त्योहार के उत्सव बाद पूरे देश में इस वक्त साहित्य के उत्सव चल
रहे हैं । सुदूर तमिलनाडू से लेकर दिल्ली तक और पश्चिम में मुंबई और अहमदाबाद तक
में कुछ आयोजन हो चुके हैं और कइयों की तारीखों का एलान होकर अब वक्ताओं के
विज्ञापन हो रहे हैं । अभी हाल ही में मुंबई के एक लिटरेचर फेस्टिवल में पूर्व
वित्त मंत्री पी चिंदबरम ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढांचे को गिराए जाने को
लेकर उस वक्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव को कठघरे में खड़ा कर दिया। लिटरेचर
फेस्टिवल में नरसिम्हाराव : द फॉरगॉटन हीरो वाले सत्र में चिदंबरम
ने कहा कि उस वक्त विवादित ढांचे को केंद्र के अधीन नहीं लेना घातक राजनीतिक भूल
थी । अब इस तरह के डिस्कोर्स का साहित्य के उत्सव में क्या काम । इसी तरह से इन
दिनों दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया
कुमार भी साहित्य उत्सवों में स्थाई नाम बन गए हैं । इसके अलावा विवादित राजनेताओं
को साहित्य उत्सवों में बुलाने का भी चलन चल पड़ा है । दिल्ली सरकार में मंत्री कपिल
मिश्रा का साहित्य में योगदान अबतक साहित्यक पाठकों को ज्ञात नहीं है लेकिन वो भी
साहित्य उस्तवों में बुलाए जाते हैं । कन्हैया के भी साहित्यक योगदान से साहित्य
जगत अब तक अनजान है । पिछले दिनों कसौली में हुए खुशवंत सिंह लिटरेरी फेस्टिवल में
कन्हैया कुमार को एक सत्र में बतौर वक्ता आमंत्रित किया गया था । कन्हैया कुमार ने
वहां राष्ट्रवाद की अवधारणा को खिचड़ी बताकर विवाद खड़ा करने की कोशिश में अपनी
अज्ञानता का परिचय दे गए । कन्हैया ने साहित्य संवाद के बीच अभिनेता नवाजुद्दीन
सिद्दिकि को रामलीला में भाग लेने से रोकने की घटना के आधार पर राष्ट्रवाद की नई स्थापना
देने की कोशिश की । उन्होंने कहा कि देश में पहचान के आधार पर घृणा फैलाने की
कोशिश की जा रही है । कन्हैया के भाषण के बीच में ही श्रोताओं ने उनकी हूटिंग शुरू
कर दी और उनसे मांग शुरू हो गई कि सेना को बलात्कारी कहने के अपने बयान पर माफी
मांगे । कन्हैया ने सफाई देने की कोशिश की कि उसने सेना को बलात्कारी नहीं कहा था
। साथी वक्ताओं के हस्तक्षेप के बाद मामला किसी तरह से शांत हो सका । अब इस साल
जयपुर में आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल के आखिरी दिन के वाकए पर गौर फर्माते हैं । अभिव्यक्ति
की आजादी पर एक सत्र था जिसमें अनुपम खेर, सलिल त्रिपाठी, पवन वर्मा, मधु त्रेहान
के अलावा कपिल मिश्रा भी थे । इस सत्र में भाषा के साथ साथ संवाद की मर्यादा
तार-तार हो गई । कपिल मिश्रा ने प्रधानमंत्री को लेकर आपत्तिजनक बातें कह डालीं
जिसका श्रोताओं ने जबरदस्त प्रतिवाद किया। कपिल मिश्रा और अनुपम खेर के बीच काफी
देर तक तू-तू मैं-मैं होता रहा जो कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे प्रतिष्ठित
साहित्यक उत्सव के मंच की मर्यादा के अनुकूल नहीं था । इस तरह के वाकयों से कई
सवाल खड़े होते हैं जिनमें से पहला तो ये कि कन्हैया और कपिल मिश्रा जैसे लोगों का
साहित्यक जमावड़े में क्या काम है ? क्या सिर्फ विवाद बढ़ाकर चर्चा बटोरने के लिए साहित्य
उत्सवों के आयोजक इनको बुलाते हैं । ठीक उसी तरह से जैसे लाइव शो के दौरान एक
महिला के साथ मारपीट करनेवाले ओम जी महाराज को बिग बॉस के घर में रहने के लिए बुला
लिया गया । लेकिन क्या गंभीर साहित्यक चर्चा या गंभीर सामाजिक विषयों पर मंथन करने
का दावा करनेवाले इन लिटरेचर फेस्टिवल भी विवादों की वैसाखी के सहारे लोकप्रियता
हासिल करना चाहते हैं । क्या लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक भी टीवी सीरियल्स की तरह विवादित
