कोलकाता में एक बार फिर प्रगतिशीलता को लेकर भ्रम की स्थिति बनी
रही और इस कथित प्रगतिशीलता ने एक बार फिर से प्रगतिशील लेखकों के संविधान विरोधी
चेहरे को बेनकाब कर दिया । इस पूरे वाकए से फिर साबित हो गया कि प्रगतिशीलता के
आवरण में संविधान विरोध है । दरअसल कोलकाता के भारतीय भाषा परिषद के सभागार में एक
आयोजन किया गया था जिसमें पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी का काव्यपाठ
और उपन्यास विवेचना होनी थी । इस आयोजन के निमंत्रण पत्र पर आयोजक के तौर पर
ग्यारह संगठनों के नाम छपे थे जिसमें बंगीय हिंदी परिषद से लेकर भारतीय भाषा परिषद
आदि के नाम थे । इनके अलावा आयोजनकर्ता में प्रगतिशील लेखक संघ का भी नाम छपा था ।
बस यहीं से विवाद की शुरुआत हो गई । प्रगतिशीलता और जनवाद की ध्वजा थामे हिंदी जगत
में विचरण करनेवालों को ये बात नागवार गुजरी कि इय आयोजन में प्रगतिशील लेखक संघ
कैसे सह आयोजक हो सकता है । सोशल मीडिया पर भी इसके खिलाफ मुहिम शुरू हो गई । फेसबुक
पर बेहद सक्रिय कोलकाता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व प्रोफेसर जगदीश्वर
चतुर्वेदी ने भी प्रगतिशील लेखक संघ पर सवाल खड़े करते हुए लिखा- पश्चिम बंगाल के हिन्दीभाषी लेखकों-संस्कृतिसेवियों के संगठन
किस तरह आरएसएस के नेता के लिए लाल कारपेट बिछाकर सेवा में लगे हैं यह निमंत्रण पत्र
उसका आदर्श नमूना है, इस निमंत्रण पत्र का सबसे अपमानजनक पहलू है प्रगतिशील लेखक संघ
का आरएसएस के नेता के इस आयोजन का हिस्सा बनना, कायदे से संगठन के केन्द्रीय नेतृत्व
को बंगाल इकाई के खिलाफ कदम उठाना चाहिए । इस टिप्पणी के साथ जगदीश्वर चतुर्वेदी
ने इस आयोजन का निमंत्रण पत्र भी लगाया । अब जरा इसकी भाषा को देखिए जिसमें
प्रोफेसर चतुर्वेदी ने एक प्रदेश के राज्यपाल को आरएसएस का नेता करार दिया है । हो
सकता है कि केशरीनाथ त्रिपाठी आरएसएस से जुड़े हों लेकिन हमारा संविधान राज्यपाल
के पद को संवैधानिक पद मानता है और उस पद पर बैठे व्यक्ति को दलगत राजनीति से इतर
और उपर मानता है । ऐसा नहीं है कि इस बात की जानकारी लोगों को नहीं है लेकिन
तथ्यों को छिपाकर प्रचार करना तो प्रगतिशीलता की बुनियाद रही है । पहली आपत्तिजनक
बात तो ये है कि किसी भी प्रदेश के राज्यपाल को किसी संगठन विशेष का सदस्य करार
देकर उनके बहिष्कार आदि की परोक्ष मांग करना । दूसरी बात ये कि किसी दूसरी
विचारधारा के लेखक को अस्पृश्य मानना । यहां एक बार फिर से संविधान का अपमान जो कि
देश में अस्पृश्यता के खिलाफ है । जो जाति धर्म आदि के आधार पर किसी भी विभेद को
मंजूरी नहीं देता है ।
फेसबुक
पर इस बात के आते ही चंद कथित प्रगतिशील लेखकों ने छाती कूटना प्रारंभ कर दिया ।
किसी ने इसको प्रगतिशील लेखक संघ का वैचारिक पतन तो किसी ने इसको प्रगतिशील लेखक
संघ की अवसरवादिता करार दिया । बताया जा रहा है कि सोशल मीडिया पर इस विवाद के
