पिछले दिनों चीन
के दो महत्वपूर्ण नेताओं से संबंधित दो खबरें सुर्खियां बनी । पहली खबर थी चाउ एनलाई
से संबंधित और दूसरी खबर है चीन के राष्ट्रपति शी जिंगपिगं के बारे में । लेकिन इन
दोनों खबरों का संबंध आनेवाली किताबों से है जो हांगकांग से प्रताशित होनी है । पहली
किताब जो नए साल में प्रकाशित होनी थी उसके केंद्र में चीन के क्रांतिकारीनेता चाउ
एनलाई हैं । हांगकांग में रहनेवाली पत्रकार और लेखिका सुई विंग-मिंग ने पूर्व में प्रकाशित
चाउ के पत्रों और उपलब्ध साहित्य के आधार पर किताब लिखी है द सेक्रेट इमोशनल लाइफ ऑफ
चाउ एनलाइ । इस किताब में लेखिका ने अनुमान लगाया है कि अपने लंबे वैवाहिक जीवन के
बावजूद चाउ एनलाइ समलैंगिक थे और उनका अपने स्कूल के दो साल जूनियर लड़के से संबंध
था । सुई ने उन्नीस सौ अठानवे में कम्यिनुस्ट पार्टी द्वारा प्रकाशित किताब का पुनर्पाठ
करते हुए ये निष्कर्ष निकाला है । इस किताब में चाउ के 1912 से लेकर 1924 तक पत्रों,
कविताओं, डायरियों आदि को आदार बनाया गया है । लेखिका को आशंका है कि ये किताब चीन
में प्रतिबंधित कर दी जाएगी । दूसरी किताब भी हांगकांग के प्रकाशक के यहां से प्रकाशित
होनी है जिसके केंद्र में चीन के मौजूदा शासक शी जिनपिंग के पूर्व के प्रेम संबंध हैं
। इस किताब की योजना की चर्चा के चंद दिनों बाद ही हांगकांग के प्रकाशन गृह के कई कर्मचारी
लापता हो गए है । आरोप लग रहे हैं कि चीन की सीक्रेट सर्विस के लोगों ने इन लोगों को
अगवा कर लिया है । इसमें से एक ब्रिटेन का नागरिक भी है । ब्रिटिश सरकार ने इस मसले
को गंभीरता से लिया है और पिछले रविवार को हांगकांग में लोगों ने जुलूस निकालकर विरोध
प्रदर्शन भी किया ।
भारत में माओ और
चाउ एनलाइ को अपना आदर्श मानने वाले लोगों ने इन दोनों खबरों पर चुप्पी साध रखी है
। अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सुबह शाम छाती कूटनेवाले भारत के हमारे मार्क्सवादी चैंपियन
इस पूरे मसले पर खामोश हैं । दरअसल चीन की विचारधारा को लेकर भले ही हमारे देश के मार्क्सवादी
उत्साहित रहते हों लेकिन वहां इस तरह की घटनाएं आम हैं । चीन में अभिव्यक्ति की आजादी
कितनी है यह बात किसी से छिपी नहीं है । चीन का शासक वर्ग इस बात को लेकर बेहद सतर्क
रहता है कि उसके क्रांतिकारी नेताओं की व्यक्तिगत जिंदगी की खबरें जनता के बीच ना आ
पाएं । उसपर सार्वजनिक रूप से चर्चा ना हो सके । इसको रोकने के लिए वो किसी भी हद तक
जाते हैं जिसकी परिणिति बहुधा इस तरह के वाकयों में होती है । भारत में अगर किसी किताब
पर किसी को आपत्ति हो तो उसको फौरन अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर संविधान को खतरे
में बताने वाले लोग चीन के मसलसे पर खामोश रहते हैं । यहां आप गांधी जी समेत स्वतंत्रता
संग्राम के सभी नेताओं के बारे में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उलजलूल लिख सकते
हैं । उसपर आपत्ति उठाने पर आपको दकियानूसी, तानाशाह, फासीवादी आदि आदि करार दिया जा
सकता है लेकिन चीन और रूस में लेखकों के कत्ल होने पर भी ये खामोश रहते हैं । कम्युनिस्ट
चीन में किताबों की पाबंदी का लंबा इतिहास रहा है और उतना ही लंबा इतिहास है हमारे
वामपंथी बुद्धिजीवियों का भी जो कि अभिव्यक्ति की आजादी को ढाल बनाकर अपनी राजनीति
करते हैं । रूस और चीन में इस तरह की घटनाओं को लेकर ना तो प्रगतिशील लेखक संघ, ना
ही जनवादी लेखक संघ और ना ही जन संस्कृति मंच के कर्ताधर्ताओं के कानों पर जूं रेंगता
है । इस तरह के चुनिंदा विरोध की वजह से ही आज वामपंथी बुद्धिजीवी अपने अस्तित्व को
बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं । वक्त आ गया है कि वो खुद को बदलें वर्ना जनता
तो बदल ही रही है ।
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