केंद्रीय फिल्म
प्रमाणन बोर्ड जिसे हम सब लोग सेंसर बोर्ड के नाम से जानते हैं पिछले कई सालों से विवादों
में है । दो हजार चौदह में सेंसर बोर्ड के सीईओ पर सत्तर हजार की घूसखोरी का आरोप लगा
था और सीबीआई ने उनको गिरफ्तार भी किया था । तब यह बात सामने आई थी कि सेंसर बोर्ड
में भ्रष्टाचार की जड़ें बेहद गहरी हैं और ये भी कहा गया था कि फिल्मों के दृश्यों
को पास करवाने के लिए सेंसर बोर्ड के सीईओ को खुश करना पड़ता था । सीईओ साहब की गिरफ्तारी
के बाद कई सुपरस्टार्स और निर्देशकों ने इस बात के पर्याप्त संकेत दिए थे कि उनको अपनी
फिल्मों में गानों को पास करवाने के लिए घूस देनी पड़ती है । दो हजार चौदह में केंद्र
में सत्ता बदली तो सेंसर बोर्ड का भी पुनर्गठन हुआ और पहलाज निहलानी को उसका अध्यक्ष
बनाया गया । पहलाज निहलानी के पद संभालने के बाद सेंसर बोर्ड को संस्कारी बोर्ड बनाने
की कवायद शुरू कप दी । सबसे बड़ा विवाद हुआ जेम्स बांड की फिल्म में कांट-छांट के आदेश
के बाद । बांड की ताजा फिल्म स्पेक्टअ फिल्म में चुंबन के दृश्य पर सेंसर बोर्ड की
कैंची चली थी । तब पहलाज निहलानी ने तर्क दिया था कि भारतीय समाज के लिए लंबे किसिंग
सीन उचित नहीं हैं और किसिंग सीन में पटास फीसदी कटौती कर दी गई थी । बांड अपनी फिल्मों
में गैजेट, गन और महिलाओं के साथ अपने संबंधों का मास्टर माना जाता है लेकिन भारत में
हालिया रिलीज फिल्म में सेंसर बोर्ड की बदौलत बांड के दो ही रूप दर्शकों को देखने को
मिल सके । बांड की फिल्म में कट लगाने के बाद पूरी दुनिया में सेंसर बोर्ड और उसके
अध्यक्ष की फजीहत हुई थी । उस वक्त ये आरोप भी लगा था कि निहलानी प्रधानमंत्री मोदी
को खुश करने के लिए इस तरह के कदम उठा रहे हैं । उनके कदम को प्रधानमंत्री से इस वजह
से जोड़ा गया था कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी पर एक शॉर्ट फिल्म डायरेक्ट की थी । बांड
की फिल्म में कट लगाने का विरोध सेंसर बोर्ड के एक और सदस्य अशोक पंडित ने किया था
लेकिन उनकी एक नहीं चली थी । उसके बाद से पहलाज निहलानी के हौसले बुलंद हो गए और वो
फिल्मों में नैकिकता के नए झंडाबरदार के तौर पर उभर कर सामने आए ।
अब पहलाज निहलानी
फिल्मों में हिंसा और गाली गलौच को भी कम करवाने पर तुले हुए लगते हैं । अभी हाल ही
में मशहूर फिल्मकार प्रकाश झा ने सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पर आरोप लगाया है कि वो बेवजह
उनकी फिल्म से साला शब्द हटवाना चाहते हैं । प्रकाश झा की फिल्म जय गंगाजल में कई सीन
में साला शब्द का इस्तेमाल किया गया है । सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष का तर्क है साला गाली
है और इतनी बार इस गाली को फिल्म में बोलने-दिखाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है जबकि
प्रकाश झा का तर्क है कि साला अब आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होता है और वो गाली
नहीं रह गया है । संस्कारी सेंसर बोर्ड के मुताबिक प्रकाश झा की फिल्म एडल्ट फिल्म
