था । दर्जनों लेखक तब से लेकर अबतक युवा ही बने हुए हैं । कालिया
जी ने जिलस तरह से युवा लेखकों की फौज खड़ी की थी उससे तई बेहतरीन लेखक निकल कर आए
लेकिन जो बच गए वो सिर्फ युवा लेखन की दुकान खोलकर साहित्य में अपने उत्पादन को
खपाने की फिराक में रहते हैं । रवीन्द्र कालिया ने कभी सोचा नहीं होगा कि उन्होंने
जिन युवा लेखकों को मंच देकर साहित्य की दुनिया में लांच किया था वो लॉंचिंग पैड
पर ही जमकर बैठ जाएंगे । इसी तरह से 27-28 दिसबंर 1970 में पटना में एक विशाल युवा
लेखक सम्मेलन हुआ था । उस दौर के सभी चर्चित युवा लेखकों को उसमें बुलाया गया था ।
उस वक्त भी युवा लेखकों को लेकर भ्रम की स्थिति बनी थी लेकिन मोटेतौर पर चालीस के
आसपास के लेखकों को बी उसमें बुलाया गया था । कुछ अपवाद अवश्य थे । जैसे नामवर
सिंह तैंतालीस के थे । परंतु ज्यादातर लेखक तीस साल के थे जिनमें अशोक वाजपेयी,
रवीन्द्र कालिया, वेणुगोपाल. इब्राहिम शरीफ आदि थे । तब नागार्जुन को उसमें बुलाया
गया था परंतु उन्होंने तब लिखा था या कहा था कि वो युवा लेखक सम्मेलन में बूढ़े
बंदर की तरह इधर उधर डोलना नहीं चाहते हैं । उस वक्त जिन युवा लेखकों की पहचान की
गई थी उसमें से ज्यादातर कालांतर में हिदीं साहित्य के मूर्धन्य कवि, कहानीकार और
आलोचक के तौर पर स्थापित हुए ।
दरअसल हिंदी साहित्य
में युवा लेखकों को लेकर बेहद भ्रम की स्थिति है । पचास पार के लेखक अबतक खुद को
युवा कहलवाना चाहते हैं । इस चाहत का असर ये होता है कि वो साठ-पैसठ तक आते आते भी
लेखन में बौआ जी बने रहते हैं । हिंदी के इस तरह के कथित युवा लेखकों की स्थिति
बिहार के जमींदार परिवार के बौआ जी जैसी होती है । बिहार के जमींदार परिवारों में
अक्सर देखा जाता है कि जमींदार साहब के घर जब बेटा पैदा होता है तो उसको प्यार से
उनके घरवाले और जमींदारी के सारे लोग बौआजी कहकर बुलाते हैं । तरुणाई खत्म होते
होते बौआ जी की शादी कर दी जाती है और साल दो साल में बौआजी पिता भी बन जाते हैं ।
बौआजी की उम्र बढ़ती जाती है लेकिन पिता के जीवित रहने की वजह से उनको जमींदारी के
काम-काज को करने का मौका नहीं मिल पाता है । वक्त बीतने के साथ साथ बौआ जी का
पुत्र बड़ा होने लगता है और उसके दादा जी प्यार प्यार में उसको धीरे-धीरे जमींदारी
के गुर सिखाने लग जाते हैं । इन सबसे बेखबर बौआजी तो बौआजी ही बने रहते हैं वो भी
सोचते हैं कि चलो अच्छा है बेटा काम-काज सीख रहा है । इस चक्कर में जमींदार साहब
के निधन या उनके बहुत बुजुर्ग होने की वजह से उनके पोते को जमींदारी की कमान मिल
जाती है और बौआजी बेचारे पिता और पुत्र के बीच के सत्ता हस्तांतरण के गवाह बनकर रह
जाते हैं क्योंकि वो अधेड़ हो चुके होते हैं । हिंदी की इस वक्त की कथित युवा
पीढ़ी भी बौआजी सिन्ड्रोम से गुजर रहा है । पिछली पीढ़ी अब तक जीवित और सृजनरत है और अगली पीढ़ी तैयार हो
चुकी है यानि कई कथित युवा लेखक बौआजी ही बने रह गए हैं । मतलब ये कि पचास पचपन के
अधेड़ होने के बावजूद वो युवा ही बने हैं या बने रहना चाहते हैं, जिसका नतीजा सबके
सामने है ।
हिंदी साहित्य में
युवा लेखक की कोई उम्र सीमा तय नहीं है । पचास तक तो युवा ही माना जाता है । पिछले
दिनों एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में गया था तो वहां जिस लेखिका की किताब का
विमोचन हो रहा था उनके बेटी दामाद भी मौजूद थे लेकिन संचालनकर्ता बार-बार उनको
युवा लेखिका कह रहा था । जब जब संचालनकर्ता उनके नाम के पहले युवा शब्द का उद्घोष
करता तो लेखिका महोदय के चेहरा दमकने लगता । इस तरह के कई वाकए आपको साहित्य से
जुड़े आयोजनों में जाने पर देखने को मिल सकते हैं । हिंदी के इन अधेड़ लेखकों को
युवा कहलवाने की क्या जरूरत है यह बात आजतक मेरे समझ से बाहर की रही है । इन अधेड़
