भारत संभवत: विश्व का इकलौता देश होगा जहां अपनी
कला संस्कृति को बचाने, संजोने और सहेजने को लेकर एक तरह की उपेक्षा का भाव दिखाई
देता है । यहां अपनी विरासत को आगे बढ़ाने को, अपनी पारंपरिक भाषा और वेशभूषा में
बात करने को पिछड़ेपन की निशानी करार दिया जाता रहा है । हमारे देश की संस्कृति
बेहद आधुनिक रही है लेकिन धीरे-धीरे उसको पुरातन करार देकर पश्चिमी संस्कृति को
अपनाने की राह बनाई गई और युवाओं को उस राह पर चलने के लिए येन केन प्रकारेण
प्रेरित और बहुत हद तक मजबूर किया गया । मजबूर इस वजह से कि भारत की पौराणिक
संस्कृति को अपनाने पर दकियानूसी और पिछड़ा कहकर प्रचारित किया जाने लगा । पश्चिमी
सभ्यता और संस्कृति को मॉडर्न बताया जाने लगा । यह कहना अनुचित होगा कि पश्चमी
संस्कृति में कोई बुराई है लेकिन वो उनकी अपनी संस्कृति है, हमारी अपनी संस्कृति
है । आपत्ति तो उनकी संस्कृति में आवाजाही को लेकर भी नहीं होनी चाहिए । आपत्ति तब
होती है जब उनकी विदेशों से आई संस्कृति को बेहतर और भारतीय संस्कृति को बदतर कहकर
प्रचारित किया जाता है । किसी भी लकीर को बड़ी दिखाने के लिए दूसरी लकीर को छोटी
करने के उद्यम से बेहतर होता है अपनी लकीर को बड़ी करना । अफसोस तो तब होता है जब
देश में कला और संस्कृति के वाहक भी भारतीय संस्कृति को अपेक्षित महत्व नहीं देते
हैं और विदेशी संस्कृति को तरजीह देते हैं।
कमोबेश यही स्थिति साहित्य में भी है । हम अपने साहित्य की समृद्ध
विरासत को संजोने में नाकाम रहे और फिर एक लंबे अंतराल के बाद विदेशों से आनेवाले
साहित्य को ही सर्वोत्तम मानने लगे जबकि वही काम हमारे देश में वर्षों पूर्व किया
जा चुका है चाहे वो व्याकरण का क्षेत्र हो या फिर विज्ञान का । विचार करना होगा कि
आज भारत में लोग व्याकरण के लिए पाणिनी को कितना याद करते हैं और रेन और मार्टिन
को कितना महत्व देते हैं । आज से करीब पच्चीस सौ साल पहले पाणिनी ने चालीस पन्नों
में जो अष्टाध्ययी लिखा वो अप्रतिम है लेकिन उसको लेकर अब हमारे अकादमिक जगत में
कोई हलचल होती हो ये ज्ञात नहीं है । पाणिनी ने उस वक्त पवित्र मानी जानेवाली भाषा
संस्कृत के स्वर और व्यंजन को एक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया । विशेषज्ञों का तो
यहां तक मानना है कि इस भाषिक वैज्ञनिकी की वजह से भारत साफ्टवेयर के क्षेत्र में
अग्रणी बना हुआ है जबकि चीन अब भी हार्डवेयर में ही फंसा हुआ है । तो अगर हम देखें
तो यहां भी साफ नजर आता है कि हम अपनी परंपराओं के प्रचार प्रसार को लेकर कितने
उदासीन हैं । संस्कृत को जिस पवित्रता से पाणिनी ने आजाद करवाकर वैज्ञानिकता से
जोड़ा था बाद में उसको फिर से पवित्र बनाकर विश्वविद्यालयों के विभागों में कैद कर
दिया गया है । ये क्यों और कैसे हुआ इस पर राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए ।
इसी तरह से अगर हम देखें तो साहित्य की भी कई विधाओं के साथ यही
सलूक हो रहा है । इन विधाओं में नाटक प्रमुख है जिसको लेकर कम से कम हिंदी में तो चंद
