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Thursday, June 6, 2019

याद आती हैं दिल्ली की सूनी सड़कें


नीलिमा डालमिया आधार मूलत: अंग्रेजी की लेखिका है। इनकी अबतक तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। फादर डियरेस्ट, द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ आर के डालमिया, मर्चेन्ट्स ऑफ डेथ और दे सेक्रेट डायरी ऑफ कस्तूरबा। इनकी तीसरी किताब का हिंदी में अनुवाद हुआ। कस्तूरबा की जिंदगी पर लिखी ये पुस्तक काफी चर्चा में रही।

मेरी पैदाइश दिल्ली की है। मेरा घर सिकंदरा रोड पर था और मेरे पिता रामकृष्ण डालमिया के दस-पंद्रह मकान लुटियंस दिल्ली इलाके में थे। हलांकि तब इसको लुटियंस नहीं कहा जाता था। इन अलग-अलग मकानों में मेरी सौतेली मां और सौतेले भाई-बहन रहा करते थे। वो जमाना अब भी याद आता है कि हमलोग सिकंदरा रोड के अपने घऱ से पैदल टहलते हुए इंडिया गेट जाते थे। इंडिया गेट जाना, वहां खेलना, आइसक्रीम खाना और वहां से पैदल भागते हुए घर आ जाना। मेरा स्कूल कान्वेंट ऑफ जीजस एंड मेरी, बंगला साहब रोड पर था। उस समय सड़कें बहुत खाली हुआ करती थीं। बचपन में हमारे लिए मनोरंजन का साधन इंडिया गेट जाकर दोस्तों के साथ धमाल मचाना होता था। मेरे घर से पैदल जाने में 15-20 मिनट लगते थे। सिकंदरा रोड उस वक्त बहुत खूबसूरत हुआ करता था। कोई भीड़-भाड़, ट्रैफिक नहीं बस प्राकृतिक सौंदर्य। न तो ज्यादा बसें चलती थीं ना ही मेट्रो की लाइन थी। इंडिया गेट के अलावा हमलोग अपने घर के पास सप्रू हाउस में फिल्में देखने जाया करते थे। सप्रू हाउस में एक चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी होती थी जो हर रविवार बच्चों के लिए फिल्में दिखाने का इंतजाम करती थी। मेरे पिताजी हमलोगों को सिनेमा हॉल में जाकर फिल्में नहीं देखने देते थे। वो लगातार कहते ही नहीं इस बात पर जोर भी देते थे कि फिल्में बच्चों को करप्ट करती है, लिहाजा हमारे फिल्म देखने जाने पर मनाही थी। लेकिन किशोरावस्था में पाबंदी को तोड़ने में मजा आता है। हमें भी आनंद होता था जब हम चोरी छिपे जाकर फिल्में देखते थे। मुझे ठीक से याद नहीं पर 1964 या 1965 की बात है हमलोग स्कूल में थे। एक दिन पिताजी को बिना बताए हमलोग रीगल सिनेमा हॉल में फिल्म देखने चले गए। फिल्म का नाम था अप्रैल फूल जिसमें विश्वजीत और सायरा बानो थे। फिल्म देखकर घर लौटते इसके पहले ही मेरे पिता डालमिया साहब के पास ये जानकारी पहुंच गई थी कि हमलोग फिल्म देखने गए थे। वो मारे गुस्से के लाल-पीले हो रहे थे। जब हम बच्चे घर लौटे तो उन्होंने हमें जबरदस्त डांट लगाई और फिर अपनी नसीहत दुहराई कि फिल्में बच्चों को बरबाद कर देती हैं। हमने फिल्म के नाम अप्रैल फूल के मायने बताकर पिताजी को बरगलाने की कोशिश की लेकिन कामयाबी हाथ नहीं लगी। उन्होंने कहा