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Tuesday, January 26, 2016

साहित्य पर भारी सितारों की चमक

जयपुर में पांच दिनों तक चलनेवाला सालाना साहित्यक जलसा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल खत्म हो गया । साल दर साल इस सालाना जलसे में लेखक और साहित्यक विमर्श नेपथ्य में जा रहे हैं और सेलिब्रिटी की चमक ज्यादा महसूस की जा रही है । जब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल शुरू हुआ था तब ये माना गया था कि इसका उद्देश्य साहित्य और समाज के सवालों से टकराने का है । वरिष्ठ लेखक आपस में साहित्य की समकालीन समस्याओं से लेकर नई लेखकीय प्रवृत्तियों पर चर्चा करेंगे जिससे उस भाषा के पाठक संस्कारित होंगे । परंतु हाल के दिनों में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में सितारों और गंभीर लेखकों के बीच का फर्क मिट सा गया है । जिस तरह से प्रकाशक फिल्मी सितारों, राजनेताओं, सेलिब्रिटी पत्रकारों की किताबें छापने में लगे हैं उसी तरह अब लिटरेचर फेस्टिवल के कर्ताधर्ता भी फिल्मी सितारों से लेकर पूर्व और वर्तमान राजनेताओं की भागीदारी सुनिश्चित करते हैं । लिटरेचर फेस्टिवल में गुलजार साहब स्थायी भाव की तरह मौजूद रहते हैं भले ही उन साहित्यक मेलों में केदारनाथ सिंह, लीलाधर जगूड़ी या विनोद कुमार शुक्ल हों या ना हों । गुलजार को बुलाने के पीछे की मंशा उनकी बेहतरीन कविताएं सुनने की अवश्य रहती होंगी लेकिन भीड़ जुटाना और पाठकों को आकर्षित करना भी एक मकसद रहता है । ऐसा नहीं है कि सिर्फ जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में ही ऐसा होता है पूरी दुनिया में लिटरेचर फेस्टिवल में सितारों की चमक साहित्यक विमर्श पर भारी पड़ते हैं । बेस्टसेलर उपन्यास चॉकलेट की लेखक जॉन हैरिस ने भी एक बार कहा था कि कई लिटरेचर फेस्टिवल इन सितारों के चक्कर में लेखकों पर होनेवाले खर्चे में भारी कटौती करते हैं । आयोजकों को लगता है कि सितारों के आने से ही उनको हेडलाइन मिलेगी । उनका मानना था कि इससे आयोजकों को फायदा होता है पर साहित्य नेपथ्य में चला जाता है । बाजार के विषेषज्ञों का मानना है कि इस तरह के साहित्यक आयोजनों तभी सफल हो सकते हैं जब इसमें शिरकत करनेवाले सितारे हों क्योंकि विज्ञापनदाता उनके ही नाम पर स्पांसरशिप देते हैं । विज्ञापनदाताओं की रणनीति होती है कि जितना बड़ा सितारा होगा उतनी बड़ी भीड़ जुटेगी और उनके उत्पाद का प्रचार बड़े उपभोक्ता वर्ग तक पहुंचेगा । परंतु सवाल यही है कि क्या इस तरह के आयोजनों में साहित्य या साहित्यकारों पर पैसे को तरजीह दी जानी चाहिए । अगर उद्देश्य साहित्य पर गंभीर विमर्श है, अगर उद्देश्य पाठकों को साहित्य के प्रति संस्कारित करने का है तब तो हरगिज नहीं । हां अगर उद्देश्य साहित्य के मार्फत कारोबार करना है तो फिर इस तरह से लटके झटके तो करने ही होंगे । अब तो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में मीना बाजार की तर्ज पर राजस्थानी पोशाक से लेकर हस्तशिल्प तक की बिक्री भी होती है । गहने जेवर की दुकान से लेकर चप्पल जूतों तक की दुकान देखी जा सकती है ।
इस बार भी दुनियाभर के तमाम बड़े लेखक और लेखिकाओं ने जयपुर के लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत की लेकिन इन सब पर करन जौहर, काजोल, गुलजार, जावेद अख्तर आदि की उपस्थिति भारी पड़ी । पहले ही दिन करन जौहर ने लोकतंत्र को मजाक बताकर विवाद खड़े करने की कोशिश की। करन ने व्यंग्यात्मक लहजे में ये कहकर विवाद खड़ा करने की कोशिश की कि हमारे देश में फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन सबसे बड़ा जोक है । करन जौहर इतने पर ही नहीं रुके और उन्होंने यहां तक कह दिया कि लोकतंत्र तो उससे भी बड़ा मजाक है । करन के मुताबिक अगर आप अपने मन की बात कहना चाहते हैं तो ये देश सबसे मुश्किल है । करन के बयान से हल्का फुल्का ही सही पर विवाद हुआ । कहने का मतलब ये कि जयपुर लिटरेटर फेस्टिवल में विमर्श और विवाद साथ-साथ चलते हैं । इस साहित्यक आयोजन की निदेशक नमिता गोखले बार-बार ये दोहराती हैं कि विवादों में उनकी रुचि नहीं है लेकिन जिस तरह से कुछ सत्र में विषयों और वक्ताओं का चुनाव होता है उससे लगता है कि अन्य आयोजकों की मंशा नमिता के मत से अलग है । पूर्व के वर्षों में विवादों ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को खासा चर्चित किया । चाहे वो सलमान रश्दी के कार्यक्रम में आने को लेकर उठा विवाद हो या फिर आशुतोष और आशीष नंदी के बीच का विवाद हो, सबने मिलकर इस फेस्टिवल को साहित्य की चौहद्दी से बाहर निकालकर आम जनता तक पहुंचा दिया ।



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