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Wednesday, June 29, 2016

खबरों में कहानी तलाशते फिल्मकार

पिछले लगभग एक दशक से हिंदी फिल्मों में थीम पर फिल्म बनाने का चलन शुरू होकर लोकप्रिय होने लगा है । इस तरह की दर्जनों फिल्मों के नाम गिनाए जा सकते हैं । मसलन प्रकाश झा की फिल्म सत्याग्रह, आरक्षण, गंगाजल, अनुराग कश्यप की ब्लैक प्राइडे, गैंग्स ऑफ वासेपुर और हाल में रिलीज हुई उड़ता पंजाब, राजकुमार गुप्ता की नो वन किल्ड जेसिका, मेघना गुलजार की तलवार, हंसल मेहता की अलीगढ़ या फिर प्रणब सिंह की शोरगुल- ये कुछ ऐसी फिल्में हैं जो किसी ना किसी थीम पर आधारित हैं । थीम बेस्ड इन फिल्मों को लेकर दर्शकों में खासा उत्साह देखने को मिला है और ज्यादातर फिल्में हिट ही रही हैं । इन फिल्मों को थीम आधारित फिल्म कहकर प्रचारित अवश्य किया जाता रहा है लेकिन गहराई और गंभीरता से विचार करने पर हम पाते हैं कि थीम की आड़ में कहानी के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है । उपर जितने भी फिल्मों के नाम गिनाए गए हैं सबमें एक समानता है कि वो सब तात्कालिकता को भुनाने के लिए बनाई गई हैं । जब अन्ना हजारे का आंदोलन अपने शबाब पर था तो प्रकाश झा ने फौरन सत्याग्रह बना डाली,देश में रिजर्वेशन को लेकर जब भहस उठी तो आरक्षण आ गई । बिहार की कानून व्यवस्था का मामला जब फिर से सुर्खियों में आय तो जय गंगाजल आ गई । दिल्ली के जेसिका लाल हत्याकांड में आए फैसले और उसपर उठे सवालों के बीच नो वन किल्ड जेसिका लाल आ गई । नोएडा के आरुषि तलवार मर्डर केस में फैसला आने और उसके माता पिता को दोषी करार दिए जाने के बाद जब उसको लेकर पक्ष विपक्ष में दलीलें दी जाने लगीं और अखबारों और न्यूज चैनलों पर बहस होने लगी तो मेघना गुलजार ने फिल्म तलवार का एलान कर दिया और जल्द ही फिल्म बनकर दर्शकों के बीच आ गई । अलीगढ़ के समलैंगिक प्रोफेसर डॉ श्रीनिवास रामचंद्र सीरस की समाज के तानों से उबकर आत्महत्या करने की घटना और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिकों के अधिकारों पर सुनवाई के कोलाहल के बीच मनोज वाजपेयी अभिनीत फिल्म अलीगढ़ फिल्म रिलीज की गई । इस वक्त पंजाब में ड्रग्स को लेकर पूरे देश में चर्चा है तो अनुराग कश्यप की उड़ता पंजाब आ गई । कैराना को लेकर हिंदू मुस्लमान रिश्तों को एक बार फिर से परिभाषित करने की बहसों के बीच मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी फिल्म शोरगुल आ गई । ये बताने का मकसद है कि अब फिल्मकार अखबारों की सुर्खियों से फिल्मों की थीम तय करने लगे हैं । पहले जो भी फिल्में बनती थी वो उसमें कहानी प्रमुख होती थी लेकिन इन दिनों फिल्मकार अखबारों की सुर्खियों में कहानी की तलाश करने लगे हैं । खबरों के आधार पर फिल्म बनाने का फैसला करने के बाद उसकी कहानी और स्क्रीनप्ले पर काम शुरू होता है । फिर सीन और गाने कहां कहानी के बीच कहां फिट करना है ये तय किया जाता है । इसका नतीजा यह हुआ कि थीम बेस्ड तमाम फिल्मों से से किस्सागोई गायब होती जा रही है । अगर हम देखें तो उड़ता पंजाब में कोई कहनी नजर नहीं आती है । यह अवश्य प्रचारित किया गया कि पंजाब में ड्रग्स की समस्या को केंद्र में रखकर ये फिल्म बनाई गई है और फिल्म से ड्रग्स के खिलाफ संदेश दिया गया है । अनुराग कश्यप को सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने इस फिल्म बेवजह विवादित कर दिया । इल विवाद ने फिल्म को लेकर एक उत्सुकता का माहौल बना दिया वर्ना इस फिल्म में विजुअल के अलावा कुछ भी नहीं है जो दर्शकों को अपनी ओर खींच सके । सिर्फ दृश्यों की भरमार और उसमें संदेश गुम ।  इसी तरह से अगर आप देखें तो प्रकाश झा की फिल्म सत्याग्रह में भी कोई कहानी ना होकर खबरों की निरंतरता और उसका डेवलपमेंट नजर आता है । जिस तरह से अखबार खबरों को फॉलो करते हैं उसी तरह से फिल्म में खबर डेवलप होती चली जाती है । चूंकि हिंदी फिल्म है और दर्शकों को गाने,रोमांस, डांस आदि चाहिए, इस वजह से कहानी को नाटकीय मोड़ देकर गाने आदि के लिए जगह बनाई जाती है ।
दरअसल अगर बॉलीवुड के परिदृश्य पर विचार करें तो पाते हैं कि सलीम जावेद की जोड़ी के बाद हिंदी फिल्मों में कहानी लेखकों का जलवा खत्म सा होता चला गया । सचिन भौमिक ने अवश्य कई फिल्में लिखी लेकिन उसके बाद धीरे धीरे कहानी बैकग्राउंड में चली गई । पहले फिल्मों की कहानियां चुनी जाती थी और फिर उसके स्क्रीनप्ले पर काम होता था । मुझे याद है कि हिंदी के वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव ने एक बार बताया था कि फिल्म सारा आकाश के वक्त किस तरह से वासु चटर्जी उनको स्क्रीन प्ले पर काम करने के लिए होटल के कमरे में बंद कर दिया करते थे और तबतक नहीं जाने देते थे जबतक कि काम पूरा नहीं हो जाता था । अब स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है और खबरों को कहानी में तब्दील करनेवाले लेखकों की एक पूरी फौज बॉलीवुड में मौजूद है जो डायरेक्टर की मर्जी के हिसाब से कहानी लिख देते हैं और फिर फिल्मकार उसको थीम देकर बाजार में पेश कर देता है । बाजार भी फिल्मकारों के इस दांव को अधिकतर सफल कर देता है लिहाजा वो भी कहानी को तवज्जो नहीं देता है । थीम बेस्ड फिल्मों को यथार्थ के नाम पर बेचने का फॉर्मूला कबतक चलता है ये देखना दिलचस्प होगा ।


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