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Thursday, June 20, 2019

बदल गई है दिल्ली की संस्कृति


मीडिया के विभिन्न आयामों पर हिंदी में शोधपूर्ण लेखन कुमुद शर्मा की पहचान हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर और हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय की निदेशक कुमुद शर्मा ने स्त्री विमर्श को अपने तरीके से व्याख्यायित किया है। उनको भारतेन्दु हरिश्चद्र सम्मान, साहित्यश्री सम्मान समेत कई पुरस्कार मिल चुके हैं। दिल्ली की अपनी यादें मेरे साथ साझा की।

मैं 1981 में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से दिल्ली आई थी। दिल्ली के बारे में बात करने के पहले आपको एक दिलचस्प बात बताती हूं। प्रयागराज निवासी होने के बावजूद मैंने तय किया था कि मैं उस शहर के लड़के से शादी नहीं करूंगी। लेकिन जब आप प्रेम में पड़ते हैं तो सारी तय की गई चीजें धरी रह जाती हैं। मुझे भी प्रेम हुआ और प्रयाग के लड़के से ही हुआ, शादी भी उसी से कर ली। शादी करके हम दोनों दिल्ली आ गए। दिल्ली में मॉडल टाउन इलाके में रहने लगे। मैं 1981 के मई या जून में दिल्ली आई थी और नवंबर 1981 में मुझे जीसस एंड मेरी कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी मिल गई। मुझे मॉडल टाउन से बापू धाम हर रोज बस से आना पड़ता था। प्रयागराज में बस कल्चर था नहीं तो मेरे लिए ये नई बात थी। मेरे पति मुझे सिखाते कि कैसे रॉड पकड़कर बस में चढ़ो, कैसे उतरो आदि। कई बार तो वो बस स्टॉप तक इसलिए आते थे कि मुझे बस में चढ़ा दें। इतनी लंबी दूरी तय करना हर रोज संभव नहीं हो पा रहा था। 15 दिनों में ही मैंने वो नौकरी छोड़ दी थी। उस समय लेक्चरार को 1300 रु प्रतिमाह वेतन मिलता था। मुझ पीएचडी के लिए 900 रु प्रतिमाह स्कॉलरशिप मिलती थी। मैंने तय किया कि पीएचडी करूंगी। उस दौर में हमारे पास पैसे कम होते थे, मैंने अखबारों और पत्रिकाओँ में लिखना शुरू कर दिया था ताकि कुछ अतिरित आय हो सके। धीरे धीरे बस में चलने की आदत सी बन गई तो दिल्ली भाने लगी। तब बसों का किराया तीस पैसे से लेकर पचास पैसे तक हुआ करता था। मेरे पति मुझे दिल्ली दर्शन करवाने के लिए मुद्रिका बस पर बैठाकर निकलते थे। उस वक्त रिंग रोड पर मुद्रिका बस सेवा चला करती थी जो मॉडल टाउन से चलकर पूरी दिल्ली का चक्कर लगाकर वापस मॉडल टाउन तक आती थी। मुद्रिका में बैठे-बैठे हम दिल्ली दर्शन किया करते थे। मॉडल टाउन में उस दौर में काफी साहित्यकार और लेखक रहा करते थे। कवि अजित कुमार का घर हमारे लिए हमेशा खुला रहता था। कथाकार मन्नू भंडारी तब शक्तिनगर इलाके में रहती थीं और हमलोग उनके घऱ पहुंच जाते थे। पर हमारा अड्डा मंडी हाउस में जमता था। वहीं पास में त्रिवेणी कला संगम के कैंपस में बहुत सारे साहित्यकारों से मिलना हो जाता था। सप्ताह में एक दिन बंगाली मार्केट के नाथू स्वीट्स में बैठकी जमा करती थी, बैठकी का मकसद वहां का स्वादिष्ट खाना होता था। इसके अलावा वहां से दूरदर्शन कार्यालय पास में था। मैं सोचा करती थी कि दूरदर्शन में न्यूज रीडर बनूंगी। एक दिन हम लोग त्रिवेणी में बैठे गपबाजी कर रहे थे तो मैंने दूरदर्शन में काम करने की अपनी इच्छा जाहिर की। हमारे मित्रों ने कहा कि वहां मत जाना, वहां का माहौल खराब है। लेकिन मैं एक दिन वहां जा पहुंची । अखबारों और पत्रिकाओं में लिखे अपने लेखों की कटिंग आदि दिखाया। वहां हमें काम मिला, पहले एक कार्यक्रम में फिर पत्रिका कार्यक्रम में। कहीं किसी तरह की दिक्कत नहीं आई।
1983 में मैंने फिर से दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी कॉलेज ज्वाइन कर लिया था। इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है। मैं जब इंटरव्यू देने पंजाबी बाग पहुंची जहां ये कॉलेज था। किसी से कॉलेज का पता पूछा तो उसने बता दिया कि पास ही में है। वो पास ही में करीब तीन किलोमीटर दूर था। जब कॉलेज पहुंची तो इंटरव्यू का वक्त निकल गया था। किसी तरह से इंटरव्यू हुआ। एक साक्षात्कारकर्ता ने पूछा कि जब आप इंटरव्यू में ही लेट आ रही हैं तो नौकरी में समय पर कैसे आ पाएंगीं। मैंने गलत बस स्टॉप पर उतरने की बात बताकर अपनी जान बचाई।
आज अड़तीस साल बाद जब दिल्ली के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि दिल्ली ने हमसे संघर्ष बहुत करवाया लेकिन मेरे व्यक्तित्व को बहुत आयाम भी दिए। दिल्ली एक ऐसी जगह है जो कहीं से भी आए लोगों को बहुत कुछ देती है, हां बहुत मेहनत करवाने के बाद देती है। आज दिल्ली बहुत बदल गई है। यहां दिखावा बहुत बढ़ गया है, लोगों के पास अपने पड़ोसी या दूसरों के लिए वक्त ही नहीं है। पहले भी लोग व्यस्त होते थे लेकिन आज की तरह की संवेदनहीन व्यस्तता नहीं थी। करीब चार दशक तक दिल्ली मे रहने के बाद यह कह सकती हूं कि दिल्ली की संस्कृति बहुत बदल गई है।
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

दिल्ली ही नहीं हर शहर बदल रहा है इसी तरह। ये कहें शहर नहीं आदमी बदल रहा है। प्राथमिकताओं में वो चीजेंं बढ़ गयी हैं जो जरूरी नहीं हैं जीने के लिये।

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

रोचक संस्मरण।

manoj kumar rai said...

कुछ समझ में नहीं आया।