प्रतिभागियों का चयन करने लगे हैं । गंभीर साहित्यक विमर्श भी क्या मनोरंजन का मंच
बनने की जुगत में लग गया है ।
दरअसल अगर हम देखें तो देशभर में जितने भी लिटरेचर फेस्टिवल होते
हैं सभी के सामने कमोबेश जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता का मॉडल रहता है । जयपुर
लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता और लोकप्रियता बढ़ाने में वहां उठे बड़े विवाद काफी
प्रभावी रहे हैं चाहे वो दो हजार बारह में सैटेनिक वर्सेस जैसा विवादित उपन्यास
लिखने वाले सलमान रश्दी के फेस्टिवल में शामिल होने को लेकर उठा विवाद हो या फिर
पूर्व पत्रकार और अब आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष और समाजशास्त्री आशीष नंदी के
बायनों से उठा विवाद हो । सलमान रश्दी के जयपुर आने पर रोक की वजह उस वक्त उत्तर
प्रदेश विधानसभा चुनाव भी बनी थी । मुसिम मतदाताओं पर नजर रखकर तमाम सियासी दलों
ने सलमान रश्दी के जयपुर आने का विरोध किया था । जमकर धरना प्रदर्शन और मीडिया में
इसकी चर्चा हुई थी । बाद में ये बात फैली कि सलमान का वीडियो लिंक होगा लेकिन विरोध
के मद्देनजर वो भी नहीं हो पाया । सलमान रश्दी के साथ दिखने के लिए जीत थाइल, और
कुछ अन्य लेखकों ने अपने सत्र में सलमान रश्दी की किताब के अंश पढ़ डाले । जीत पर
जयपुर और अजमेर समेत कई जगहों पर आधे दर्जन से ज्यादा केस दर्ज हुए । विवादों ने
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को नेताओं के बयान से लेकर कोर्ट कचहरी की दहलीज तक पहुंचा
दिया था, प्राइम टाइम न्यूज डिबेट का विषय तो कई दिन तक बना ही रहा था । अब
चिदंबरम का नपसिंह राव को कठघरे में खड़ा करनेवाला बयान भी य़ूपी चुनाव के मद्द्नजर
दिया गया प्रतीत होता है ।
इस विवाद के बाद अगले साल आशुतोष और आशीष नंदी के बीच एक सत्र में
हुई बहस ने भी भारी विवाद का रूप ले लिया था । दरअसल भ्रष्टाचार पर टिप्पणी करते
हुए आशीष नंदी ने कहा था कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग
के लोग ज्यादा भ्रष्ट होते हैं । इस पर आशुतोष ने कड़ी आपत्ति जताई थी । बात जंगल
में आग की तरह फैली और आयोजन स्थल के बाहर दलितों और पिछड़ों ने प्रदर्शन करना
शुरू कर दिया । चौबीस घंटे चलनेवाले न्यूज चैनलों को भी मसाला मिला और वो भी इस
मसले पर पिल पड़े । सबके केंद्र में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल । बाद में ये मामला
सुप्रीम कोर्ट तक गया था । इन दोनों विवादों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को
साहित्यकारों की दुनिया से निकालकर लोगों के बीच पहुंचा दिया ।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उठे विवाद सायास नहीं थे, स्थितियों और
बहसों ने विवाद को जन्म दिया । कहना ना होगा कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की सफलता
को मॉडल मानने वाले अन्य लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने विवाद पैदा करने के लिए
कन्हैया कुमार और कपिल मिश्रा जैसे लोगों को आमंत्रित करना शुरू कर दिया । साहित्यक
बहसों से निकलनेवाले विवादों और नियोजित विवादों के बीच का अंतर खत्म हो गया । ये
स्थिति साहित्यक आयोजनों के लिए भविष्य में घातक हो सकती है ।
2 comments:
साहित्योत्सव में गैर साहित्यकारों का क्या काम ?ऐसे आयोजन भी अब सिर्फ विवादों के बूते सफल होना चाहते हैं।
हिंदी के साहित्यकार साहित्य में कम राजनीति में अधिक डुबकी लगाते हैं इसीलिए तो हिन्दी का लेखन अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर पाता ।
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