लोकपाल कानून को जनवरी दो हजार चौदह में प्रभावी बना दिया गया था ।
इस बात को ढाई साल से ज्यादा बीत गए हैं लेकिन अभी तक लोकपाल को नियुक्त करने की
प्रक्रिया क्यों रुकी हुई है ? सरकार इस नियुक्ति प्रक्रिया में तेजी
लाने के लिए अध्यादेश क्यों नहीं ला रही है ? सरकार ये संदेश क्यों देना चाहती है
कि वो लोकपाल की नियुक्ति के पक्ष में नहीं है । सरकार क्यों इस प्रक्रिया में
देरी होने दे रही है ? कुछ इसी तरह के सवाल सुप्रीम कोर्ट ने
केंद्र सरकार से लोकपाल कानून को अमली जामा पहनाने के बारे में पूछे हैं । एक
जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल की नियुक्तु को लेकर
बेहद सख्त रुख अनाया है । जनवरी दो हजार चौदह में इस कानून को नोटिफाई किया गया था
उसमें लोकपाल की नियुक्ति के लिए जिस कमेटी का गठन होना है उस कमेटी में प्रधानमंत्री,
लोकसभा के स्पीकर, लोकसभा में नेता विपक्ष, सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश या उनके
द्वारा नामित सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के अलावा इन चारों की अनुशंसा पर
राष्ट्रपति के द्वारा नामित एक न्यायविद को होना था । मई दो हजार चौदह के लोकसभा
चुनाव में कांग्रेस या कोई भी अन्य दल लोकसभा की दस फीसदी सीट जीतने में नाकाम रही
लिहाजा लोकसभा में किसी भी दल को नेता विपक्ष की कुर्सी नहीं मिली । यहीं से लोकायुक्त
की नियुक्तिमें पेंच फंस गया । केंद्र सरकार का तर्क है कि चूंकि इस वक्त लोकसभा
में नेता विपक्ष नहीं हैं इस वजह से लोकपाल कानून में संशोधन करना होगा । जिसके
लिए उसने बिल बनाकर संसद में पेश कर दिया है । उस बिल को संसद की स्टैंडिंग कमेटी
ने भी देखकर अपनी रिपोर्ट दे दी है । सरकार का तर्क है कि इस कानून में जो संशोधन
होना है वो संसद में विचाराधीन है । लेकिन सरकार के ये तर्क सुप्रीम कोर्ट के गले नहीं
उतर रहे है । कोर्ट ने सरकार को सख्त लहजे में चेतावनी दी है कि संसद लंबे समय से
इस पर विचार नहीं कर रही है । एक संस्था के रूप में लोकपाल को शुरू करवाने के लिए
कोर्ट आदेश दे सकता है जो संसद की भावना के अनुरूप होगा । इसके बाद केंद्र सरकार
ने सुप्रीम कोर्ट से इल मसले पर जवाब देने के लिए वक्त मांग लिया है ।
अब इस पूरे मसले से सवाल ये खड़ा होता है कि केंद्र सरकार क्यों
भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए बनाई गई संस्था को प्रभावी नहीं बनाना चाहती है ।
क्यों नरेन्द्र मोदी सरकार लोकपाल की नियुक्ति को लेकर देरी करते या उसकी राह में
रोड़ा अटकाते दिखना चाहती है । ये सवाल और तीखा हो जाता है जब ये सामने आता है कि इसी
सरकार ने सीबीआई के डायरेक्टर के चयन में, केंद्रीय सूचना आयुक्त के चयन के लिए और
केंदीय सतर्कता आयुक्त को चुने जावने वाली कमेटी में लोकसभा में नेता विपक्ष की
मौजूदगी के कानून में संशोधन करके उसकी जगह लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता के
नाम को मंजूरी दिलवाई है । फिर वो कौन सी बाध्यता है कि मौजूदा सरकार लोकपाल को
लेकर ये जरूरी संशोधन नहीं पास करवा रही है और खुद पर अंगुली उठाने और सुप्रीम
कोर्ट को लताड़ने या ये कहने का मौका दे रही है कि अगर संसद ये नहीं कर सकती है तो
वो इस काम को करने में सक्षम हैं । इसके पीछे की मंशा चाहे जो हो लेकिन ये सरकार
की छवि को खराब कर रही है ।
दरअसल अगर हम देखें तो लोकपाल को लेकर शुरू से ही राजनीतिक दलों
में उपेक्षा का भाव रहा है । पिछले करीब छह दशक में इस कानून को पास करवाने के लिए
