हिंदी के लेखकों
को पद्म पुरस्कार तो कम मिलता है लेकिन यहां थोक के भाव से छद्म पुरस्कार बांटे जाते
हैं । हिंदी में पुरस्कारों का लंबा इतिहास है और उतना ही लंबा अतीत उन पुरस्कारों
में गड़बड़ियों का भी है । हिंदी में सरकारी पुरस्कारों में पसंदीदा लेखकों से लेकर
अपने कैंप के लेखकों को पुरस्कार तो दिया ही जाता है लेकिन हिंदी में प्राइवेट संस्थाओं
द्वारा दिए जानेवाले पुरस्कारों पर भी यदाकदा अंगुली उठती रही है । हिंदी साहित्य में
पुरस्कारों का खेल इतना बढ़ा कि अब तो कई लोग व्यक्तिगत स्तर पर भी पुरस्कार बांटने
लगे हैं । इन व्यक्तिगत पुरस्कारों में चयन समिति आदि की औपचारिकता का निर्वाह तो किया
जाता है लेकिन ना तो उसमें पारदर्शिता होती है और ना ही चयन समिति के सदस्यों की अनुशंसाएं
सामने आ पाती हैं । व्यक्तिगत स्तर पर दिए जानेवाले पुरस्कारों को लेकर बहुधा ये आजादी
रहती है कि जिस वर्ष मन हुआ दिया जब मन नहीं हुआ तो नहीं दिया यानि कि साहित्य की आड़
में प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह इसका संचालन किया जाता है । पिछले वर्ष कथा यूके
का अंतराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान नहीं दिया गया । कथा की बजाए गजल को सम्मानित
किया । इस बात की कोई सूचना हिंदी जगत को नहीं है कि कथा पर दिया जाने वाले ये मशहूर
सम्मान बंद हो गया या जारी रहेगा । हिंदी साहित्य जगत में इस पुरस्कार को लेकर खासी
उत्सुकता रहती थी । इसी तरह से दो तीन साल तक सीता पुरस्कार दिया गया और फिर वो बंद
होगा । सीता पुरस्कार के बंद होने के पीछे हिंदी साहित्य की राजनीति थी । उसको देनेवाले
लोग चाहते थे कि पुरस्कार की साख बेहतर रहे लेकिन उसके निर्णयकों ने साख बढ़ाने की
कोई कोशिश नहीं की थी ।
दरअसल
ज्यादातर व्यक्तिगत पुरस्कार देनेवालों की मंशा खुद को साहित्य की चर्चा के केंद्र
में रखने की भी होने लगी है । हिंदी के बहुत सारे पुरस्कार पिपासु लेखकों को किसी ना
किसी तरह से कोई भी पुरस्कार हासिल करने की लालसा इस तरह के पुरस्कारों के लिए प्राणवायु
का काम करती है । इन व्यक्तिगत पुरस्कारों में पांच हजार से लेकर ग्यारह हजार तक की
राशि दी जाती है । कई बार तो सिर्फ शॉल और श्रीफल से काम चलाना पड़ता है । मध्यप्रदेश
से दिया जानेवाले एक पुरस्कार तो बजाप्ता इसके लिए निविदा आमंत्रित करता है और लेखकों
को एक निश्चित राशि के बैंक ड्राफ्ट के साथ आवेदन करने को कहता है । हद तो तब हो जाती
है कि इन पुरस्कारों को हासिल करने के बाद लेखक उसको अपने परिचय में प्रतिष्ठापूर्वक
शामिल करता है । इन दिनों हिंदी में युवा लेखकों को दिए जानेवाले पुरस्कारों की संख्या
काफी है । इन युवा पुरस्कारों की अगर पड़ताल की जाए तो यह बात सामने आती है कि एक तो
युवा की कोई तय उम्र सीमा नहीं होती है । पचास वर्ष की आयु को छू रहे लेखकों और लेखिकाओं
को भी इससे पुरस्कृत कर उपकृत किया जाता है । इस बात पर हिंदी जगत में गंभीरता से विमर्श
होना चाहिए कि किस पुरस्कार के पीछे मंशा क्या है । बातचीत में एक बार हिंदी के वरिष्ठ
कहानीकार हृषिकेश सुलभ ने कहा था कि कई बार पुरस्कार देनेवालों की मंशा पुरस्कृत लेखक
के बहाने से खुद को या फिर पुरस्कार को क्रेडिबिलिटी हासिल करना होता है । ह्रषीकेश
सुलभ की ये बात सोलह आने सच लगती है । यहां वैसे पुरस्कार का नाम गिनाकर बेवजह विवाद
खड़ा करना मकसद नहीं है लेकिन साहित्य से जुड़े लोग इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं
कि कौन सा पुरस्कार प्रदाता किस मंशा से पुरस्कार दे रहा है । क्या हम हिंदी के लोग
इन छद्म पुरस्कारों को लेकर कभी विरोध कर पाएंगे ।
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