Translate

Saturday, June 25, 2016

किताबों को सहारे की जरूरत

इन दिनों देशभर में सेल का मौसम चल रहा है और हर अखबार सेल-सेल-सेल के तरह तरह के विज्ञापनों से अटा पड़ा है । विक्रेता तरह तरह से क्रेता को लुभाने में लगे हैं, कोई पचास फीसदी कम मूल्य पर तो कोई अमुक प्रोडक्ट के साथ अमुक चीज मुफ्त देना के वादे के ऑफर दिए जा रहे हैं । कपड़ों से लेकर हवाई जहाज के टिकटों तक की सेल चल रही है । इन प्रोडक्ट्स के जबरदस्त विज्ञापनों के कोलाहल के बीच एक अलग तरह के सेल की खबर दब सी गई । चौबीस पचीस जून को दो दिनों के लिए अंग्रेजी के प्रकाशक हॉर्पर कालिंस ने फरीदाबाद के अपने गोदाम में किताबों की सेल लगाई थी । इस सेल का ना तो किसी अखबार में बड़ा-बड़ा विज्ञापन दिया गया था ना ही टीवी पर, लेकिन खरीदारों की भीड़ ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए । लोग सेल शुरू होने के वक्त से पहले फरीदाबाद के गोदाम के बाहर लाइन लगाकर खड़े हो गए थे । भीड़ इतनी बढ़ गई थी कि प्रकाशक को गेट बंद करना पड़ा और ट्विटर पर ये जानकारी देनी पड़ी कि स्टॉक खत्म हो गए हैं । सेल लगाने वाले प्रकाशक ने दिल्ली वालों का धन्यवाद भी अदा किया । दरअसल हॉर्पर कॉलिंस ने सोशल मीडिया आदि पर एलान किया था कि दो दिनों के लिए वो अपनी किताबों की सेल लगा रहे हैं जहां कि पच्चीस रुपए से लेकर सौ रुपए तक में किताबें मिलेंगी । इसके अलावा एक दो अखबारों में सेल के बारे में छोटी सी खबर छपी थी । प्रकाशक ने पुस्तक प्रेमियों को अपने गोदाम पर आने का न्यौता दिया था, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाशक को इस बात का अंदाज नहीं रहा होगा कि इतनी बड़ी संख्या में और इतनी भयंकर गर्मी में पुस्तक प्रेमी वहां तक पहुंच जाएंगे । खैर काफी मशक्कत के बाद कुछ लोगों को किताबें मिली तो कइयों को निराश होकर खाली हाथ वापस लौटना पड़ा । जो लोग निराश होकर लौटे उन्होंने अपनी निराशा ट्विटर के जरिए जाहिर की । हॉर्पर कॉलिंस हैशटैग के साथ ट्वीटर पर लोगों ने अपनी नाराजगी जतानी शुरू कर दी । कई लोगों ने तो लिखा कि वो सुबह से गोदाम के खुलने की प्रतीक्षा करते रहे लेकिन जब उनका नंबर आया तो प्रकाशक ने गेट बंद कर दिया । इस तरह के दर्जनों ट्वीट्स दो दिनों के दौरान देखे गए । दिल्ली के गुस्से में होने की वजह से कुछ समय के लिए हॉर्पर कॉलिंस ट्विटर पर ट्रेंड भी करने लगा था ।
अब इस पूरी घटना से पुस्तकों की बिक्री को लेकर कई मिथक टूटते हैं । हमारे देश में खासकर हिंदी में पुस्तकों की बिक्री को लेकर प्रकाशकों और लेखकों दोनों में कोई उत्साह देखने को नहीं मिलता है । एकाध प्रकाशक को छोड़ दें तो पाठकों तक पहुंचने की योजना और उसका कार्यान्वयन दिखाई नहीं देता है । पुस्तक मेलों को छोड़ दें तो किसी भी हिंदी के प्रकाशक ने कभी पुस्तकों की सेल लगाई हो ऐसा याद नहीं पड़ता है । पुस्तकों की सेल तो एक उदाहरण है । इस तरह के कई उपक्रम किए जा सकते हैं ताकि पुस्तकों को पाठकों तक पहुंचाया जा सके । इसके लिए प्रकाशकों को पहल करनी चाहिए और लेखकों को उनका सहयोग और सपोर्ट दोनों करना चाहिए । हॉर्पर कालिंस की बुक सेल ने ये तो साबित कर ही दिया कि पुस्तकों की खरीद के लिए पुस्तक प्रेमी अपना वक्त और धन दोनों खर्च करने के लिए तैयार हैं बशर्ते कि किताबें कम मूल्य पर मिले और निश्चित स्थान पर उपलब्ध हों । हिंदी में किताबों की उपलब्धता सबसे बड़ी समस्या है । आज दिल्ली का ही उदाहरण लें और सर्वे करें तो हम इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि इस महानगर में दर्जन भर से ज्यादा किताबों की दुकानें नहीं होगीं । हिंदी की साहित्यक पत्रिकाएं तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय स्थित पुस्तक केंद्र पर ही मिल पाती हैं । इसी तरह से लखनऊ और पटना में भी देखें तो तीन चार ही किताबों की दुकानें मिलेंगी । कई छोटे शहरों में तो वहां के रेलवे स्टेशन पर मौजूद एच एच व्हीलर के स्टॉल ही उस शहर के साहित्यप्रेमियों का अड्डा हुआ करता है । अफसोस कि वहां भी स्टॉल मालिक के व्यक्तिगत प्रयास से साहित्यक पत्र-पत्रिकाएं तो उपलब्ध हो जाती हैं लेकिन साहित्यक कृतियां मसलन कहानी संग्रह और उपन्यास आदि तो नहीं ही मिल पाती हैं ।
हिंदी पट्टी में आयोजित होनेवाले पुस्तक मेलों में उमड़ी भीड़ भी हमेशा ये संदेश देती है कि किताबों के पाठक हैं । उनको सहजता से उपलब्ध करवाने की जरूरत है । इस साल नई दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में हिंदी के हॉल के बाहर पुस्तक प्रेमी कतार लगाकर किताबें खरीदने के लिए जा रहे थे । इसी तरह से पटना और लखनऊ के पुस्तक मेलों में भी पाठकों की उमड़ी भीड़ बेहद उत्साहजनक संकेत देते हैं । अब तो छोटे-छोटे शहरों में पुस्तक मेले लगने लगे हैं और आयोजकों समेत प्रकाशकों की उसमें हिस्सेदारी होती है । मैं यह नहीं कह सकता हूं कि प्रकाशकों को इन छोटे पुस्तक मेलों में मुनाफा होता है या नहीं लेकिन उनकी लगातार उपस्थिति से इतना तो कहा जा सकता है कि प्रकाशकों को घाटा नहीं होता है । तो फिर क्यों नहीं इस काम को सुनियोजित तरीके से किया जाता है । प्रकाशकों के कई संगठन हैं उनको इस काम में आगे आना चाहिए लेकिन प्रकाशकों के संगठनों का हाल भी लेखक संगठनों से बेहतर नहीं है । सबके अपने अपने राम हैं ।

