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Saturday, May 13, 2017

सांस्कृतिक नीति की आवश्यकता

इन दिनों साहित्य कला जगत में सरकार के एक कदम को लेकर खासी चर्चा है। सरकार ने इन संस्थाओं को कहा है कि वो अपने बजट का तीस फीसदी अपने आंतरिक स्त्रोत से इकट्ठा करें। इस संबंध में साहित्य अकादमी और संस्कृति मंत्रालय के बीच सत्ताइस अप्रैल को एक करार हुआ है। इस करार के मुताबिक साहित्य अकादमी को इस बाबत कोशिश करनी होगी। इसी तरह का करार अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं के लिए प्रस्तावित है । माना जा रहा है कि निकट भविष्य में ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र जैसी संस्थाओं को भी अपनी बजट का तीस फीसदी हिस्सा अपने आंतरिक स्त्रोत से इकट्ठा करना होगा। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसपर गहन विचार-विमर्श के बाद फैसला किया जाना चाहिए था। इस फैसले के दो पक्ष हैं और दोनों पर विचार करते हुए अगर किसी नतीजे पर पहुंचते तो बेहतर होता। साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी में पूर्व में कई तरह की गड़बड़ियां हुई हैं। कई साल पहले साहित्य अकादमी के और अब ललित कला अकादमी के सचिव को उनके पद से हटाया भी जा चुका है। संसदीय समितियों ने इनके कामकाज में भी कई गड़बड़ियां पाई थीं। उसके बाद बनी हाई पॉवर कमेटी ने भी कई तरह की सिफारिशें की थीं। बावजूद इसके इन संस्थानों के बजट में कटौती और उनको संसाधन जुटाने के लिए कहना उचित नहीं है।साहित्य,कला और संस्कृति हमेशा से राज्याश्रयी रही है। बगैर राज्याश्रय के कला-संगीत कभी फला-फूला नहीं है। साहित्य अकादमी ने जो करार संस्कृति मंत्रालय के साथ किया है वो उनकी बेवसाइट पर मौजूद है। उसको ध्यान से पढ़ने के बाद संस्कृति मंत्रालय के इस प्रस्ताव की विसंगतियां समझ में आती हैं। साहित्य अकादमी को सरकार से अलग अलग मदों के लिए अनुदान मिलता है। जैसे वेतन के लिए अलग, कार्यक्रमों के लिए अलग, लेखकों की यात्रा के लिए अलग और सलाना अकादमी पुरस्कारोंम के लिए अलग । अगर सूक्ष्मता से तीस फीसदी संसाधन जुटाने के प्रस्ताव को देखें तो यह प्रस्ताव हास्यास्पद लगता है। अकादमी अपने कर्मचारियों के वेतन का तीस फीसदी किस तरह से और कहां से जुटाएगी? सवाल उठता है कि करार बनानेवालों ने इस बात पर विचार किया या करार पर दस्तखत करनेवालों ने इस बाबत अपनी आपत्ति दर्ज की।
अकादमी लेखकों को हर साल दिए जानेवाले पुरस्कार की राशि का तीस प्रतिशत कहां से लाएगी इस बारे में सोचा जाना चाहिए था। इसका तो एक ही उपाय सूझता है कि ये अकादमियां अपने पुरस्कारों के लिए स्पांसरशिप ढूंढें। कुछ सालों पहले साहित्य अकादमी के पुरस्कार को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने स्पांसर करने का प्रस्ताव किया था, लेकिन लेखकों के विरोध आदि को देखते हुए वो जना परवान नहीं चढ़ सकी थी। साहित्य, कला और संस्कृति की इन संस्थाओं को बाजार की बुरी नजर से बचाकर रखने की कोशिश होनी चाहिए। अगर सरकार इन अकादमियों के खर्चे से अपने को अलग करना चाहती है तो उनको सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी फंड को इन अकादमियो को दिलवाने के लिए आदेश जारी करना चाहिए। निजी क्षेत्र का पैसा जैसे ही इन अकादमियों में लगेगा तो फिर उन कंपनियों की शर्तें भी लागू करनी पड़ेंगी।
दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी कला केंद्र की स्थिति इन अकादमियों से थोड़ी अलग है। दिल्ली के मध्य में इसके पास करीब बीस पचीस एकड़ का परिसर है। इस परिसर का व्यावसिक उपयोग होता रहा है। यहां साहित्यक मेलों से लेकर फूड फेस्टिवल तक आयोजित किए जाते हैं। इन आयोजनों के लिए कला केंद्र अपने लॉन से लेकर हॉल तक किराए पर देती है। उनको इससे आमदनी होती है। बस इस तरह की बुकिंग को बढ़ाना होगा। इसी परिसर में राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन का दफ्तर भी है, जो इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को हर महीने लाखों रुपए किराया देती है। तो इंदिरा गांधी कला केंद्र के लिए सरकार से मिलनेवाले अनुदान का तीस प्रतिशत अपने स्त्रोतों से जुटाना मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के पास सौ करोड़ की संचित निधि भी है जिसका ब्याज भी सालों से उनको मिलता रहा है, जो सरकार से मिलने वाले अनुदान के अतिरिक्त होता है। लेकिन साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी और संगीत नाटक अकादमी के