लोग ही गंभीरता से काम करते नजर आ रहे हैं । साहित्य को अपने कंधे पर उठाकर आधुनिक
बनाने का दावा करनेवाली नई पीढ़ी के लेखक नाट्य लेखन की ओर प्रवृत्त नहीं हो रहे
हैं । संभव है मेरे इस कथन पर नाटक से जुड़े लोगों को आपत्ति हो लेकिन क्या हम
युवा पीढ़ी के लेखकों के लिखे नाटकों के बारे में जानते हैं । अगर लिखे भी जा रहे
हों तो जिस तरह से उसको प्रचारित किया जाना चाहिए वो नहीं हो रहा है । यह सही है
कि देश के हर शहर में नाटक से जुड़े लोग मिल जाएंगे और उसमें से कई गंभीरता से काम
भी कर रहे हैं लेकिन नाटक अब एक खास दायरे में बंधता नजर आ रहा है । नई पीढ़ी में
इंदिरा दांगी ने ने नाटक लिखे हैं और उनसे वरिष्ठ पीढ़ी की विभा रानी भी लगातार
नाटक के क्षेत्र में सक्रिय हैं और उस क्षेत्र में कुछ नया कर रही हैं । और भी लोग
होंगे । परंतु नाटक जैसी असीमित संभावनाओं वाली विधा के लिए इतना प्रयास काफी नहीं
है । हाल ही में मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय ते आत्माराम सनातन धर्म कॉलेज के
ड्रामेटिक सोसाइटी के एक कार्यक्रम में जाने का मौका मिला । छात्रों ने खुद ही कई
नाटक लिखे और उनका मंचन भी किया । छोटे नाटक लेकिन बड़ा संदेश । छात्रों के लिखे
नाटकों में मोहब्बत की एक अंतर्धारा साफ तौर पर दिखाई दे रही थी । सात नाटकों को
देखने के बाद ये लगा कि कोई संस्थान तो ऐसा है जो छात्रों को गंभीरता से इस विधा
की ओर प्रवृत्त कर रहा है । कॉलेज के प्रिंसिपल ज्ञानतोष झा तो साफ कहते हैं कि
उनका मकसद छात्रों में एक तरह के कौशल का विकास करना है और इस कौशल विकास के लिए
रंगमंच भी एक माध्यम हो सकता है । छात्रों को रंगमंच की बुनियादी सुविधाएं तो मिल
ही रही हैं वहां लगातार नाटक से जुड़े लोगों से छात्रों का संवाद भी करवाया जाता
है । इस कॉलेज के छात्रों को प्रिंसिपल के मार्गदर्शन के अलावा जयदेव तनेजा की कॉलेज
शिक्षक के रूप में उपस्थिति ने भी माहौल बनाया । वहां भी छात्रों से बात करने पर
ये पता चला कि वो बेहतर नाटकों की तलाश में रहते हैं । बड़े और कठिन नाटकों को
करने से पहले वो छोटे-छोटे और आसान नाटक करना चाहते हैं ताकि अपनी कला को मांज
सकें । हिंदी में कम नाटक लिखे जाने की वजह से उनको दिक्कतें होती हैं । दरअसल नाट्य लेखन करते वक्त लेखकों को अभिनय, संगीत, नृत्य
के अलावा अन्य दृश्यकलाओं के बारे में भी ज्ञान होना आवश्यक है । इस ज्ञान के लिए
बेहद श्रम की जरूरत है क्योंकि जिस तरह से हमारे समाज की स्थितियां जटिल से जटिलतर
होती जा रही हैं उसको नाटक के रूप में प्रस्तुत कर दर्शकों को अपनी बात संप्रेषित
करना एक बड़ी चुनौती है । चुनौती तो नाटकों में संदेश देने से लेकर व्यवस्था को
चैलेंज करने कि भी है । बगैर इसके नाटकों में वो दम नहीं आ पाता है जो अंधा युग से
लेकर जिन लाहौर नईं बेख्या.. तक में महसूस किया जा सकता है । लेकिन संतोष ये कि इस
विधा को लेकर छात्रों को आगे बढ़ाने का काम हो रहा है ।
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