हिंदी के यशस्वी कथाकार और बेहतरीन संपादक रवीन्द्र कालिया का निधन हो गया । छिहत्तर साल की उम्र में उन्होंने लंबी बीमारी क बाद दिल्ली के एक अस्पताल में अंतिम सांसे लीं । रवीन्द्र कालिया बेहतर कथाकार थे या बेहतर संपादक ये तय करना मुश्किल है लेकिन एक बात जिसपर पूरे साहित्य में मतैक्य है वो ये कि वो एक बेहतरीन और बेहद जिंदादिल इंसान थे । हंस के संपादक राजेन्द्र यादव के निधन के बाद बोरियत की हद तक गंभीरता का आवरण ओढे दिल्ली की साहित्यक जमात में कालिया जी ही थे जो अपने विट और ह्यूमर से इसको बहुधा तोड़ते रहते थे । पंजाब के जालंधर में 11 नवंबर 1938 को जन्मे रवीन्द्र कालिया ने कई शहरों की यायावरी की और बाद में एक बार फिर दिल्ली आए और फिर यहीं के होकर रह गए । कालिया जी ने शिक्षण से अपने करियर की शुरुआत की फिर वो धर्मयुग पहुंच गए और वहां धर्मवीर भारती की सोहबत में पत्रकारिता के तमाम गुर सीखे थे । मुंबई में रहते हुए कालिया जी ने साहित्य और पत्रकारिता को बेहद नजदीक से देखा जो बाद में उनकी कहानी काला रजिस्टर में सामने भी आया । रवीन्द्र कालिया, धर्मवीर भारती के
साथ काम करने के पहले मोहन राकेश की नजर में आ गए थे । मोहन राकेश के साथ और प्रेरणा
से कालिया जी ने कहानियां लिखनी शुरू की । माना जाता है कि भाषा का जो अनुशासन रवीन्द्र
कालिया में दिखाई देता है वो मोहन राकेश की ही सोहबत का असर है । मेरा कालिया जी से
संपर्क अस्सी के दशक से था जब वो इलाहाबाद में रहते हुए एक अखबार गंगा-जमुना निकाला
करते थे । उनके साथ पत्र व्यवहार होता था और वो बहुधा मेरे साहित्यक पत्र अपने अखबार
में छाप दिया करते थे । ये पत्र संपर्क नियमित नहीं था लेकिन हमारी पीढ़ी कालियाजी
की कहानियों की दीवानी थी । मुझे याद है कि जब उनकी किताब गालिब छुटी शराब छपी थी तो
हॉस्टल में उसकी खूब चर्चा थी । मेरा अनुमान है कि धर्मवीर भारती की ‘गुनाहों के देवता’ के बाद ‘गालिब
छुटी शराब’ ऐसी किताब है जिसको कई पाठकों ने कई बार खरीदी होगी
क्योंकि जो उस किताब को पढ़ने के लिए ले जाता है वापस नहीं करता है । मैंने ही कम से
कम उसकी दस प्रतियां खरीदी होगी लेकिन अब मेरे पास एक भी प्रति नहीं है । यह लेखक की
लोकप्रियता का सबूत है ।
रवीन्द्र
कालिया के व्यक्तित्व के अलग अलग शेड्स थे और ये सभी शेड्स एक दूसरे को चुनौती देते
थे । कहानीकार के रूप में ‘काला रजिस्टर’ और ‘नौ साल छोटी पत्नी’ हिंदी
कथा साहित्य में अलग से दिखाई देता है । इसी तरह से जब एक संस्मरणात्मक किताब- गालिब
छुटी शराब देखते हैं तो लगता है कि यार कमाल का संस्मरण लेखक है ये शख्स । फिर इनके
उनके संपादन के शेड्स पर नजर डालते हैं तो सामने आता है उन्नीस सौ इक्यानवे में ‘वर्तमान साहित्य’ के दो कहानी महाविशेषांक । आज खबरिया
चैनलों में बहुधा महा शब्द का प्रयोग किया जाता है जैसे महा-बहस, महा-कवरेज आदि । परंतु
मेरे जानते महा शब्द को इस अर्थ में लोकप्रिय किया कालिया जी वर्तमान साहित्य के कहानी
महाविषेशांके के जरिए । दो अंकों में प्रकाशित वर्तमान साहित्य के उस महाविशेषांक में
कृष्णा सोबती की लंबी कहानी ‘ऐ लड़की’ प्रकाशित
हुई थी । उस महाविशेषांक के पहले अंक को देखकर उपेन्द्र नाथ अश्क ने लिखा था- ‘मैं इक्यासी साल का होने जा रहा हूं और मैं कालिया को इस बात की दाद देना चाहूंगा
