अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार
डॉनल्ड ट्रम्प की जीत ने एक बार फिर से आंकड़ों के आधार पर की जाने वाली
पत्रकारिता को एक्सपोज कर दिया । एक बार फिर से ये साबित हो गया कि राजनीति
आंकड़ों के आधार पर नहीं चलती है । वोटरों का मूड तकनीक भांप नहीं पा रहा है । अमेरिकी
चुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया कि वहां के पोलस्टर्स ने ट्रम्प की ताकत को आंकने
में जबरदस्त गलती की । ट्रम्प ने जिस तरह से अपने पक्ष में वोटरों को किया या फिर
जिस तरह से उन्होंने अपने मुद्दों को लोगों तक पहुचाया वो भी आंकड़ेबाज पत्रकारों
की समझ में नहीं आ पाया । चुनाव से दो दिन पहले तक अमेरिका के न्यूज चैनलों पर यह
लगातार भविष्यवाणी की जा रही थी कि डेमोक्रैट उम्मीदवार हिलरी क्लिंटन उस देश की
पैंतालीसवीं राष्ट्रपति बनने जा रही हैं । पिछले साल जब डॉनल्ड ट्रम्प ने अपनी
उम्मीदवारी का एलान किया था तो उन्होंने जिस तरह से आतंकवाद के खिलाफ अपना रुख रखा
था, जिस तरह से बेरोजगारी को अपना मुद्दा बनाया था उसने वहां की जनता के मन पर
गहरी छाप छोड़ी थी । इस असर को पकड़ने में अमेरिकी पत्रकारिता नाकाम रही थी । न्यूज
चैनलों के स्टूडियो में नई नई तकनीक से मैप के जरिए ये बताया जा रहा था कि किस किस
राज्य में हिलरी क्लिंटन को बढ़त हासिल है और लगभग सभी राज्यों में डॉनल्ड ट्रम्प
पिछड़ रहे हैं । बड़े बड़े प्लाज्मा, वीडियो वॉल और टच स्क्रीन लगाकर जनता को
बताया जा रहा था कि हिलरी जीत रही है । लेकिन जब चुनाव के नतीजे आने शुरू हुए तो
ये साफ हो गया कि अमेरिकी मीडिया डॉनल्ड ट्रम्प की रणनीति को भांप नहीं सकी और मैप
पर लगभग पूरा अमेरिका लाल दिखने लगा।
चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से डॉनल्ड ट्रम्प के खिलाफ एक के
बाद एक महिलाएं सामने आती रहीं और उनपर छेड़खानी से लेकर जबरदस्ती किस करने के
आरोप लगे उसने भी मीडिया को भ्रम में रखा । अमेरिकी मीडिया ये नहीं समझ सकी कि
हिलेरी क्लिंटन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप और निजी ईमेल का मुद्दा अन्य मुद्दों पर
भारी पड़ रहा था । चुनाव के दो दिन पहले जब एफबीआई ने ईमेल के मसले पर हिलरी को
क्लीन चिट दी तो अमेरिकी मीडिया ने लगभग ये मान लिया कि जनता अब हिलरी को माफ कर
देगी । कहा तो यहां तक गया कि एफबीआई की क्लीन चिट ने हिलरी की व्हाइट हाउस की राह
आसान कर दी है लेकिन यहां भी मीडिया और सर्वेक्षण करनेवाली एजेंसी वोटरों को समझ
नहीं पाई । प्री पोल सर्वे के नतीजे जनता के बराक ओबामा के आठ साल के शासन के
दौरान लगातार बढ़ रही एंटी इंकबेंसी, बराक के ट्रेड समझौते के नौकरियों पर
पड़नेवाले आसन्न खतरे से उपजे जनता के गुस्से को पकड़ने में सफल नहीं हो पाई ।
अमेरिकी न्यूज चैनलों के अलावा वहां के बड़े अखबार भी डॉनल्ड
ट्रम्प की लोकप्रियता का आंकलन नहीं कर पाए या अगर उस दौरान छपे सर्वेक्षणों और
उसके बाद स्तंभकारों से लेकर पत्रकारों के विश्लेषणों को देखा जाए तो ये साफ तौर
पर लगता है कि आंकड़ों को पवित्र और अंतिम सत्य मानकर लेख आदि लिखे गए थे । दो दिन
पहले तक यह कहा जाता रहा कि संभव है कि हिलरी की जीत ऐतिहासिक ना हो लेकिन जीत तय
है । हिलरी की बढ़त को पांच फीसदी से शुरू रिया गया था जो घटते घटते एक फीसदी तक आ
गया था । जैसे जैसे नतीजे आने लगे तो ये साफ हो गया कि तमाम भविष्यवाणियां
काल्पिनक साबित होने जा रही हैं । दरअसल अगर हम देखें तो अमेरिका में दो हजार चार
के चुनाव में वहां की मीडिया ने ये गलती की थी और बराक ओबामा के पक्ष में लोगों के
मानस को भांप नहीं सकी थी । सवाल ये उठता है कि अमेरिका जैसे देश में जहां तकनीक बेहद
उन्नत किस्म की है वो भी राजनीति की महीन चालों को समझ पाने में क्यों नाकाम रहती
है । कमोबेश ये कहा जा सकता है कि प्री पोल सर्वे करने की जो पद्धति है उसमें ही बुनियादी
कमी है । छोटे सैंपल सर्वे के आधार पर या मोबाइल या इंटरनेट पर होनेवाले पोल के
आधार पर पूरे देश के वोटरों के मूड के बारे में भविष्यवाणी गलत ही साबित होती है ।
सैंपल सर्वे के आधार पर किसी प्रोडक्ट की पसंदगी या नापसंदगी का अंदाज तो लगाया जा
सकता है लेकिन राजनीति किस करवट बैठने जा रही है उसका अंदाज लगा पाना मुमकिन नहीं
है । संभव है कि किसी प्रोडक्ट को पूरा परिवार पसंद करता हो लेकिन जब वोटिंग की
बात आती है तो पति पत्नी तक की पसंद अलग हो जाती है ।
प्री पोल सर्वे सिर्फ अमेरिका में ही नाकाम होते हैं ऐसा नहीं है,
हमारे देश में भी बहुधा चुनावी सर्वे गलत ही साबित होते रहे हैं । अगर हम पिछले
तीन लोकसभा चुनाव के दौरान किए गए सर्वेक्षणों पर नजर डालें तो जो इसी तरह की
तस्वीर उभर कर सामने आती है । दो हजार चार के लोकसभा चुनाव के पहले साइनिंग इंडिया
के माहौल में लगभग सभी सर्वेक्षणों ने एनडीए की जीत दिखाई गई थी लेकिन नतीजा ठीक
उसके उलट रहा । इसी तरह से अगर दो हजार नौ और दो हजार चौदह के लोकसभा के नतीजों ने
सर्वेक्षण के नतीजों में भारी उलटफेर किया था । दो हजार चौदह में एनडीए को यूपीए
से आगे दिखाया जा रहा था लेकिन शायद ही किसी सर्वेक्षण में बीजेपी को पूर्ण बहुमत
दिया गया था । यही हाल दिल्ली और बिहार के पिछले विधानसभा चुनावों में भी सर्वे का
हुआ । एकाध बार तुक्का चल भी जाता है लेकिन बहुधा प्री पोल सर्वे फेल ही होते रहे
हैं । सवाल यही कि इस तरह के सर्वेक्षणों से कबतक पत्रकारिता की खिल्ली उड़ती
रहेगी । क्या कभी कोई न्यूज चैनल अपनी गलती के लिए माफी मांगने का साहस दिखा
पाएगी
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