इसी तरह से नेशनल बुक ट्रस्ट पर भी देशभर में पुस्तक संस्कृति को विकसित करने और परोक्ष रूप से किताबों को उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी है । इस बात का आंकलन किया जाना चाहिए कि क्या नेशनल बुक ट्रस्ट अपनीइन जिम्मेदारियों को निभा पा रही है । अभी पिछले साल तो एक ऐसा उदाहरण देखने को मिला जिसमें नेशनल बुक ट्रस्ट पटना पुस्तक मेले के आयोजकों से होड़ लेता नजर आया । दशकों से पटना पुस्तक मेला आयोजित होता है और तमाम झंझावातों को झेलते हुए उसने बिहार और देश के साहित्यक कैलेंडर में अपना स्थान बनाया । पटना पुस्तक मेले के आयोजन के ठीक पहले नेशनल बुक ट्रस्ट ने भी पटना के गांधी मैदान में ही पुस्तक मेला आयोजित कर दिया । ट्रस्ट की मंशा का तो पता नहीं लेकिन एक ही वक्त और एक ही स्थान पर आयोजित होने से पाठकों के बीच भ्रम की स्थिति बनी रहती है । नेशनल बुक ट्रस्ट को देश के उन हिस्सों में पुस्तक मेले आयोजित करने चाहिए जहां तक पहुंचना मुश्किल हैं । हवाई रूट से जुड़े शहरों में नेशनल बुक ट्रस्ट के मेलों में उनके अफसरों को जाने में सहूलियतें होती हैं लेकिन इससे पुस्तक संस्कृति का अपेक्षित विस्तार हो पाता है, इसमें संदेह है । नेशनल बुक ट्रस्ट को किताबों को छापने से ज्यादा ध्यान किताबों की उपलब्धता पर लगाना चाहिए । उनको प्रकाशकों के साथ साझेदारी कर किताबें छपवानी चाहिए और मूल्य और गुणवत्ता निर्धारण के मानदंड तैयार करना चाहिए । जैसे ही वो किताबें छापते हैं तो वो अन्य प्रकाशकों से होड़ लेने लगते हैं । ट्रस्ट के पास चूंकि सरकारी पैसा है लिहाजा वो प्रकाशकों की निजी पूंजी पर भारी पड़ते हैं और परोक्ष रूप से पुस्तक संस्कृति के विकास को नुकसान पहुंचाते हैं । इसी तरह से साहित्य अकादमी को भी किताबों के प्रकाशन पर अपनी ऊर्जा और धन खर्च करने से ज्यादा जरूरी है कि वो किताबों के प्रचार प्रसार के लिए काम करे । बेहतर लेखकों का चयन करे और उनकी किताबों को भारतीय भाषाओं में उपलब्ध करवाने के लिए प्रकाशकों के साथ साझेदारी करे । स्तरीय अनुवाद करवाकर प्रकाशकों को उपलब्ध करवाए । जब वो खुद इस काम में लगते हैं तो देर भी होती है जैसे भारत भारद्वाज ने डी एस राव की किताब फाइव डिकेड्स का अकादमी के लिए अनुवाद किया था लेकिन उसका प्रकाशन छह सात साल बाद हो पाया । यह जानकारी सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त हुई लेकिन संभव है कि ऐसे ढेरों उदाहरण मौजूद हों । सरकारी पूंजी से किताबों का प्रकाशन करने वाली संस्थाओं को लागत की फिक्र नहीं होती है । इस तरह की अड़चनों की अगर चूलें कस दी जाएं तो पुस्तकों की उपलब्धता बढ़ सकती है और पाठकों की मौजूदगी से इस इंडस्ट्री को मुनाफा हो सकता है । किसी भी सेक्टर के विकास के उसमें मुनाफा होना आवश्यक है । इसके अलावा अगर लेखक भी अपनी किताब की उपलब्धता को लेकर प्रकाशक के कंधे से कंधा मिलाकर काम करें तो स्थिति और बेहतर हो सकती है । सामूहिक प्रयास से ही बेहतर पुस्तक संस्कृति का विकास संभव है । 