की श्रेणी में आती है और बोर्ड उसको ए सर्टिफिकेट देने को तैयार है । उधर प्रकाश झा
के मुताबिक वो यू यानि अनरेस्ट्रिक्टेड पब्लिक एक्जीबिशन या फिर यू ए की श्रेणी की
फिल्म है लिहाजा उसको इस श्रेणी के तहत ही सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए । प्रकाश झा
का आरोप है कि पहलाज निहलानी उनकी फिल्म से जो सीन और शब्द हटवाना चाहते हैं उससे फिल्म
की कहानी खत्म हो जाएगी या फिर बेहद कमजोर हो जाएगी । अब इस बात का फैसला अदालत से
होने के संकेत मिल रहे हैं । हलांकि फिल्मों में गालियां अब आम बात है ओमकारा से लेकर
हाल की फिल्मों तक में गालियां मिल जाती हैं ।
हाल के दिनों में
सेंसर बोर्ड के कारनामों को लेकर उसके खुद के सदस्य भी खफा है । उनका आरोप है कि अध्यक्ष
उनकी नहीं सुनते हैं और मनमानी करते हैं । सेंसर बोर्ड में जिस तरह से एडल्ट और यू
ए फिल्म को श्रेणीबद्ध करने की गाइडलाइंस है उसको लेकर भी बेहद कंफ्यूजन है । इन दोनों
श्रेणियों के बीच बंटवारे को लेकर खासी मनमानी करने की गुंजाइश होती है जिसका लाभ सेंसर
बोर्ड उठाता रहा है । अब इस बात की मांग उठने लगी है कि फिल्मों की ग्रेडिंग की जो
प्रक्रिया है उसमें बदलाव की जरूरत है । इलस बदलाव की आवश्यकता को सूचना और प्रसारण
मंत्रालय ने भी समझा मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन
कर दिया ।श्याम बेनेगल की अध्यक्षता वाली कमेटी के गठन के बाद बॉलीवुड के फिल्मकारों
को उम्मीद की किरण दिखाई देने लगी है । फिल्मकारों को अब इस बात की उम्मीद है कि उनकी
सृजनशीलता पर कैंची नहीं चलेगी । सूचना प्रसारण मंत्रालय की गठित इस कमेटी में इक्यासी
साल के बेनेगल हैं तो अपेक्षाकृत कम उम्र के राकेश ओमप्रकाश मेहरा और विज्ञापन की दुनिया
की बड़ी हस्तियों में से एक पीयूष पांडे को भी रखा गया है । ये कमेटी सरकार को सेंसर
बोर्ड के कामकाज के अलावा फिल्मों को दिए जानेवाले सर्टिफिकेट की प्रक्रिया की समीक्षा
करेगी और जहां आवश्यक होगा वहां सरकार को इसमें बदलाव करने की सिफारिश करेगी ।
फिल्मों को सर्टिफिकेट
देने का हमारे देश में लंबा इतिहास रहा है । हमारा संविधान देश के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की
आजादी देता है लेकिन वही संविधान उस आजादी को तब रोक देता है जब उससे कोई भी दूसरा
शख्स प्रभावित होता है । इसी अभिव्यक्ति ती आजादी की वजह से मीडिया को भी स्वतंत्रता
मिली हुई है । फिल्मों को भी एक मीडियम माना गया है और वहां भी फिल्मकारों को रचनात्मक
आजादी है । लेकिन फिल्मों के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के मद्देनजर यह माना गया कि
उसपर नजर रखने की जरूरत है ताकि कोई भी फिल्मकार अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में कुछ
ऐसा ना पेश कर दे जो समाज के कुछ वर्ग के लोगों के हित में ना हो । इस लिहाज से सिनेमेटोग्राफी
एक्ट 1952 के तहत सेंसर बोर्ड का गठन किया । 1983 में इसका नाम बदलकर केंद्रीय फिल्म
प्रमाणन बोर्ड कर दिया गया । तब भी यह बहस चली थी कि सेंसर बोर्ड क्यों । उसके बाद