उछलते ही प्रगतिशील लेखक संघ ने इस आयोजन से खुद को अलग करने का ऐलान कर दिया और
ये भी दावा किया गया कि संगठन ने भारतीय भाषा परिषद से विरोध भी दर्ज करवा दिया है
। प्रगतिशील लेखक संघ की तरफ से ये बात भी फैलाई गई कि उनके संगठन से जुडे एक शख्स
ने मौखिक तौर पर इस आयोजन से जुड़ने की सहमति दे दी और निमंत्रण पत्र पर आयोजक के
दर्जन भर नामों में प्रलेस का नाम भी छाप दिया गया । कोलकाता में निमंत्रण पत्र
बांट भी दिए गए लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ को पता नहीं चला । संघ को तो पता तब चला
जब कि फेसबुक पर उसकी लानत मलामत शुरू हुई । संघ मतलब प्रगतिशील लेखक संघ । सवाल
यही उठता है कि क्या प्रगतिशील लेखक संघ के कार्य करने का तरीका इतना लचर हो चुका
है कि उसे पता ही नहीं चलता कि उसके कार्यकर्ता क्या कर रहे हैं । या फिर वहां
इतनी अराजकता है कि कोई भी कुछ भी फैसला ले सकता है । सोशल मीडिया पर तो ये भी बात
सामने आई कि भारतीय भाषा परिषद की कुसुम खेमानी ने प्रगतिशील लेखक संघ के सेराज
खान बातिश से मौखिक स्वीकृति ले ली थी और कार्ड पर नाम छप कर बंट गए । ये तो खैर
आरोप प्रत्यारोप की बात है सचाई तो ऐसे मामलों में कभी सामने आती नहीं है क्योंकि
करार मौखिक था और जबतक दोनों पक्ष स्वीकार ना कर लें तो माना जाना कठिन है ।
परंतु
इस पूरे विवाद में ये तो सचाई है कि प्रगतिशीलता का ताना बाना ओढे लोगों को आर एस
एस या फिर किसी अन्य की विचारधारा से कितनी तकलीफ है । फासीवाद की बात करनेवाले
लोग खुद की विचारधारा का फासीवाद स्थापित करना चाहते हैं । लोकतंत्र की स्थापना और
उसकी मजबूती की बात करनेवाले लोग लोकतंत्र को किस तरह से एकतंत्र में तब्दील करना
चाहते हैं उससे इस तरह की घटनाओं से संकेत मिलते हैं । दरअसल इस वक्त कथित
प्रगतिशील विचारधारा को खुद के सैनिकों से खतरा है । प्रगतिशीलता को ओढ़कर अपनी
राजनीति चमकानेवाले ज्यादातर लोग अवसरवादी थे और जब देश में प्रगतिशील विचारधऱा का
बोलबाला था तो वो उनके ध्वजवाहक बनकर लाभ उठा रहे थे । अब वही लोग दूसरी विचारधारा
के साथ हो लिए हैं या फिर हो लेने की फिराक में हैं क्योंकि उन जैसों के लिए तो
अवसर ही विचार हैं । इसी अवसर की तलाश में संभव है कि एक राज्यपाल के कार्यक्रम
में आयोजक होना स्वीकार कर लिया गया हो । वैसे अगर देखें तो जहां लाभ आदि की
गुंजाइश नजर आती है वहां प्रगतिशीलता नेपथ्य में चली जाती है । चाहे वो भारतीय
सांस्कृतिक संबंध परिषद के माध्यम से विदेश यात्रा का आनंद उठाना हो या फिर
संस्कृति मंत्रालय के अनुदान से किसी कार्यक्रम का आयोजन करना हो । केशरीनाथ
त्रिपाठी जिस विचारधारा से आते हैं उसी विचारधारा को मानने वाले हमारे देश के
संस्कृति मंत्री डॉ महेश शर्मा भी हैं लेकिन महेश शर्मा के मंत्रालय के अनुदान से
