हिंदी के मशहूर कथाकार राजेन्द्र यादव की याद में ‘राजेन्द्र यादव स्मृति समारोह
हंस साहित्योत्सव’ का आयोजन किया गया । दिन भर के इस
कार्यक्रम में वक्ताओं की भारी भरकम फेहरिश्त दिखाई दे रही है । सबसे पहले तो
आश्चर्च इस समरोह के नाम को लेकर हुआ । हंस साहित्योत्सव । आश्चर्य आयोजकों की
अज्ञानता कहें या चतुराई को लेकर है । दरअसल साहित्य अकादमी के सालाना आयोजन का
नाम भी साहित्योत्सव है । हैरानी इस बात पर है कि हंस के इस आयोजन से जुड़े लोगों
को यह तथ्य कैसे पता नहीं है या फिर उन्होंने साहित्योत्सव के आगे हंस जोड़कर ये
मान लिया कि हिंदी जगत उनकी चतुराई को पकड़ नहीं पाएगा । अगर ऐसा माना भी है तो ये
उनकी भूल है । राजेन्द्र यादव ही कहा करते थे कि हिंदी में चतुराई का खेल ज्यादा
लंबा चलता नहीं है, हलांकि वो भी चतुराई के मास्टर थे । उन्होंने हंस पत्रिका में
छपने वाली महिला कथाकारों की ताजा तस्वीर कभी नहीं छापी । अब इस बात का पता नहीं
कि पाठक उनकी इस चतुराई को पकड़ पाया था या नहीं । खैर ये अवांतर प्रसंग है इस पर
फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी ।
हंस के आयोजन को भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने प्रायोजित किया है
जो कि उनके आमंत्रण कार्ड पर प्रमुखता से छपा है । ये मंत्रालय कथित फासीवाद सरकार
की है. जो सरकार लेखकों के खिलाफ है. जो सरकार अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ है,
जो सरकार तर्कवादियों की दुश्मन है लेकिन वही सरकार इस तरह के आयोजनों को पैसा भी
देती है । कथाकार प्रियंवद ने संस्कृति मंत्रालय से पैसा लेने पर सवाल उठाया था
लेकिन दरअसल सवाल तो संस्कृति मंत्रालय के उन अफसरों पर उठना चाहिए जो कि इस तरह
के आयोजनों को फंड देते हैं । अभी जुलाई में हंस के सालाना कार्यक्रम को भी
संस्कृति मंत्रालय ने पैसे दिए थे औप उस गोष्ठी में वक्ताओं ने जमकर भारत सरकार और
नरेन्द्र मोदी को कोसा । फासीवादी सरकार से लेकर जाने क्या क्या आरोप लगाए गए
लेकिन संस्कृति मंत्रालय की उदारता देखिए कि जुलाई में जिस संगठन के आयोजन में
भारत सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कठघरे में खड़ा किया गया उसी संगठन
को और बड़ा आयोजन करने के लिए तीन महीने बाद और बड़ी राशि का अनुदान दिया गया । यह
तो है इस सरकार की उदारता जिसपर फासीवादी होने का आकोप लगता है । दरअसल अगर हम
देखें तो मोगी सरकार के कई मंत्रालयों में ऐसे अफसर और नुमाइंदे बैठे हैं जो इस
तरह के आयोजनों को आंख मूंदकर सहयोग राशि जारी करते हैं । ये मसला सिर्फ हंस का
नहीं है । भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद से लेकर अन्य सांस्कृतिक संगठनों से अब
भी सरकार विरोधियों को तमाम तरह की सुविधाएं मिल रही हैं । तो क्या ये मान लिया
जाए कि इस सरकार की नीतियों को कोसनेवालों और उसको देश विदेश में कठघरे में खड़ा
करनेवालों को सरकार ही मजबूती देती है । आईसीएचआर ऐसे विद्वानों को विदेश भेजती है
जो वहां जाकर भारत सरकार और प्रधानमंत्री के खिलाफ तमाम तरह के आरोप लगाते हैं और
तालियां बटोरकर, विदेश में घूमघामकर वापस लौट आते हैं ।
सरकार के खिलाफ लिखने-बोलनेवालों को जिस तरह से आर्थिक मदद दी जा रही है,
उससे तो साफ तौर पर यह कहा जा सकता है कि इस सरकार पर फासीवाद के आरोप बेबुनियाद
हैं बल्कि ये तो इस मायनेमें सबसे लोकतांत्रिक सरकार है । वामपंथियों की सरकार से भी ज्यादा क्योंकि उनकी
सरकारों के दौरान क्या कभी संस्कार भारती या इस तरह की अन्य संस्थाओं को सरकारी
अनुदान नहीं दिया गया । बल्कि उनका तो नाम देखकर ही उनके प्रस्तावों को डस्टबिन
में डाल दिया जाता रहा है । जनता को तय करना है कि कौन सी सरकार फासीवादी है ।
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