फिल्म का चाहे जो भी नाम हो, वो बच्चों के लिए ठीक नहीं। इसके बाद उन्होंने एक महीने तक हमारे कहीं भी बाहर आने-जाने पर पाबंदी लगा दी। हम चूंकि सिकंदरा रोड में रहते थे तो चोरी छिपे फिल्म देखने के लिए कनॉट प्लेस इलाके के रीगल, रिवोली, ओडियन आदि सिनेमा हॉल में ही जाते थे, पुरानी दिल्ली इलाके में हम कभी गए नहीं, वहां के सिनेमा हॉल में पिक्चर देखने का सवाल ही नहीं था। तो महीने भर के लिए हमारा कनॉट प्लेस जाना बंद हो गया। शॉपिंग आदि के बहाने से भी नहीं जा पाए थे।     
1967 में मैंने सीनियर कैंब्रिज पास किया। आपको एक दिलचस्प बात बताती हूं। जब रिजल्ट आया तो मैं दिल्ली में नहीं थी। मेरी मां ने रिजल्ट आने के फौरन बाद मेरा एडमिशन घर के पास के लेडी इरविन कॉलेज में करवा दिया। जब मैं वापस लौटी तो मां ने मुझे ये जानकारी दी। मैंने मां से कहा कि मुझे तो मिरांडा हाउस में एडमिशन लेना था और वहां पढ़ना है। उन्होंने मेरी कोई दलील नहीं सुनी और साफ कर दिया कि घर के पास के कॉलेज में ही पढ़ना है। लेडी इरविन कॉलेज में मेरे घर के सामने ही है, सड़क पार करते ही। मेरा आर्ट्स का बैकग्राउंड था और मुझे लेडी इरविन क़लेज के होम साइंस में दाखिला दिलवा दिया गया। जहां तक मुझे याद पड़ता है कि मेरे पूरे क्लास में कोई भी आर्ट्स बैकग्राउंड की लड़की नहीं थी, सभी साइंस पढ़कर आई थीं। मैं समझती हूं कि मेरे अंदर उस वक्त कोई काबिलियत रही होगी तभी मैं वहां से अपनी पढ़ाई पूरी कर सकी। शादी के बाद मैं हनुमान रोड पर रहने आ गई। वहां 25 साल रही। जब हम हनुमान रोड पर शिफ्ट हुए तो ये बहुत अच्छा इलाका था। छोटी सी खूबसूरत सड़क एक तरफ हनुमान मंदिर दूसरी तरफ गुरूद्वारा। बहुत शांति थी। समय के साथ वो इलाका बहुत भीड़-भाड़ वाला हो गया। पार्किंग आदि की दिक्कत होने लगी, दम घुटने जैसी स्थिति हो गई। फिर हमलोगों ने वो इलाका छोड़ दिया और वहां से शांति निकेतन इलाके में रहने आ गए जो काफी हरा-भरा और खुला इलाका है।  
मेरी मां दिनेश नंदिनी डालमिया हिंदी की मशहूर लेखिका रही हैं। उन्होंने 40 से अधिक किताबें लिखीं और उनको भारत सरकार ने पद्मभूषण से नवाजा। वो हाथ से लिखती थीं लेकिन उनकी हैंडराइटिंग मेरे अलावा कोई पढ़ नहीं पाता था, लिहाजा मुझे उसको फिर से लिखना होता था। मैं उसको लिखती भी और एडिट भी कर देती। मैं मेरी एडिटिंग को स्वीकार कर लेती थीं लेकिन साथ ही ये कहती कि इंटलैक्टुअल बनो। धन दौलत सब ठीक है पर बौद्धिकता स्थायी होती है। मां की प्रेरणा और दोस्तों की हौसला आफजाई के बाद काफी देर से लिखना शुरू किया और 2002 में पहली किताब आई जो मेरे पिता रामकृष्ण डालमिया की जिंदगी पर है। उसकी सफलता के बाद लिखना नियमित हो सका।       
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

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