आठ से ज्यादा बार कोशिश की गई लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली थी । कई बार संसद में
पेश होने के बावजूद लोकपाल बिल धूल खा रही थी । जब दो हजार ग्यारह में अन्ना हजारे
ने लोकपाल को लेकर आंदोलन शुरू किया । पहले तो पांच अप्रैल 20111 को जंतर मंतर पर
अनशन किया और फिर उसके बाद अन्ना हजारे को 16 अगस्त से दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला
मैदान में अनशन करना था लेकिन उनकी गिरफ्तारी से वो टल गया था । रिहा होने के बाद
अन्ना 19 अगस्त से रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे और तेरह दिनों तक उनके अनशन
ने उस वक्त की यूपीए सरकार पर इतना दबाव बना दिया था कि संसद के विशेष सत्र में
लोकपाल बिल पर बहस हुई थी । किन दो हजार ग्यारह में उस बिल को राज्यसभा से पास
नहीं करवाया जा सका था । राज्यों में लोकायुक्तों के अनिवार्य गठन को लेकर कई दलों
को एतराज था । उस एतराज को संसद की सेलेक्ट कमेटी के पास भेजा गया । उसके बाद कई
संशोधनों के साथ दो हजार तेरह में इसको पास करवाया जा सका । पांच दशकों से जो बिल कानून
बनने के लिए प्रयासरत था उसको अमली जामा पहनाया गया । इस बिल को पास करवाने के लिए
राज्यसबा में कांग्रेस और बीजेपी दोनों एक साथ आए थे । ये एक ऐतिहासिक मौका था औपर
उस वक्त देश की जनता को ये संदेश गया था कि भ्रष्टाचार के राक्षस से लड़ने के लिए दोनों
प्रमुख विपक्षी दल साथ आ सकते हैं । लोकपाल को लेकर सक्रिय रहे अन्ना के उस वक्त
के अर्जुन अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाई और पहली बार कांग्रेस के साथ तो
दूसरी बार प्रचंड बहुमत से दिल्ली में सरकार भी बनाई ।
दरअसल लोकपाल एक ऐसा कानून है जिसको लेकर सभी राजनीतिक दलों में एक
तरह का भय है । जिस दिल्ली में केजरीवाल ने लोकपाल आंदोलन से ताकत पाई थी उसी
दिल्ली में अबतक लोकपाल कानून लागू नहीं किया जा सका है । सरकार बनने के महीनों
बाद उसको दिल्ली विधानसभा से पारित करवा कर केंद्र को भेजा गया जहां वो लंबे समय
से लंबित है । अरविंद केजरीवाल जिस तरह के लोकपाल कानून की वकालत करते रहे हैं उस
तरह का कानून तो कोई भी नेता कहीं भी लागू नहीं होने देगा । दो हजार ग्यारह में जो
भारतीय जनता पार्टी लोकपाल कानून को लेकर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करती थी वही
भारतीय जनता पार्टी जब सत्ता में आई तो पिछले ढाई साल से इस संस्था के गठन को लेकर
उदासीन है । दरअसल सत्ता का अपना एक चरित्र होता है वो किसी दल से या नेता से
प्रभावित नहीं होती है । विश्व इतिहास में बहुत कम ऐसा नेता हुए हैं जिन्होंने
अपनी सोच और अपने क्रियाकलाप से सत्ता का स्वभाव बदला हो, ज्यादातर नेता सत्ता के
स्वभाव के हिसाब से खुद को ढाल लेते हैं । सिस्टम बदलने की बात करनेवाले नेता भी
जब सत्ता में आते हैं या जब उनको सिस्टम बदलने का मौका मिलता है तो बजाए सिस्टम को
बदलने के वो सिस्टम का हिस्सा बनकर राजनीति के बियावान में खो जाते हैं । लोकपाल कीनियुक्ति को लेकर भी कुछ ऐसा ही देखने
को मिल रहा है । अब भी वक्त है कि नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार लोकपाल की
नियुक्ति को लेकर संसद के मौजूदा सत्र में इस कानून में संसोधन करवाए और लोकपाल की
नियुक्ति की प्रक्रिया को तेज करे । लोकतंत्र में कानून का सम्मान करना जितना
आवश्यक है उतना ही आवश्यक है उसका सम्मान करते दिखना ।
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