लेखकों की इस चाहत को समझते हुए युवाओं को मंच देनेवाले कई संस्था साहित्य में
सक्रिय हैं । वो खुद को युवाओं का माल बेचने वाले दुकानदार के तौर पर पेश करते हैं
। तीस के आसापास के उम्र के लेखकों की रचनाओं के साथ साथ इन बुढ़ाते लेखकों की
रचनाएं आदि छापकर उनकी युवा बने रहने की आकांक्षा को तृप्त करते रहते हैं । यहां
वो भी राजेन्द्र यादव की राह पर चलते हुए लेखिकाओं और लेखकों की उन तस्वीरों को
तवज्जो देते हैं जिनमें बालों की सफेदी ना दिखाई दे । वैसे भी हिंदी साहित्य में
बालों की सफेदी को छुपाने का जबरदस्त रिवाज है । इसका फायदा यह होता है कि
दूर-दराज के जो पाठक इन मंचों पर पहुंचते हैं और इन कथित युवा लेखकों या लेखिकाओं
से मिले नहीं होते हैं वो उनको युवा मान लेते हैं और रचनाओं पर प्रतिक्रिया देते
वक्त भी युवा छवि को ध्यान में रखते हैं । इन अधेड़ लेखकों को युवा बनाए रखने में पाठकों
की प्रतिक्रियाएं संजीवनी का काम करती हैं । रही सही कसर फेसबुक पूरी कर देती है
जहां युवा की परिभाषा किसी चौहद्दी में नहीं बांधी जा सकती है । बस आपके चार छह
लेखकनुमा फेसबुकिया गुंडे आपके साथ खड़े हों जो सच कहनेवालों के खिलाफ अंटशंट
लिखकर उनको अपमानित कर सकें । इनके दम पर आप जबतक चाहें युवा बने रह सकते हैं । दरअसल
एक और बड़ी बिडंवना इनके साथ है ये खुद को मौके बे मौके वरिष्ठ कहलवाना भी पसंद
करते हैं और युवाओं के संग युवा होने का मौका भी नहीं गंवाते हैं । इस वक्त पूरे
देश में साहित्य से लेकर राजनीति तक में राग युवा बजाया जा रहा है तो हिंदी के
अधेड़ साहित्यकार भी इस राग में शामिल होना चाहते हैं ।
इस बात पर गंभीरता
से विचार होना चाहिए कि हिंदी के युवा लेखक की अधिकतम उम्र कितनी होनी चाहिए । क्या
आज हिंदी के किसी लेखक में ये साहस है कि वो नागार्जुन की तरह युवाओं के नाम पर
होनेवाले अखिल भारतीय आयोजन में जाने से इंकार कर दे । फिलहाल तो ऐसा कोई लेखक या
लेखिका दिखाई नहीं देता है । युवा की अगर शब्दकोश की परिभाषा को छोड़ भी दें तो एक
सीमा तो होनी चाहिए । हिंदी के मृतप्राय लेखक संगठनों से यह उम्मीद नहीं की जा
सकती है कि वो इस तरह की कोई पहल करेंगे । पहल तो खुद साहित्यकारों को ही करनी
होगी और युवा कहलवाने के लाभ लोभ को त्यागना होगा ।
5 comments:
मुझे तो ये वर्गीकरण समझ ही नहीं आता . आखिर कैसे वर्गीकृत करेंगे प्रौढ़ और युवा लेखन को क्योंकि लेखन कभी प्रौढ़ नहीं होता कम से कम तब तक जब तक उसमे ताजगी बची रहती है तो फिर लेखक को कैसे प्रौढ़ कहेंगे . दूसरी बात जैसा इस आर्टिकल में कहा गया कि फेसबुक के लोग भी अब शामिल हैं तो सोचने वाली बात है कि फेसबुक के कुछ लोगों ने तो लेखन शुरू ही ४० की उम्र के बाद किया है तो उन्हें कहाँ फिट किया जाएगा ? प्रौढ़ में या युवा में ? लेखक की उम्र नहीं बल्कि उसके लेखन की परिपक्वता को देखा और सराहा जाना चाहिए . युवा और प्रौढ़ में वर्गीकृत करके मानो दलित और सामान्य की विभाजन रेखा खींची जा रही हो या फिर आरक्षित और अनारक्षित की ........जो एक गलत परंपरा को ही जन्म देगी . अगर वर्गीकृत करना ही है तो इस नज़रिए से करिए कि कौन कितने समय से लेखन कर रहा है और उसके अनुसार उसे वरिष्ठ की उपाधि दीजिये तो ज्यादा उचित होगा .
विजय जी, आपके इस पूरे लेख का सार ही ये है कि आज का साहित्य अपनी जिस दुर्दशा को प्राप्त है वो जब तक रहेगी, तब तक कोई नगार्जुन पैदा नहीं हो सकता
युवा सही मायने में उम्र से नहीं लेखन से होना चाहिए।
आखिर वरिष्ट लेखक या लेखिका कहलाने में बुरा क्या है ?
अनंत जी! लेख बहुत बढ़िया है लेकिन कईंयों को गहरी चोट पहुंचाने वाला भी है।
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