Translate

Saturday, May 6, 2017

बाल साहित्य की उपेक्षा क्यों?

स्कूलों में गर्मी की छुट्टियां होनेवाली हैं और बच्चों को महीने डेढ महीने के लिए भारी भरकम बस्तों से भी छुट्टी मिलनेवाली है। इंटरनेट और इलेक्ट्रानिक गेम के चलन के पहले इस दौर में बच्चों की कई पत्रिकाएं निकलती थी। जो इन दिनों को ध्यान में रखकर विशेषांक आदि प्रकाशित करते थे । हमें याद है कि उन दिनों में बच्चों के अभिभावक अखबार डालनेवालों या फिर पुस्तक विक्रेताओं के पास जाकर बच्चों की पत्रिकाओं की अग्रिम बुकिंग करवा कर आते थे ताकि उनके बच्चों को पत्रिका के अंक मि सकें। पहले टीवी पर कार्टून ने और फिर इंटरनेट और इलेक्ट्रानिक गेम ने बच्चों के सामने विकल्प बढ़ा दिए। इन माध्यमों के तेजी से लोकप्रिय होते जाने से बच्चों की पत्रिकाएं धीरे धीरे बंद होने लगीं। इंद्रजाल कॉमिक्स से लेकर अमर चित्र कथा तक का प्रकाशन बंद हो गया। अब तो हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि कम से कम हिंदी साहित्य जगत में बच्चों की भागीदारी बहुत ही कम, बल्कि यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनकी भागीदारी नगण्य हो चुकी है। लेखकों की प्राथमिकता में बाल साहित्य रहा नहीं । अधिकतर लेखक बच्चों के लिए रचनाएं लिखने से कन्नी काटते हैं । इसके पीछे के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। आखिक क्यों लेखक बास पाठकों के लिए नहीं लिखना चाहते हैं। चंद लेखकों को छोड़ दें तो हाल के दिनों में सामने आई नई पीढ़ी के कथित युवा लेखकों में तो बाल साहित्य के प्रति अनुराग तो दूर की बात रुचि का भी आभाव दिखाई देता है। लेखकों को यह समझना होगा कि अगर श्रेष्ठ बाल साहित्य उपलब्ध नहीं होगा तो फिर उनकी अन्य रचनाओं को पढ़ने वाले पाठक कहां से मिलेंगे । दरअसल बाल साहित्य से किसी भी भाषा के साहित्य के पाठक ना केवल संस्कारित होते हैं बल्कि उनमें पठने की रुचि पैदा होती है । हिंदी में बाल साहित्य का ये आभाव, हो सकता है, पाठकों की कमी की वजह रही हो।

लेखकों से इतर अगर प्रकाशन की दुनिया पर नजर डालें तो वहां भी बाल साहित्य के नाम पर लगभग सन्नाटा ही दिखाई देता है। मेरी नजर में तो कोई भी हिंदी का प्रकाशक योजनाबद्ध तरीके से बच्चों की छुट्टियों को ध्यान में रखकर बाल साहित्य छापने का उपक्रम नहीं करता है। इससे इतर अन्य भारतीय भाषाओं में बाल साहित्य की स्थिति बेहतर नजर आती है। यहां तक कि असमिया में भी बाल साहित्य को लेकर नए लेखक सृजनरत हैं। असमिया की युवा लेखिका रश्मि नारजेरी को बाल साहित्य के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसी तरह की स्थिति मलयालम और तमिल में भी देखी जा सकती है। फिर सवाल उठता है कि हिंदी के युवा लेखकों में बाल साहित्य के प्रति उपेक्षा का भाव क्यों है। दरअसल हिंदी साहित्य का जो पिछला करीब ढाई दशक का कालखंड है जो कुछ नारों और आंदोलनों के इर्द गिर्द के लेखन का काल है। चाहे वो स्त्री विमर्श हो, दलित लेखन हो या फिर फॉर्मूलाबद्ध वैचारिक लेखन हो। इन आंदोलनों और नारेबाजी के लेखन में बाल साहित्य कहीं सिसकी भर रहा है । गुलजार ने अवश्य बच्चों के लिए लगातार लिखा है और अब भी लिख रहे हैं । हिंदी साहित्य की मजबूती के लिए यह आवश्यक है कि युवा लेखक बाल साहित्य की प्रवृत्त हों और अपने भविष्य के पाठक तैयार करने की ही सोचकर बाल साहित्य की रचना करें। आवश्यक तो यह प्रकाशकों के लिए भी है वो बच्चों की कृतियों के लिए योजनाबद्ध तरीके से लेखकों से लिखवाने का उपक्रम करें।  

1 comment:

Anchal Pandey said...

आदरणीय सर नमस्ते 🙏
आपके इस लेख से पूर्णतः सहमत हूँ।
बाल साहित्य को नज़रअंदाज़ करना एक तरह से साहित्य की नीव पर चोट करना है।
आज हम यदि बच्चों को बाल साहित्य की ओर उन्न्मुख नही करेंगे तो संभवतः इसके दुष्परिणाम युवा पीढ़ी को भुगतने पड़ेंगे जो आगे चलकर गंभीर साहित्य को पढ़ने वाले हैं।
नमन आपके लेख को 🙏