कि उसने भैपव प्रसाद गुप्त, ज्ञानरंजन या राजेन्द्र यादव जैसे कमज़र्फ संपादकों की
तरह अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष अथवा मानापमान को अपने संपादन कार्य के आड़े नहीं आने
दिया और ज्यादा से ज्यादा जीवंत कथाकारों का सहयोग लेने की कोशिश की । विगत साठ वर्षों
यानि जब से मैं कहानियां लिख रहा हूं, मैंने कम से कम हिंदी में ऐसा विशाल कथा विशेषांक
नहीं देखा ।‘ कालिया जी के इस संपादन कौशल को बाद में हिंदी के
पाठकों ने वागर्थ के अंकों में भी महसूस किया जब वो उसके संपादक बने थे । कालांतर में
जब कालिया जी नया ज्ञानोदय के संपादक बनकर दिल्ली आए तो फिर तो उन्होंने अपने संपादन
के दौरान हिंदी में युवा लेखकों की पूरी पीढ़ी खड़ी कर दी । युवा लेखकों को लेकर कालिया
जी के अंदर एक खास किस्म का उत्साह रहता था और वो उनसे कुछ भी नया करवा लेने की कोशिश
में रहते थे । नया ज्ञानोदय में मेरा स्तंभ कालिया जी ने ही शुरू किया था और इसके लिए
वो मुझे करीब तीन साल तक उत्साहित करते रहे थे । ज्ञानपीठ के किसी सम्मान समारोह में
मुझसे राष्ट्रीय संग्रहालय में मिले तो उन्होंने आदेशात्मक अंदाज में मुझसे कहा था
कि अगले अंक से तु्म्हारा स्तंभ जाएगा । तब जाकर स्तंभ शुरू हुआ जो अब भी चल रहा है
। अंग्रेजी की किताबों के बारे में पाठकों को परिचित करवाने उस स्तंभ का उद्देश्य है
।
कालिया
जी साहित्य में दो बातों को लेकर चिंतित भी रहा करते थे । वर्ष दो हजार एक की बात रही
होगी तब मैंने एक न्यूज चैनल था तब वहां मैंने साहित्य में विवादों के गिरते स्तर पर
परिचर्चा आयोजित की थी । उस परिचर्चा में रवीन्द्र कालिया, अखिलेश, विभूति नारायण राय,
मैनेजर पांडे, ज्ञानरंजन, संतोष भारतीय थे । उस परिचर्चा में कालिया जी ने साफ तौर
पर कहा था कि उनकी साहित्य में विमर्श के गिरते स्तर से ज्यादा चिंता की बात है उसमें
पनप रहा जातिवाद । कालिया जी कहा था- ‘मेरी खास चिन्ता
का विषय यह है कि साहित्य में एक खास तरह का जातिवाद पनप गया है । जैसे यह भी देखने
में आ रहा है कि यहां एक खास तरह का ब्राह्मणवाद भी है,ठाकुरवाद भी है, कायस्थवाद भी
। क्या यह अकारण है कि ठाकुरों को ठाकुरों की ही रचनाएं पसंद आती हैं कायस्थों को नहीं
आती, ब्राह्णों को कायस्थों की नहीं आती ।‘ आज के डेढ दशक पहले
जिस बात की ओर कालिया जी ने इशारा किया था आज वो विद्रूप रूप से हमारे सामने है । कालिया
जी अपने बेबाक राय के लिए भी जाने जाते थे। गंभीर बातों को भी हल्के अंदाज में कह देने
की उनकी अदा साहित्य जगत में मशहूर थी । एक बार उन्होंने कहा था कि आजकल हिंदी साहित्य
में कुछ कथाकार एक दूसरे को जलील करने के लिए कहानियां लिख रहे हैं । पात्रों के चयन
से ये बात साफ होती भी रही है । आज वो नहीं हैं लेकिन उनकी कही कई बातें आज भी साहित्य
में गूंज रही हैं और साहित्यकारों को सोचने पर विवश कर रही हैं । कालिया जी आप बहुत
याद आएंगे क्योंकि आपके जाने से साहित्य जगत की जीवंतता लगभग समाप्त हो गई है और बच
गए हैं गंभीरता का आवरण ओढे साहित्यकार जिनके पास जाने में युवाओं को सोचना पड़ता है
।
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