लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद एक फोटो खूब चर्चित हो रहा है।
वो फोटो है पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांग्रेस की नव निर्वाचित सांसद मिमी चक्रवर्ती
और नुसरत जहां की। इन दोनों युवा सांसदों ने संसद भवन के सामने अपनी एक फोटो क्या
ट्वीट कर दी मानो गुनाह कर दिया। सोशल मीडिया पर उनकी लानत मलामत शुरू हो गई। उनके
ड्रेस को लेकर उनपर भद्दी और गंदी टिप्पणियां तक की गईं। ये दोनों सांसद वयस्क हैं
और उनको संसद में क्या पहनकर जाना है इस मर्यादा को बेहतर जानती हैं। मिमी
चक्रवर्ती और नुसरत जहां दोनों बांग्ला फिल्मों की अभिनेत्रियां हैं। मिमी ने
पश्चिम बंगाल के जाधवपुर से और नुसरत ने बशीरहाट लोकसभा जीत से तीन लाख से अधिक
वोटों से चुनाव जीता है। पैंट, शर्ट और टॉप में इनकी तस्वीरों पर स्त्री
विद्वेषियों द्वारा जिस तरह की टिप्पणियां सोशल मीडिया पर की गई वो हमारे समाज के
एक वर्ग की महिलाओं को लेकर सोच प्रदर्शित करती है। हम लाख इक्कसवीं सदी की बात
करें, महिला सशक्तीकरण की बात करें लेकिन जब महिलाओं के कपड़ों को लेकर उनको
अपमानित करने की कोशिश होती है तो ये सारी बातें खोखली लगती हैं। अगर दो युवा महिला
सांसद पैंट-शर्ट में संसद पहुंच गईं तो इतना शोरगुल जबकि पूर्वी दिल्ली से लोकसभा
चुनाव जीतनेवाले पूर्व क्रिकेटर गौतम गंभीर के जींस और टीशर्ट में संसद पहुंचने पर
कोई प्रतिक्रया नहीं। गंभीर ने भी संसद भवन के सामने खड़े होकर अपनी तस्वीर खिंचवाई
और उसको ट्वीट किया। उनको कोई नहीं कहता कि संसद भवन फोटो शूट की जगह नहीं है।
उनसे कोई ये नहीं कहता कि संसद भवन फैशन परेड की जगह नहीं है, उनसे कोई नहीं कहता
कि संसद में आने का एक संस्कार होता है। क्योंकि वो पुरुष हैं। वो जैसे मर्जी
रहें, जो मर्जी पहनें, जैसी मर्जी फोटो सोशल मीडिया पर डालें लेकिन महिलाओं को ये
छूट नहीं है। अगर वो अपनी मर्जी की करती हैं तो सोशल मीडिया पर मौजूद संस्कारी
ट्रोल्स को नागवार गुजरता है और वो उनको नसीहतें देना शुरू कर देते हैं। ऐसा
प्रतीत होता है कि महिलाओं के कथित संस्कार उनके कपड़ों से तय होते हैं। इनसे पूछा
जाना चाहिए कि क्या साड़ी पहननेवाली महिलाएं ही संस्कारी होती हैं ? क्या जींस पहनने वाली कम संस्कारी होती हैं? ऐसा नहीं कहा जा सकता है। ठीक उसी तरह जैसे जींस पहनने वाली
महिलाओं को समाज में आधुनिक और साड़ी पहनने वाली महिला का परंपरावादी मान लिया
जाता है।जबकि ऐसा होता नहीं है।
दरअसल हमारे समाज में महिलाओं को लेकर एक अलग किस्म की सोच
हमेशा रही है। अगर हम मिमी और नुसरत के सोशल मीडिया पर हुई आलोचना के पहले के
इतिहास पर नजर डालें तो ऐसे-ऐसे बयान नजर आते हैं जो हमारे समाज की पुरुषवादी सोच
को उघाड़कर रख देते हैं। शिया धर्म गुरू
कल्बे जव्वाद ने कहा था कि लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर
पैदा करना है । कुदरत ने अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वो घर संभालें, अच्छी नस्ल के
बच्चे पैदा करें। कांग्रेस के नेता और गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री दिगंबर कामत
ने कहा था महिलाओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए
क्योंकि इससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।राजनीति महिलाओं को क्रेजी बना
देती है। उन्हें आनेवाली पीढ़ी का ध्यान रखना चाहिए। समाजवादी पार्टी के संस्थापक
मुलायम सिंह यादव ने भी कहा था कि अगर संसद में महिलाओं को आरक्षण मिला और वो संसद
में आईं तो वहां जमकर सीटियां बजेंगी। उसके बाद भी श्रीप्रकाश जायसवाल से लेकर
दिग्विजय सिंह तक ने महिलाओं को लेकर बेहद आपत्तिजनक बातें कही हैं। उनको इस वक्त
दुहराने का कोई अर्थ नहीं है।
पूरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति को पांच
पैमानों पर आंका जाता है- आर्थिक आजादी, बेहतर सामाजिक स्थितियां, संपत्ति
का अधिकार, मनचाहा काम करने की आजादी और संवैधानिक अधिकार। हमें
भी अपने समाज में महिलाओं की स्थिति का आकलन करते वक्त इन मानदंडों का ख्याल रखना
चाहिए। हमारे देश की महिलाओं को सशक्त करने के लिए अभी भी बहुत काम किया जाना शेष
है। महिला अधिकारों की बात करने और उसको
हासिल करने वाली महिलाएं जब स्त्री आजादी को उनकी देह से जोड़ देती हैं और मेरा तन,मेरा मन जैसे नारे फिजां में गूंजने लगते हैं तो गड़बड़ी शुरू हो जाती है। इंगलैंड
और अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी में फेमिनिस्ट मूवमेंट से इस तरह के नारेबाजी से
ही शुरू हुई थी। वह आंदोलन लैंगिंक समानता के साथ साथ समाज में बराबरी के हक की
लड़ाई के लिए शुरू हुई थी, जो बाद में राजनीति से होती हुए साहित्य, कला और
संस्कृति तक जा पहुंची थी। साहित्य में जब स्त्री विमर्श की जब शुरुआत हुई थी तो तो
एक के बाद एक लेखिकाओं की कृतियों की ओर आलोचकों का ध्यान जाने लगा था और उनका
मूल्यांकन एक नई दृष्टि के साथ किया जाने लगा था। बाद में स्त्री विमर्श का यह साहित्यिक
आंदोलन विश्व के कई देशों से होता हुआ भारत तक पहुंचा था । भारत
में हिंदी में जब इसकी शुरुआत हुई तो भी लैंगिक समानता का मुद्दा ही केंद्र में
रहा और सारे बहस मुहाबिसे परिधि पर ही बने रहे। हिंदी साहित्य में इसकी शुरुआत का
श्रेय कथाकार राजेन्द्र यादव को जाता है। राजेन्द्र यादव के पास उनकी अपनी पत्रिका
‘हंस’ थी । उन्होंने
उसमें स्त्री की देह मुक्ति से संबंधित कई लेख और कहानियां छापी और हिंदी साहित्य
में 1990 और
उसके बाद के वर्षों में एक समय तो ऐसा लगने लगा कि स्त्री विमर्श विषयक कहानियां
ही हिंदी कहानी के केंद्र में आ गई हों । यूरोपीय देशों से आयातित इस अवधारणा का
जब देसीकरण हुआ तो हमारे यहां कई ऐसी लेखिकाएं सामने आईं जिनकी रचनाओं में उनकी
नायिकाएं देह से मुक्ति के लिए छटपटाती नजर आने लगी । उपन्यास हो या कहानी वहां
देह मुक्ति का ऐसा नशा उनके पात्रों पर चढ़ा कि वो घर परिवार समाज सब से विद्रोह
करती और पुरानी सामाजिक परंपराओं को छिन्न भिन्न करती दिखने की कोशिश करने लगी।
साहित्यिक
लेखन तक तो यह सब ठीक था लेकिन जब तोड़फोड़ और देह से मुक्त होने की छटपटाहट कई
स्त्री लेखिकाओं ने अपनी जिंदगी में आत्मसात करने की कोशिश की तो लगा कि सामाजिक
ताना बाना ही चकनाचूर हो जाएगा । परिवार नाम की संस्था के अंदर की कथित गुलामी
उन्हें मंजूर नहीं थी और वो बोहेमियन जिंदगी जीने के सपने देखने लगी । नतीजा यह
हुआ कि हिंदी में स्त्री विमर्श के नाम पर मान्यताओं और परंपराओं पर प्रहार करने
की जिद ने लेखन को बदतमीज और अश्लील लेखन में तब्दील कर दिया। उस वक्त राजेन्द्र
यादव ने भी मौके का फायदा उठाया था और लगे हाथों अपना विवादित लेख ‘होना
सोना खूबसूरत दुश्मन के साथ’ लिख कर
उसे एक
साहित्यिक पत्रिका ‘वर्तमान
साहित्य’ में
प्रकाशित करवा लिया था। होना सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ की भाषा को लेकर उस
वक्त हिंदी में अच्छा खासा बवाल मचा । अमेरिका और इंगलैंड में भी स्त्री लेखन के
नाम पर सेक्स परोसा गया है लेकिन हिंदी में जिस तरह से वो कई बार भौंडे और
जुगुप्सा जनक रूप में छपा वो स्त्री विमर्श के नाम पर कलंक था। इसने भी स्त्री
विमर्श का बड़ा नुकसान किया। यह भी शोध का विषय है कि स्त्री विमर्श के नाम पर
स्त्रियों को सशक्त करने के नाम पर चलाई गई मुहिम ने स्त्रियों को कितना सशक्त
किया।
राजनीति
और साहित्य में स्त्रियों के साथ जिस तरह का व्यवहार होता है वह समाज मे स्त्रियों
के प्रति सोच को ही प्रतिबिंबित करता है। मिमि और नुसरत आज हमारे समाज में
स्त्रियों की बदलती आकांक्षा, उनके बदलते सपने और उस सपने और आकांक्षा को जीने की
ललक का प्रतिनिधित्व करती है। अगर वो दोनों भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर
में भी सामाजिक बंधनों की जकड़न में प्रवेश करतीं तो लोकतंत्र को फिर से परिभाषित
करने की जरूरत होती। आज जरूरत इस बात की है कि भारतीय समाज में स्त्रियों का
मूल्यांकन उनके काम से हो उनके कपड़ों से नहीं। स्त्रियों पर तो वैसे ही ज्यादा
जिम्मेदारी होती है जिसको समझने और सराहने की जरूरत है। एक कार्यक्रम में मशहर
प्रोड्यूसर एकता कपूर ने कहा था कि भारतीय घरों में एक महिला से अपेक्षा की जाती
है कि वो एक नई लड़की को, जिसे वो अच्छी तरह से जानती भी नहीं है, सबकुछ सौंप दे।
और उस लड़की से ये अपेक्षा की जाती है कि जिस घर में वो चंद घटे पहले आई है उस घर
को अपना बना ले। एकता कपूर सास और बहू के रिश्ते पर बात कर रही थी। एकता ने ठीक
कहा और ऐसा ही होता है कि घर की सास और नई नवेली बहू दोनों परिवार की अपेक्षा पर
बहुधा खरी उतरती हैं। ये भारतीय स्त्री है, उसको सम्मान दीजिए, मजाक मत बनाइए।
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