बैंकों में नोट बदलने और पुराने नोटों को जमा करने के बीच सियासी
बयानबाजी भी चरम पर है । विरोधी दल सरकार के इस फैसले के साथ दिखने की कोशिश कर
रहे हैं लेकिन एक बड़े प्रश्नचिन्ह के साथ । प्रश्नचिन्ह सरकार की उस फैसले के
पहले तैयारियों को लेकर लगाए जा रहे हैं । सरकार के फैसलों की आलोचना करना और जनता
को हो रही दिक्कतों के पक्ष में खड़े होना विपक्ष का संवैधानिक अधिकार है । उसे
करना भी चाहिए । लेकिन लोकतंत्र में आरोपों की एक लक्ष्मणरेखा ना हो लेकिन मर्यादा
तो होती ही है, होनी भी चाहिए । नोटबंदी के केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ दिल्ली
के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मोर्चा खोला हुआ है । केजरीवाल सरकार ने इस
फैसले के खिलाफ विधानसभा का एक दिन का विशेष सत्र बुलाया । इस सत्र में केंद्र
सरकार के नोटबंदी के फैसले के खिलाफ जमकर भाषण आदि हुए लेकिन जब अरविंद केजरीवाल
के बोलने की बारी आई तो उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर संगीन इल्जाम जड़
दिए । उन्होंने आयकर विभाग के दस्तावेजों को विधानसभा में दिखाते हुए आरोप लगाया
कि वर्ष दो हजार तेरह में एक औद्योगिक घराने पर इंकमटैक्स पर हुई रेड के दौरान जो
दस्तावेज आदि मिले थे उसमें गुजरात सीएम को पच्चीस करोड़ देने का जिक्र है । उन्होंने
इसको सत्य मानते हुए नरेन्द्र मोदी के साथ साथ कांग्रेस को घेरा । उनका आरोप है कि
कांग्रेस ने उस वक्त मोदी के खिलाफ कार्रवाई इस वजह से नहीं कि अगली सरकार अगर
मोदी की बनती है तो वो भी उनके नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं करेंगे । अपने
आरोपों को वजनदार बनाने के लिए उन्होंने राबर्ट वाड्रा को भी घसीट लिया । इस तरह
के आरोप लगाकर अरविंद केजरीवाल ने सनसनी फैलाने की कोशिश की । दिल्ली के
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हवाला कांड में डायरी में लालकृष्ण आडवाणी का नाम
आने के बाद उनके इस्तीफा का उदाहरण देते हुए मोदी को ललकारा । यहीं केजरीवाल से
चूक हो गई । उन्होंने डायरी में नाम आने पर लालकृष्ण आडवाणी के इस्तीफे का हवाला
तो दे दिया लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र नहीं किया । यह
उसी तरह है जैसे महाभारत के युद्ध में जब द्रोणाचार्य को पराजित की योजना बनी तो
कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर के ये कहते ही कि अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा
में हतो के बाद इतनी जोर से शंख बजा दिया कि द्रोणाचार्य को नरो वा कुंजरो नहीं
सुनाई दिया और उन्होंने ये मानकर कि अश्वत्थामा की मौत हो गई है, हथियार डाल दिए ।
हवाला के केस में सुप्रीम कोर्ट ने एविडेंस एक्ट को परिभाषित करते हुए साफ कहा था
कि किसी भी डायरी में किसी का नाम होने से वो दोषी नहीं हो जाता है । डायरी में
नामोल्लेख के साथ साथ सबूत भी होने चाहिए कि जिसका नाम है उसको पैसे दिए गए हैं । केजरीवाल
के मोदी पर आरोप में कोई सबूत नहीं हैं ।
दरअसल अगर हम देखें तो अरविंद केजरीवाल की सियासत की बुनियाद ही आरोप
रहे हैं । उन्होंने जब भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के साथ मिलकर मुहिम शुरू
की थी तब भी उन्होंने यूपीए सरकार के सोलह मंत्रियों की एक सूची जारी कर उनपर
भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम लगाए थे । उन मंत्रियों में मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब
मुखर्जी का नाम भी शामिल था । ये उनकी रणनीति है कि आरोप लगाओ, शक का एक वातावरण
तैयार करो और फिर उसका राजनीतिक फायदा उठाओ । यूपीए सरकार के दौरान लगातार
भ्रष्टाचार के मामलों ने केजरीवाल के आरोपों की सियासत को उर्वर जमीन मुहैया करवाई