आयोजित होनेवाले समारोह में प्रगतिशील लेखकों को जाने में कोई दिक्कत नहीं है । वो
राजी खुशी वहां जाते हैं । उसी विचारधारा के डॉ रमन सिंह जब रायपुर में साहित्य महोत्सव
करते हैं तो प्रगतिशीलता के कई तिलकधारी वहां नजर आते हैं । तो फिर ये स्नॉबरी
क्यों, ये दोहरा रवैया क्यों ।
प्रतीत
तो ये भी होता है कि प्रगतिशील विचारधारा के पोषक अन्य विचारधारा को मुख्यधारा में
आने नहीं देना चाहते हैं क्योंकि उनको लगता है कि अगर कोई अन्य विचारधारा मजबूती
से सामने आ गई तो उनकी विचारधारा के अंतर्विरोध एक्सपोज हो जाएंगे । खुद की इस
कमजोरी को छुपाने के लिए तरह तरह के तर्कों का सहारा लिया जाता है । कभी फासीवादी
तो कभी नफरत की विचारधारा करार देकर उनसे दूरी बनाने के कोशिश की जाती है । ये
दांव वहीं चला जाता है जहां से किसी प्रकार का कोई लाभ नहीं होता है । ये पूरा
मामला वही है कि गुड़ खाएं लेकिन गुलगुले से परहेज । दरअसल अगर हम गंभीरता से
विचार करें तो मौजूदा सरकार विचारधारा के मामले में काफी उदार नजर आती है । इसी
साल जुलाई में हंस पत्रिका के कार्यक्रम में मोदी सरकार को जमकर कोसा गया और उस
आयोजन के लिए संस्कृति मंत्रालय ने मदद की थी । अब तीन महीने बाद हंस साहित्योत्सव
के लिए एक बार फिर से संस्कृति मंत्रालय ने मदद कर दी । कहीं कोई विवाद नहीं कहीं
कोई विरोध नहीं । यही तो है अवसरवादी विचारधारा को मानने वालों का असली चाल चरित्र
और चेहरा । हमारे देश में लोकतंत्र की जड़े बहुत गहरी हैं और बहुलतावादी संस्कृति
और विचार इसकी ताकत हैं । केशरीनाथ त्रिपाठी या किसी अन्य के कार्यक्रम को
विचारधारा के धार पर बहिष्कार कर देने से लोकतंत्र को कमजोर ही किया जा रहा है । होना
तो ये चाहिए कि सभी विचारधारा के लोग साथ बैठें और जमकर बहस करें । एक दूसरे की
विचारधारा की कमियों को सामने लाएं, तर्क के आधार पर सिद्धातों को ध्वस्त करें
लेकिन इससे भागने से किसी का हित सधनेवाला नहीं है । विमर्श को बाधित करने से वही
होगा कि हमारी चिंतन पद्धति कमजोर होगी । अस्पृस्यता को बढ़ावा देनेवाली इसी
विचारधारा के मजबूत होने का नतीजा है कि आज जब व्याकरण की बात होती है तो हमारी
देश की नई पीढ़ी को पाणिनी का नाम नहीं याद पड़ता है वो तो व्याकरण का नाम सामने
आते ही रेन एंड मार्टिन की माला जपने लगते हैं । भारतीय संस्कृति का नाम आते ही
उसको पिछड़ा औरर दकियानूसी करार देने लग जाते हैं । हमारे देश की चिंतन पद्धति के
विकास के लिए यह आवश्यक है कि सभी विचारधारा के लोग खुले मन से एक साथ बैठें और
विचार विनिमय करें क्योंकि असग अलग विचारों को मानने वाले विरोधी तो हो सकते हैं
दुश्मन नहीं होते हैं । और इगर दुश्मन नहीं हैं तो साथ बैठने में क्या आपत्ति ।
जरा इसपर भी प्रगतिशील लोग विचार करें ।
1 comment:
अवसरवादी लेखकों के मुंह पर करारा तमाचा।
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