4 comments:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

हार्पर कॉलिंस की इस सेल के बहाने आपने हिन्दी पुस्तकों की मार्केटिंग का सही मुद्दा उठाया है. मुझे लगता है कि हिन्दी प्रकाशक की रुचि कम धन्धा कर ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने में रहती है. वह भला सेल क्यों लगाएगा? हमारे यहां किताबें समय के साथ सस्ती नहीं, महंगी होती जाती हैं. आप किसी भी पुस्तक विक्रेता (अगर यह प्रजाति मिल जाए!) के यहां जाकर देख लें, दस पन्द्रह बरस पहले छपी किताब पर नए मूल्य की चिप्पी लगी मिल जाएगी. यानि जिस किताब का मुद्रित मूल्य, मान लीजिए पांच रुपया था, उसे अब पचास रुपये में बेचने का प्रयास. अंग्रेज़ी में इसका उलट होता है. नई किताब की कीमत तीन सौ रुपये और उसी को आप एक माह बाद ढाई सौ में खरीद सकते हैं.

Hersh said...

I am a bit worried about this Harper sale. ( sorry for my comment in English).
I strongly believe that books are overpriced, especially English books. Publishers don't think they will sell in big numbers so they price them up to make profits. This skewed pricing is also because of big distribution margins.
Solution: Cheaper books available online. Cut out the distributor margin. This applies to Hindi books, too. Hind Yugm is successfully doing this. Book fairs are important to showcase yoir titles.

रवि रतलामी said...

बुक सेल का ये फंडा मैंने भी पहली बार सुना. आमतौर पर पुरानी किताबें आधी पौनी कीमतों में मिलती हैं. परंतु यदि इस तरह की सेल नई किताबों के लिए लगे तो भीड़ आएगी ही. और शहरों में भी ऐसी सेल लगनी चाहिए.

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

हार्पर की ये सेल प्रशंसनीय है। हाँ,हिंदी प्रकाशकों को इसके ऊपर काफी काम करना है। प्रगति मैदान में आयोजित बुकफेयर में कई प्रकाशकों के पास कार्ड से खरीदारी का विकल्प ही नहीं था। वहाँ केवल कैश ही चल रहा था। जबकि अंग्रेजी के लगभग हर स्टाल पर कार्ड का विकल्प मौजूद था। यह छोटी बात हैं लेकिन मेरे जैसे कई पाठक हैं जो ज्यादा कैश ले जाना पसंद नहीं करते। ऐसे ही प्रकाशकों की कई पुस्तकें ऑनलाइन भी उपलब्ध नहीं होती है। कलिकथा वाया बाईपास अभी भी नहीं उपलब्ध है जबकि वो पुस्तक मेले में थी। अगर ऑनलाइन उपलब्धता बढती है तो जरूर बिक्री भी बढ़ेगी।
लेखक लोग तो अब सोशल मीडिया के माध्यम से पाठकों से रूबरू होते ही रहते हैं। इससे हम पाठको को ये तो पता चलता है कि उनकी अगली पुस्तक कौन सी आ रही है। लेकिन अगर पब्लिशर उन नई पुस्तकों को ऑनलाइन उपलब्ध नहीं करायेंगे तो अपने कई पाठक खो देंगे।