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Sunday, November 15, 2015

संस्कृति पर हो बहस

आज हमारे बौद्धिक जगत में संस्कृति को लेकर काफी बातें हो रही हैं । भारतीय संस्कृति बनाम आयातित संस्कृति को लेकर देश में लंबे समय से बहस चल रही है लेकिन केंद्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद और पूरे देश में वामपंथी पार्टियों के लगभग हाशिए पर जाने के बाद यह बहस और तेज हो गई है । वामपंथियों ने हमेशा लोकप्रिय संस्कृति को दूर रखने की कोशिश की । उसका प्रतिबिंब साहित्य में भी देखने को मिला । पॉपुलर कल्चर को इस तरह से पेश और स्थापित किया गया कि वो घटिया ही हो सकते हैं । हमें पॉपुलर शब्द पर विचार करना चाहिए । जब भी संस्कृति के संदर्भ में पॉपुलर का इस्तेमाल होता है तो उसमें नकारात्मकता दिखाई देती है । जैसे जब हम कहते हैं कि ये तो पॉपुलर कल्चर का हिस्सा है या फलां फिल्म तो पॉपुलर सिनेमा है तो यह धव्नित होता है कि वो स्तरहीन है । इसकी वजहों की पड़ताल करनी होनी चाहिए कि किस तरह से शब्दों को नकारात्मकता से जोड़ दिया गया । अब जरा इस शब्द को इस तरह से देखिए । जब पॉपुलर शब्द लीडर के साथ जुड़ता है तो वो अर्थ बदल देता है । यहां उससे हल्कापन या नकारात्मकता का बोध नहीं होता है । अब इसको ही अगर दूसरे तरह से देखें और पॉपुलर के हिंदी अनुवाद को लेकर चलें तो यह बेहतर नजर आता है । हिंदी में लोक संस्कृति, लोक पर्व, लोकगीत आदि को श्रेष्ठ नजर से देखा जाता है । हमारे यहां तो लोक संस्कृति पश्चिम की लोक संस्कृतियों से बिल्कुल ही अलग है । लोक और लोक से जुड़ी हर चीज हमारे यहां समाज में जीवंतता के साथ हर शख्स की जिंदगी में मौजूद हैं । हमारी लोक संस्कृति बहुधा हमारे लोक साहित्य को भी प्रभावित करती है । पियूष दइया की किताब लोक में इस बात का विस्तार से उल्लेख मिलता है । जहां तक मुझे याद आता है कि उक्त किताब के एक लेख में इस बात का विस्तार से वर्णन है कि आंध्र प्रदेश में जो तेलुगू रामायण है उसमें वर्णित लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के चरित्र को लोकगीतों में बहुत प्रतिषठा हासिल हुई । कई बार तो यह माना जाता है कि आंध्र प्रदेश के लोकगीतों में जितना सम्मान उर्मिला को मिला है उतना रामचरित मानस की सीता को हिंदी पट्टी में नहीं मिला ।
अब हम अगर लोक संस्कृति की बात करें तो इसका निर्माण भाषा से भी होता है । अगर आप अवधी या वृजभाषा की लोक संस्कृति को देखें तो यह साफ तौर पर दिखाई देता है । आज असहिष्णुता को लेकर बहुत बातें हो रही हैं लेकिन अगर आप देखें तो हमारी लोक संस्कृतियों में हर समुदाय आपको उदार नजर आएगा । हिंदू और मुसलमानों के बीच का प्रेम और सद्भाव जो लोक संस्कृतियों में नजर आता है वो कालांतर के साहित्य में गायब होता चला गया ।  दरअसल अगर हम गंभीरता से विचार करें तो जब से लोक संस्कृति के ठेकेदार सामने आए हैं तब से हमारी संस्कृति को लेकर कई लकीरें दिखाई देने लगी हैं । लोक संस्कृति का दावेदार कोई पार्टी नहीं हो सकती है और ना ही इसको हिंदू धर्म या इस्लाम से जोड़ा जा सकता है । कई लोगों का तो मानना है कि जबतक भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं था तब तक हमारा समाज ज्यादा धर्मनिरपेक्ष और उदार था । उन्नीस सौ छिहत्तर में जब भारत के संविधान में सॉवरिन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक को संशोधित कर सॉवरिन सोशलिस्ट सेक्युलर डेमोक्रेटिक रिपब्लिक किया गया तब से लोक और संस्कृति दोनों पर असर पड़ा । इस बात पर अब भी बहस होनी चाहिए कि क्या संविधान में धर्मनिरपेक्ष लिखकर हमने अपने समाज को धर्मनिरपेक्ष बना दिया ।


1 comment:

वंदना शुक्ला said...

शब्दों के अर्थ बदल जाना सामाजिक मान्यताओं का नहीं बल्कि सामयिक फासलों का बढ़ जाना है |संदर्भ चाहे हिन्दी शब्द का हो या अंगरेजी |जहाँ तक लोक संस्कृति की बात है लोक संस्कृति का इतिहास सहिष्णुता का सर्वाधिक दावेदार काल रहा है |लेकिन जब से लोक संस्कृति के विराट पटल पर राजनीतिक स्वार्थों व् हस्तक्षेप का प्रभाव पडा है यह धूमिल हुई है |लोक संस्कृति का प्रसार (आधुनिक परिप्रेक्ष्य के अंतर्गत ) तात्कालिक सिनेमा में उनका ‘’नवीनता’’ के साथ प्रवेश भर नहीं है (उल्लेखनीय है कि फिल्मों में विशेषतः ‘’संगम’’ और बॉबी’’ के काल से लोक धुनों व् शब्दों का फ़िल्मी गानों में कायांतर करना )ना ही इनका लोक कलाओं को प्रमोट करने से कोई वास्ता है | बल्कि लोक नृत्यों /संस्कृति का जो फिल्मीकर्ण हो रहा है उससे लोक कलाओं की छवि धूमिल ही हुई है |रास्ते और भी कई हो सकते हैं (यदि सरकार की मंशा हो तो )जैसे पाठ्यक्रमों में हमारी सांस्कृतिक विरासत जैसे पाठों को शामिल किया जाना ,या लोक कलाकारों की समय २ पर प्रदर्शनी या गीत नृत्य आदि के आयोजन /लोक नाटकों का मंचन आदि |लोक कलाओं को बढ़ावा देने वालों में हबीब तनवीर, तीजन बाई, बुन्दू खान ,विजयदान देथा जी ,भिखारी दास आदि का विशेष योगदान रहा है |अलावा इसके शास्त्रीय गायन /नृत्य/रंगमंच के कलाकार जो सिर्फ कलाकार के नाम से जाने जाते हैं हिन्दू या मुस्लिम के नाम से नहीं चाहे वो विस्मिल्ला खान हों,बेगम अख्तर, हों,परवीन सुल्ताना या मुहम्मद रफ़ी हों लेकिन आज माहौल ये है की गुलाम अली जैसे गायकों पर मजहब के नाम पर रोक लगा दी जाती है |क्या लोक व् ललित कलाओं के प्रति ये द्रष्टि सिर्फ मजहबी है या इसके पीछे अन्य कारन भी हैं ?जो लोग सहिष्णुता का मुद्दा उठा रहे हैं ,वही सबसे अधिक असहिष्णुता को बढ़ावा दे रहे हैं |