केंद्र में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के तीन साल
पूरे हो रहे है। सरकार के उठाए गए कदमों के बारे में सब जगह चर्चा हो रही है लेकिन
स्वस्थ लोकतंत्र में बगैर विपक्ष के बारे में बात किए कोई चर्चा पूरी नहीं होती
है। आज जब सरकार ने तीन साल पूरे कर लिए हैं और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में
लगातार इजाफा हो रहा है तब विपक्ष के बारे में, उसकी नीतियों और कार्यक्रमों के
बारे में विचार करना और जरूरी हो गया है। पारंपरिक आंकलन के मुताबिक किसी भी सरकार
के लिए तीन साल के बाद जनता के मोहभंग का काल होता है और विपक्ष उसका ही फायदा
उठाते हुए अपनी राजनीति करता है। सत्ता में अपनी वापसी की जुगत लगाता है। पर इस वक्त
पारपंरिक राजनीति को नरेन्द्र मोदी का मजबूत नेतृत्व और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह
की अकाट्य रणनीति ने नकार दिया है। एक के बाद एक विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत
से पार्टी के हौसले बुलंद हैं और विपक्ष के हौसले पस्त हैं। प्रमुख विपक्षी दल
अपने नेतृत्व की क्षमताओं से जूझ रहा है और अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं की अपनी
अपनी महात्वाकांक्षाएं हैं। इस वक्त अगर देखें तो कांग्रेस में भ्रम की स्थिति बनी
हुई है, पार्टी ये तय नहीं कर पा रही है कि पश्चिम बंगाल में वो सीपीएम का साथ
छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का हाथ पकड़े या फिर सीपीएम के साथ बनी रहे। तृणमूल
कांग्रेस के साथ जाने को लेकर कांग्रेस की राज्य ईकाई में विरोध के स्वर उठ रहे
हैं। बंगाल में पार्टी के सबसे मजबूत नेताओं में से एक अधीर रंजन चौधरी ने एक तरह
से बगावत के संकेत दे ही दिए हैं। ममता बनर्जी भी कांग्रेस अध्यक्ष से मिल रही हैं
लेकिन कांग्रेस के नेता मानस भुइंया को अपनी पार्टी से राज्यसभा का उम्मीदवार बनाने
का एलान कर पार्टी को झटका भी दे रही हैं ।
कांग्रेस पार्टी में कई स्वयंभू नेता अलग अलग तरीके का बयान देकर
पार्टी की मिट्टी पलीद करने में लगे हैं। तीन तलाक के मुद्दे पर कपिल सिब्बल ने
जिस तरह से राम का नाम उछाला उसने कांग्रेस की छवि को खासा नुकसान पहुंचाया । कांग्रेस
को अब ये समझने की जरूरत है कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का दौर अब लगभग खत्म हो चला
है। भारतीय संविधान सबको समान अवसर की बात करता है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस के
नेता संविधान की प्रस्तावना को भी भुला बैठे हैं। दूसरे राहुल गांधी के अध्यक्ष
बनने को लेकर जिस तरह से सालों से भ्रम बना हुआ है उसने भी पार्टी के नेताओं के
बीच कंफ्यूजन की स्थिति पैदा कर दी है । और जब नेता ही कंफ्यूज रहेगें तो पार्टी
का तो भगवान ही मालिक है।
दूसरी तरफ अगर हम क्षेत्रीय दलों की बात करें तो बिहार में सत्ता
में सहयोगी लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच सबकुछ ठीक चल रहा है, ऐसा विश्वास के
साथ कहना मुमकिन नहीं है। जब लालू यादव के ठिकानों पर छापा पड़ा तो जिस तरह से
बीजेपी को नए सहयोगी के लिए लालू ने मुबारकबाद दिया उससे साफ है कि गठबंधन मजबूरी
में चल रहा है। नीतीश और लालू यादव स्वाभाविक सहयोगी नहीं है बल्कि सत्ता के लिए
साथ हैं। जैसे ही नीतीश कुमार को यह लगेगा कि लालू के बगैर भी उनका काम चल सकता है
वो फैसला लेने में एक मिनट की देरी नहीं लगाएंगे। अखिलेश यादव और
मायावती अपनी अपनी पार्टी की समस्याओं से जूझ रही हैं। मायावती के सामने पार्टी को
बचाने का संकट तो है ही उनके भाई पर अकूत संपत्ति जमा करने का भी आरोप लगा है।
अखिलेश के सामने शिवपाल की चुनौती तो है ही, योगी आदित्यनाथ की सरकार तमाम तरह के
जांच के आदेश भी दे रही है। बचते हैं नवीन पटनायक। नवीव बाबू को भी बीजेपी से कड़ी
टक्कर मिलने की उम्मीद है और उनको तय करना है कि वो विपक्षी दलों की एकता में
शामिल हों या नहीं। राष्ट्रवाद के इस दौर में फारुख अब्दुल्ला जिस तरह की बयानबाजी
कर रहे हैं उसमें उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस जिस दल या गठबंधन के साथ जाएगी उसको
नुकसान हो सकता है। हरियाणा में चौटाला की पार्टी भी बिखरी हुई है क्योंकि पिता
पुत्र दोनों जेल में हैं।
दरअसल विपक्षी एकता की कोशिश कर रहे दलों के बीच भी विश्वास की
भारी कमी है। अगर हम दक्षिण के राज्यों की बात करें तो एआईएडीएमके और वाईएसआर
कांग्रेस तो बीजेपी के साथ होने को बेताब है। ले देकर बचती है सीपीआई और सीपीएम।
सीपीआई का कोई जनाधार बचा नहीं है और सीपीएम भी आंतरिक कलह से जूझ रही है। पार्टी
में सीताराम येचुरी को राज्यसभा में तीसरी बार भेजने को लेकर करात गुट और सीता गुट
खुलकर आमने सामने आ गए हैं। बंगाल सीपीएम ने खुलकर येचुरी को राज्यसभा का तीसरा
टर्म देने का प्रस्ताव पोलित ब्यूरो को भेज दिया है। करात गुट ने ने येचुरी को
राज्यसभा में जाने से रोकने के लिए तीन चार तर्क दिए जिसे बंगाल यूनिट ने खारिज कर
दिया । अब छह और सात जून की पोलित ब्यूरो की बैठक में इसपर फैसला होना है। सीपीएम
को बंगाल से राज्यसभा की इस सीट को जीतने के लिए कांग्रेस की मदद चाहिए होगी।
राजनीति मे हमेशा दो और दो चार नहीं होता है। उसी तरह से अगर देखें तो इन दिनों
येचुरी विपक्षी एकता को लेकर सोनिया गांधी से कई बार मिल चुके हैं। कुछ लोग इस
सक्रियता को राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के समर्थन से जोड़कर भी देख रहे हैं। अगर
समग्रता में विपक्ष के हालत पर विचार करें तो यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा
संकेत नहीं है लेकिन लोकतंत्र में सबकुछ जनता पर निर्भर करता है और जनता इस वक्त
मोदी सरकार के कामकाज से खुश है क्योंकि विपक्ष कोई विकल्प पेश करने में नाकाम रहा
है।
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