इसके नाम से सेंसर शब्द हटा दिया गया था । उसके बाद भी इस एक्ट के तहत समय समय पर सरकार
गाइडलाइंस जारी करती रही है । जैसे पहले फिल्मों की दो ही कैटेगरी होती थी ए और यू
। कालांतर में दो और कैटेगरी जोड़ी गई जिसका नाम रखा गया यू ए और एस । यू ए के अंतर्गत
प्रमाणित फिल्मों को देखने के लिए बारह साल से कम उम्र के बच्चों को अपने अभिभावक की
सहमति और साथ आवश्यक किया गया । एस कैटेगरी में स्पेशलाइज्ड दर्शकों के लिए फिल्में
प्रमाणित की जाती रही हैं । फिल्म प्रमाणन के संबंध में सरकार ने आखिरी गाइडलाइंस
6 दिसबंर 1991 को जारी की थी जिसके आधार पर ही अबतक काम चल रहा है । इक्यानवे के बाद
से हमारा समाज काफी बदल गया । आर्थिक सुधारों की बयार और हाल के दिनों में इंटरनेट
के फैलाव ने हमारे समाज में भी बहुत खुलापन ला दिया है । बदले माहौल में जब हम करीब
तीन दशक पुरानी गाइडलाइंस के आधार पर सर्टिफिकेट देंगे तो दिक्कतें तो पेश आएंगी ।
एक जमाना था जब फिल्मों में नायक नायिका के मिलन के दो हिलते हुए फूलों के माध्यम से
दिखाया जाता था । छिपकली के कीड़े को खा जाने के दृश्य से रेप को प्रतिबंबित किया जाता
था । समय बदला और फिल्मों के सीन भी बदलते चले गए । राजकपूर की फिल्म संगम में जब वैजयंतीमाला
ने जब पहली बार बिकिनी पहनी थी तब भी जमकर हंगामा और विरोध आदि हुआ था लेकिन अब वो
फिल्मों के लिए सामान्य बात है । फिल्मों में जब खुलेपन की बयार बहने लगी तो एक बार
फिर सेंसर बोर्ड का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था और ये दलील दी गई थी कि फिल्मों
के प्रमाणन को खत्म कर दिया जाना चाहिए । लेकिन उन्नीस सौ नवासी में सुप्रीम कोर्ट
ने अपने एक अहम फैसले में साफ कर दिया था कि भारत जैसे समाज में फिल्मों के प्रमाणन
की जरूरत है । कोर्ट ने कहा था कि ध्वनि और दृश्यों के माध्यम से कही गई बातें दर्शकों
के मन पर गहरा असर छोड़ती है । सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद उन्नीस सौ इक्यानवे
में एक गाइडलाइन जारी की गई जिसमें भी इस बात पर जोर दिया गया था कि फिल्मों में सामाजिक
मूल्यों के स्तर को बरकरार रखा जाए । उस गाइडलाइंस में यह भी कहा गया था कि फिल्मों
में हिंसा को गौरवान्वित करनेवाले दृश्यों को मंजूरी ना दी जाए । इस गाइडलाइंस की बिनाह
पर ही पहलाज निहलानी प्रमाणन बोर्ड को संस्कारी बोर्ड बना चुके हैं । अब श्याम बेनेगल
की अध्यक्षता वाली कमेटी से ये अपेक्षा है कि वो इसको संस्कारी से संवेधनशील बोर्ज
बनाने की पहल करें ।
1 comment:
रविश कुमार ने संस्कारी बांड नाम से एक आडियो जारी किया था। लेकिन क्या हमें सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दूसरों की भावनाओं का ख्याल नहीं रखना चाहिए? हाँलाकि जब इंटरनेट पर पोर्न फिल्में आसानी से उपलब्ध है तो फिर फिल्मों पर ही रोक क्यों? अगर सुप्रीम कोर्ट को फिल्म प्रमाणन जायज़ लगता है तो फिर सोशल मीडिया के लिए बने धारा 66(A)को क्यों खत्म किया?
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