परिसर ना तो बड़े हैं और ना ही उनको किराए आदि से भारी भरकम रकम मिलती है। कला प्रदर्शनी पर अगर टिकट लगाते हैं तो जो थोड़े दर्शक आते हैं वो भी इनसे मुंह मोड़ लेंगे। इसी तरह से संगीत नाटक अकादमी अगर टिकट लगाना शुरू कर देगी तो वहां भी दर्शकों, श्रोताओं को जमा करना बहुत मुश्किल होगा। साहित्य अकादमी अवश्य किताबों का प्रकाशन करती है, लेकिन वो किताबों का मूल्य बाजार के हिसाब से तय नहीं करती है बल्कि पाठकों की सहूलियत के हिसाब से तय की जाती है । इन अकादमियों का उद्देश्य देश में कला, साहित्य और संस्कृति के माहौल का निर्माण करना है और अगर ये व्यावसायिक गतिविधियों में लगकर धन इकट्ठा करने लगेंगी तो फिर मूल उद्देश्य से भटकने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
सरकार में बैठे संस्कृति के कर्ताधर्ताओं को इस पहलू पर विचार करना चाहिए। दरअसल होता यह है कि सरकार में बैठे आला अफसर साहित्य कला और संस्कृति को भी अन्य विभागों की तरह चलाना चाहते हैं। गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है। नीति बनाते समय इन संस्थाओं के उद्देश्यों को समझते हुए उसके असर का भी आंकलन करना आवश्यक होता है। यह सुनने देखने में बहुत अच्छा लगता है कि स्वायत्तशासी संस्थाओं को वित्तीय रूप से भी स्वायत्त होना चाहिए। जब इस सिद्धांत को साहित्य कला और सांस्कृतिक संगठनों पर लागू करने के बारे में फैसला लेने की घड़ी आती है तो भारत सरकार के लोक-कल्णकारी स्वरूप को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
अगर हम देश के अन्य राज्यों की अकादमियों पर गौर करें तो राज्य सरकारों ने उनको लगभग पंगु बना दिया है । इन अकादमियों को राज्य सरकारों ने अपना प्रचार विभाग बना दिया है चाहे वो दिल्ली की हिंदी अकादमी हो या बिहार की संगीत नाटक अकादमी। बिहार की इस अकादमी को तो राज्य सरकार ने इवेंट मैनेजमेंट कंपनी बना दिया है। सरकार को जब कोई कार्यक्रम आदि करना होता है तो वो अकादमी को एक निश्चित राशि अनुदान के तौर पर दे ती है। इस अनुदान के साथ यह आदेश भी आता है कि अमुक कार्यक्रम, अमुक संस्था या अमुक व्यक्ति को दिया जाए। उदाहरण के लिए प्रकाश पर्व के वक्त अकादमी को करीब दो करोड़ रुपए का अनुदान मिला था, साथ ही ये आदेश भी आया था कि ये राशि दिल्ली के भाई बलदीप सिंह से जुड़े अनाद फाउंडेशन को दिया जाए जो कि उस दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करेगी। । ऐसा ही हुआ भी । इसी तरह से आगामी सितंबर अक्तूबर में बिहार में विश्व कविता सम्मेलन का आयोजन किया जाना है। इस आयोजन का बजट तीन करोड़ का है और इसका आयोजन बहुत संभव है कि बिहार संगीत नाटक अकादमी के माध्यम से हो। इस आयोजन को करने का जिम्मा अशोक वाजपेयी या उनकी संस्था को दिया जाना भी लगभग तय है। ऐसी स्थिति में अकादमी के करने के लिए क्या बचता है। दरअसल बिहार सरकार ने ऐसी व्यवस्था बना दी है कि अगर किसी कार्यक्रम में किसी तरह की गड़बड़ी हो तो उसकी जिम्मेदारी अकादमी पर डाल कर निकल लिया जाए। अब अगर विश्व कविता सम्मेलन सफल होता है तो सेहरा अशोक वाजपेयी और बिहार सरकार के सर बंधेगा और अगर किसी तरह की गड़बड़ी होती है तो अकादमी को जिम्मेदार ठहरा दिया जाएगा।
बिहार में संगीत नाटक अकादमी की दुर्दशा और स्वयत्ता को खत्म करने के खिलाफ किसी भी कोने अंतरे से आवाज नहीं उठती है। कोई जनवादी लेखक संघ, कोई प्रगतिशील लेखक संघ या कोई जन संस्कृति मंच इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता है। इसके राजनीतिक कारण हैं जो बिल्कुल साफ हैं। यहां इनको संस्कृति पर कोई खतरा भी नजर नहीं आता है। बिहार के भी जो क्रांतिकारी लेखक आदि हैं वो भी खामोश हैं।

दरअसल अब वक्त आ गया है कि केंद्र सरकार को एक ठोस सांस्कृतिक नीति बनानी चाहिए । जब इन अकादमियों का गठन हुआ था तब देश की स्थिति अलग थी, अब परिस्थियां काफी बदल गई हैं। बदलते वक्त के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए यह आवश्यक है कि एक नई सांस्कृतिक नीति बनाई जाए जिसमें इन अकादमियों के काम काज को बारीकी से तय किया जाए, उनके संसाधनों को भी। इस प्रस्तावित नीति पर राष्ट्रव्यापी बहस हो, विचार हो, मंथन हो और फिर किसी नतीजे पर पहुंचा जाए। सांस्कृतिक नीति बनाते वक्त अफसरशाही से ज्यादा इस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की राय को तवज्जो दिया जाना चाहिए ताकि व्यावहारिकता का ध्यान रखा जाना चाहिए।               

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