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Sunday, May 28, 2017

तीन साल में चले अढाई कोस

दो हजार चौदह में केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद साहित्य,संस्कृति और कला के क्षेत्र में बदलाव की आहट सुनाई दी थी। आजादी के बाद पहली बार केंद्र में किसी गैर कांग्रेसी सरकार को जनता ने पूर्ण बहुमत से सत्ता सौंपी थी। बहुमत के अलावा एक और बात जिसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है वह ये कि इस सरकार को बौद्धिक समर्थन के लिए वामपंथियों के आवश्यकता नहीं थी। केंद्र में बनी नई सरकार का वैचारिक धरातल भी कांग्रेस से अलग था। आजादी के बाद से कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े संस्थानों पर वामपंथ की तरफ झुकी विचारधारा लेखकों, कलाकारों आदि का बोलबाला था। दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद यह तय हो गया था कि इन संस्थाओं में भी बदलाव होंगे। हुए भी, लेकिन जिस तरह का बदलाव अपेक्षित था, वो सरकार बनने के तीन साल बाद भी हो नहीं पाया है। सरकार पर आरोप लगे कि वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडे लोगों को चुन चुन कर इन संस्थाओं की कमान सौंप रही है। यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि जब गजेन्द्र चौहान को फिल्म इंस्टीट्यूट पुणे का चेयरमैन नामित किया गया तो खासा हो हल्ला मचा था। गजेन्द्र चौहान की योग्यता पर सवाल उठाए गए। कहा गया कि गजेन्द्र की एकमात्र योग्यता उऩका बीजेपी और संघ से जुड़ा होना है और उन्होंने महाभारत सीरियल में युधिष्ठिर की भूमिका निभाई थी। संभव है कि गजेन्द्र चौहान में उतनी योग्यता नहीं रही हो, लेकिन जो योग्यता को आधार बनाकर गजेन्द्र की आलोचना कर रहे थे उनको अपना अतीत शायद याद नहीं था। वामपंथी मित्रों से योग्यता के आधार पर नियुक्ति की बात सुनना बहुत ही हास्यास्पद लगता है। उन्होंने हमेशा से योग्यता पर प्रतिबद्धता को तरजीह दी है। अपनी विचारधारा में दीक्षित होने वालों को पहले वो सहेजते थे। बहुधा अपने प्रतिबद्ध लेखकों को बड़ा बनाने का सारा उपक्रम करने के बाद फिर नियुक्ति आदि करते रहे थे। पहले किसी लेखक को चुनते थे और उसको पुरस्कार, सम्मान आदि देकर बड़ा बना देते थे और फिर किसी संस्थान को उनके जिम्मे सौंप देते थे। यह इतने योजनाबद्ध तरीके से होता था कि लगे कि सरकार ने प्रतिबद्धता को नहीं बल्कि प्रतिभा को जगह दी है। पर यह कोई नियम नहीं था । कई बार तो मनमाने तरीके से भी नियुक्तियां कर दी जाती थीं। यहां यह स्मरण करना उचित होगा कि मार्च दो हजार नौ में सुरभि बनर्जी को कोलकाता विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त कर दिया गया था। उस वक्त सुरभि बनर्जी जी की ज्ञात योग्यता इतनी थी कि उन्होंने ज्योति बसु की जीवनी लिखी थी। तब किसी कोने अंतरे से इस नियुक्ति को लेकर आवाज नहीं उठी थी । तब योग्यता आदि के बारे में भी सवाल नहीं उठे थे। ना ही सरकार पर किसी तरह का कोई आरोप लगा था। यह तो एक उदाहरण है, इस तरह की ना जाने कितनी नियुक्तियां हुई होंगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर आरोप लगानेवाले यह भी भूल जाते है कि उस वक्त नियुक्तियों में अजय भवन के संदेश के क्या मायने हुआ करते थे। या प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की नीतियां और नियुक्तियां कहां से तय होती थीं। ये सब अपने राजनीतिक अकाओं के कृपाकांक्षी हुआ करते थे। कृपा मिलती भी थी।
नरेन्द्र मोदी की सरकार पर दूसरा बड़ा आरोप, जो वामपंथियों का है वो है पाठ्यपुस्तकों आदि में बदलाव करने की योजना पर काम करने का। उनका आरोप है कि मौजूदा सरकार की मंशा देश के इतिहास को बदलने की है। इतिहास के पुनर्लेखन को लेकर विवाद उठाने की कोशिश लगातार की जाती रही है। सवाल यही है कि अगर इतिहास लेखन में एक पक्ष रेखांकित होने से रह गया तो क्या उसको देश के इतिहास में जगह देने की कोशिश करना गलत है। क्या भारतीय चिंतन पद्धति से इतिहास लेखन में कोई बुराई है। सरकार पर इतिहास के भगवाकरण का आरोप लगानेवाले इन मित्रों को पश्चिम बंगाल सरकार के वर्षों पूर्व जारी एक प्रपत्र को देखना चाहिए। पश्चिम बंगाल सरकार की ने अट्ठाइस अप्रैल उन्नीस सौ नवासी को अपने पत्रांक एसवाईएल/89/1 के द्वारा राज्य के सभी माध्यमिक विद्यालयों के प्रधानाध्यापकों को निर्देश जारी किया था। उस निर्देश में लिखा था- मुस्लिम काल की कोई आलोचना या निंदा नहीं