थी । तब लोग उनपर यकीन भी कर लेते थे और उनकी सियासी जमीन मजबूत भी हो जाती थी ।
जब उनके आरोपों पर सवाल खड़े किए जाते थे तो वो या उनके सिपहसालार ये कहकर बच जाते
थे कि मैसेंजर को क्यों शूट किया जा रहा है । कई बार तो ऐसा हुआ है कि जिनपर आकोप
लगाए हैं वो खड़े हो जाते हैं तो मामला लगभग खत्म सा भी होने लगता है । नितिन
गडकरी पर जब केजरीवाल ने आरोप लगाए थे तो उन्होंने अरविंद के खिलाफ आपराधिक मानहानि का केस किया था । उस केस
में निचली अदालत ने जब केजरीवाल को जमानत लेने को कहा तो उन्होंने इंकार कर दिया
था । हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जब उनको राहत नहीं मिली तो उनको जमानत लेनी पड़ी
थी । इसी तरह से उन्होंने पिछले दिनों दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन को लेकर वित्त
मंत्री अरुण जेटली पर आरोपों की झड़ी लगा दी थी जिसके बाद उनके खिलाफ जेटली ने
आपराधिक मानहानि का केस दर्ज किया है जो कि अदालत में लंबित है । दरअसल जैसा कि उपर कहा गया है कि अरविंद केजरीवाल ने अपनी राजनीति की शुरुआत से
ही बड़े लोगों के खिलाफ शक पैदा कर आगे बढ़ने की रणनीति अपनाई । खुलासा दर खुलासा
किया । बड़े उद्योगपति से लेकर राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष और कांग्रेस अध्यक्ष
के दामाद तक पर सनसनीखेज आरोप लगाए । एक से एक संगीन इल्जाम । उन आरोपों को अंजाम तक
पहुंचाने की मंशा नहीं थी । तर्क ये कि जाचं का काम तो एजेंसियों का है । लेकिन
क्या अपने आरोपों पर अरविंद ने कभी भी पलटकर सरकार से ये पूछने कि कोशिश की कि
क्या हुआ । वो सिर्फ सनसनी के लिए थे लिहाजा वो सनसनी पैदा कर खत्म होते चले गए ।
तात्कालिक फायदा यह हुआ कि अरविंद केजरीवाल देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ योद्धा
के तौर पर स्थापित होते चले गए । लोगों के मन में एक उम्मीद जगी कि ये शख्स अलग है । कुछ कर दिखाना
चाहता है ।
सवाल यही है कि इस तरह की राजनीति कितनी दीर्घजीवी हो सकती है । दरअसल
आरोपों की राजनीति काठ की हांडी की तरह होती है जो एक बार तो चढ़ सकती है बार-बार
नहीं । आरोपों की सियासत का नतीजा यह हुआ कि लोग अब ये बातें करने लगे कि केजरीवाल
सिर्फ आरोप लगाते हैं उसके बाद वो खामोश हो जाते हैं । दिल्ली में सरकार चलाने के
दौरान उनके साथियों पर जिस तरह के आरोप लगे उससे उनकी छवि छीजती जा रही है और एक
बार वो फिर से अपनी इस छीजती छवि को आरोपों की राजनीति के सहारे बेहतर करने की
जुगत में लगे हैं ।
दूसरा सवाल ये खड़ा होता है कि क्या किसी विधानसभा को राजनीतिक आरोपों
प्रत्यारोपों का अखाड़ा बनाने की इजाजत दी जा सकती है । आमतौर पर ये संसदीय परंपरा
रही है कि जो व्यक्ति सदन का सदस्य नहीं होता है उसके बारे में आरोप लगाने या उसका
नाम नहीं लिया जाता है । कई बार संसद में इस तरह के मसले उठते हैं लेकिव पीठासीन
अधिकारी या खुद सदन के अध्यक्ष या सभापति उसको रोक देते हैं । लेकिन दिल्ली
विधानसभा में सदन का नेता खड़े होकर एक शख्स पर आरोप लगा रहा था और विधानसभा
अध्यक्ष खामोशी के साथ उनको सुन रहे थे । इस आरोप के बाद विधानसभा अध्यक्ष की
जिम्मेदारियों पर भी एक बार फिर से विचार करने की जरूरत है । विधानसभा का का विशेष
सत्र लोकहित से जुड़े आपात मसलों में बुलाने की परंपरा रही है लेकिन दिल्ली में तो
विधानसभा का विशेष सत्र इतवनी जल्दी जल्दी बुलाए जा रहे हैं कि लोकहित के आपात
मसलों को भी फिर से परिभाषित करने की जरूरत आन पड़ी है क्योंकि किसी भी दल को अपनी
राजनीति के लिए विधानसभा का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है ।
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