होनी चाहिए, मुस्लिम शासकों और आक्रमणकारियों द्वारा मंदिर तोड़े जाने का जिक्र कभी नहीं होना चाहिए। इसके साथ ही यह आदेश भी दिया गया था कि इतिहास की पुस्तकों से क्या क्या हटाना है। क्या यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि उस समय पश्चिम बंगाल में किस विचारधारा या पार्टी की सरकार थी। अब अगर पूर्व में इतिहास के साथ इस तरह की छेड़छाड़ की गई हो तो इतिहास का पुनर्लेखन करने की योजना बनाना कैसे गलत हो सकता है । इतिहास के तथ्यों के साथ इस तरह की अक्षम्य छेड़छाड़ की गई लेकिन फिर भी उस वक्त का बौद्धिक वर्ग खामोश रहा था । क्या राजनीति के आगे मशाल बनकर चलनेवाला साहित्य विचारधारा का पिछलग्गू बन गया था। या प्रत्य़क्ष और परोक्ष फायदे के लिए चुप रह गया था। या राजनीतिक आका के फैसलों पर ऊंगली उठाने की हिम्मत नहीं कर पाए थे ।
दरअसल वामपंथी दलों के शासन काल के दौरान पश्चिम बंगाल के विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों में नियुक्ति आदि में ही नहीं, उनका रोजमर्रा का संचालन भी पार्टी ही करती थी। यहां तक कि किसी विश्वविद्यालय आदि की परीक्षा की तिथि बढ़ानी चाहिए या नहीं, यह भी पार्टी ही तय करती थी। उन्नीस सौ निन्यानबे में कोलकाता के एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार ने इस बारे में विस्तार से आंकलन प्रस्तुत किया था, प्रमाण भी पेश किए थे। अब ये लोग अगर मौजूदा सरकार पर शिक्षा के भगवाकरण और संस्थाओं की स्वयत्ता खत्म करने आदि का आरोप लगाते हैं तो उन आरोपों में नैतिक दम नहीं दिखता है, बल्कि अपनी सत्ता जाने या मनचाहा नहीं कर पाने की खीज दिखाई देती है। आरोपों का असर भी कम होता है।
अब अगर हम इन आरोपों से इतर हटकर पिछले तीन सालों में साहित्यक और सांस्कृतिक संस्थाओं के काम-काज पर नजर डालें तो बहुत ज्यादा फर्क दिखाई नहीं पड़ता है। साहित्य अकादमी में तो चुने हुए अध्यक्ष होते हैं। वहां किसी तरह के बदलाव की ज्यादा गुंजाइश है नहीं । जो भी बदलाव वहां देखने को मिल सकत हैं वो अगले साल होनेवाले सामान्य परिशद के चुनाव में ही देखने को मिल सकते हैं । ललित कला अकादमी में काफी दिनों तक विवाद आदि चला। नई सरकार आने के बाद बर्खास्त किए गए विवादित सचिव सुधाकर शर्मा की बहाली फिर उनको हटाए जाने को लेकर संस्कृति मंत्रालय भी विवादों के घेरे में आया। ललित कला अकादमी इतनी विवादित हो चुकी थी कि जब उसका नियंत्रण सरकार ने अपने हाथों में लिया तो ज्यादा हो हल्ला नहीं हुआ। हर बात को अभिव्यक्ति की आजादी के खतरे से जोड़कर देखनेवाले और सांस्कृतिक संगठनों पर भगवा झंडा फहराने का आरोप जड़नेवाले बयानवीर भी इस मसले पर लगभग खामोश रहे।
दरअसल इन अकादमियों में स्वयत्ता के नाम पर जारी अराजकता को रोके जाने की सख्त आवश्यकता है। साहित्य और कला को लेकर जिस तरह के स्वायत्त संस्था की कल्पना की गई थी उसका इमरजेंसी के बाद क्षरण हो गया। भीष्म साहनी की अगुवाई में प्रगतिशील लेखक संघ ने इमरजेंसी में इंदिरा गांधी का समर्थन किया । जिसके एवज में इंदिरा गांधी ने साहित्यक सांस्कृतिक संस्थाओं को कालांतर में वामपंथियों के हवाले कर दिया। उसके बाद इन संस्थाओं में पुरस्कारो से लेकर विदेश यात्राओं की रेवड़ियां अपने अपनों को बंटने लगी। अभी हाल के दिनों में ललित कला अकादमी के पूर्व अध्यक्ष अशोक वाजपेयी की उस वक्त की विदेश यात्राओं को लेकर कई बातें सामने आई हैं जिसकी भी जांच किए जाने की जरूरत है। साहित्य और कला को लेकर जिस तरह की स्वायत्ता की कल्पना इनकी स्थापना के वक्त की गई थी उसको फिर से स्थापित करने की जरूरत है। यूपीए सरकार के दौरान इन संस्थाओं के कामकाज को लेकर एक हाई पॉवर कमेटी का गठन हुआ था। उसके पहले संसदीय कमेटी ने इन संस्थाओं के क्रियाकलापों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। इस रिपोर्ट में कई तरह की गड़बड़ियों की ओर इशारा किया गया था। उस वक्त भी इन संस्थाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही की बात तो हुई थी पर इसपर कितना काम हो पाया यह कम से कम सार्वजनिक तो नहीं ही हो पाया है। इस सरकार के सामने अब चुनौती ये है कि नियक्तियों से आगे जाकर इन संस्थाओं के कामकाज को ठीक करे। यहां व्याप्त गड़बड़ियों पर ऊंगली रखने की जरूरत है। अगर ऐसा हो पाता है तो साहित्य-संस्कृति के लिए बड़ा काम होगा अन्यथा तो सब चल ही रहा है और चलता भी रहेगा। 


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