आज से करीब सोलह साल पहले की बात है । दिल्ली के एक
प्रतिष्ठित दैनिक में साहित्यक पुस्तकों के प्रकाशन का सालाना लेखा-जोखा छपा था । उस
अखबार के सालाना लेखा जोखा का पूरे हिंदी जगत को इंतजार रहता था । वर्ष 1999 के उस
साहित्यक सर्वे में उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल के पहले उपन्यास काला पहाड़ का भी
उल्लेख सर्वेकार ने किया था । सर्वे करनेवाले लेखक ने लिखा था कि भगवानदास मोरवाल
का ये उपन्यास काला पहाड़ पहाड़ी जीवन पर लिखा गया बेहतरीन उपन्यास है । इस
टिप्पणी को पढ़ने के बाद उस समय हिंदी के सजग पाठकों ने अपन सर धुन लिया था
क्योंकि ये टिप्पणी उपन्यास पर ना होकर उसके शीर्षक को ध्यान में रखकर लिखा गया था
। दरअसल भगवानदास मोरवाल का उपन्यास काला पहाड़ हरियाणा के मेवात इलाके की सामाजिक
और राजनीतिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है. उस उपन्यास नमे पहाडी जीवन कहां है
या फिर समीक्षक महोदय की वो कौन सी दिव्य दृष्टि थी जिसने उसमें पहाड़ी जीवन ढूंढ
निकाला ये बात उपनयास के लेखक भी नहीं बता पाए । सालभर
प्रकाशित पुस्तकों का लेखा-जोखा करनेवाले माननीय लेखक को लगा कि शीर्षक में पहाड़
है तो कहानी पहाड़ से संबंधित होगी, लिहाजा उन्होंने बगैर उसको पढ़े लिख दिया और
वो छप भी गया । करीब डेढ़ दशक बाद इस प्रसंग की याद इस वजह से आई कि इस साल भी
अखबारों और बेवसाइट्स पर प्रकाशित सालाना सहित्यक लेखा-जोखा को पढ़ने के बाद यह लग
कि टिप्पणीकारों ने या तो किताब को पढ़ा नहीं है या फिर जल्दबाजी में अपने
पहचानवालों का नाम लेने में पुस्तक का प्रकाशन वर्ष तक भी भुला कर घालमेल कर दिया
है । दरअसल अखबारों में होनेवाले इस आयोजन की अपनी एक अहमियत है । इन आयोजनों में
की गई गलतियां भविष्य में किए जानेवाले शोध को प्रभावित करते हैं और गलत इतिहास
पेश करने का आधार तैयार करते हैं । इस साल भी साहित्यक सर्वे को देखकर यही लगता है
कि टिप्पणीकारों ने बहुत कैजुअल तरीके से इस तरह की टिप्पणियां की या लिखीं । इस
वर्ष के सर्वे में थोक के भाव में बगैर पढ़े किताबों की सूची पेश कर दी गई । अखबारों
में इस तरह के सर्वे में टिप्पणी लिखने में एक सहूलियत रहती है कि किसी भी कृति के
बारे में दो या तीन लाइन से ज्यादा नहीं लिखना पड़ता है । दो हजार पंद्रह मे
प्रकाशित सर्वे में भी इस तरह की कई असावधान टिप्पणियां गई हैं जिसको रेखांकित किए
जाने की जरूरत है । एक आलोचक ने अल्पना मिश्र के उपन्यास अन्हियारे चलछट में चमका
को दो हजार पंद्रह में प्रकाशित कृति करार दे दिया । यह एक भयंकर भूल है जो कि यह
दिखाता है कि हिंदी के वरिष्ठ लेखक और आलोचक प्रकाशित कृतियों को लेकर कितने
अगंभीर हैं । इस कृति को लेकर दो एक लोगों को और भ्रम हुआ । इसी तरह से एक मशहूर
अंतराष्ट्रीय बेवसाइट ने भी हिंदी साहित्य के साल दो हजार पंद्रह का लेखा जोखा
प्रस्तुत किया । उसको पढ़कर ये प्रतीत हो रहा था कि लेखक साहित्य की इस परंपरा से
अनभिज्ञ हैं । इसके अलावा इस तरह के सर्वे में यह भी देखा गया कि पंद्रह बीस दिन
पहले प्रकाशित पुस्तक भी चर्चित पुस्तकों की श्रेणी में आ गया । जो कहानी संग्रह
पटना पुस्तक मेला में पिछले वर्ष दिसंबर में विमोचित हुआ और ठीक से पाठकों के बीच
पहुंच भी नहीं पाया उसको भी टिप्पणीकारों ने उल्लेखनीय कृति के रूप में रेखांकित
कर दिया । यह असावधानी है या अज्ञानत या फिर पक्षपात इसका फैसला हिंदी साहित्य के
सुधीजनों को कर देना चाहिए । इसी तरह के करीब महीने भर पहले छपी एक आत्मकथा को भी
टॉप टेन आत्मकथा में शुमार कर दिया गया । ये जल्दबाजी क्यों । संभव है इन किताबों
का प्रकाशन वर्ष भी सही नहीं हो क्योंकि दिसंबर में छपनेवाली अधिकांश किताबों में
प्रकाशन वर्ष अगले ही साल का होता है ।
पिछले दिनों हिंदी साहित्य में समीक्षा लिखनेवालो
पर ऊंगली उठी थी जब एक युवा आलोचक ने युवा लेखिका के उपन्यास पर समीक्षा लिखी थी ।
उस समीक्षा में आलोचक महोदय ने उपन्यास की उस पृष्ठभूमि की चर्चा की थी जो वहां
मौजूद नहीं है । इसके अलावा भी अखबार में लिखी जानेवाली समीक्षाओं में असावधानियां
या लापरवाहियां की बातें सामने आती रहती हैं । समीक्षा एक गंभीर कर्म है वहां छूट
नहीं लिया जा सकता है । इसल तरह की असावधानी या लापरवाहियों से समीक्षा लिखनेवाले
तमाम समीक्षक संदेह क घेरे में आ जाते हैं । साहित्यक सर्वे लिखनेवालों को यह सहूलियत रहती
है कि लेखक ब्लर्ब लिखकर टिप्पणी कर दे । ज्यादातर मामलों में यही होता भी है
लेकिन यह साहित्यक बेइमानी है । इस बार तो कई लेखकों ने सोशल मीडिया पर इन लापरवाह
सर्वेकारों और सर्व में टिप्पणी करनेवालों की खासी लानत मलामत की । सोशल मीडिया के
दौर में इस तरह की चूक को सार्वजनिक होने में जरा भी देर नहीं लगती है । सोशल
मीडिया पर सार्वजनिक होने के बाद पाठकों को ठगे जाने का एहसाल होता है । पाठकों को
साहित्य की राजनीति से कोई लेना देना नहीं है । मतलब तो उनको इस बात से भी नहीं
होता है कि कोई लेखक किसी को उठाने या गिराने के लिए नाम लेता या नहीं लेता है । वो
तो बस लेखकों को सही मानकर उनपर भरोसा करता है । जब आलोचक का तमगा लगाए लोग इस तरह
की लापरवाहियों में चिन्हित किए जाते हैं तो साहित्य की साख को धक्का लगता है ।
पाठकों का विश्वास दरकता है । जब पाठकों का साहित्यकारों को लेकर विश्वास दरकता है
तो वो स्थिति साहित्य क विकास में बाधा बनती है । इस साल की घटनाओं को देखकर चिंता
होती है । अखबारों की भी ये जिम्मेदारी है कि वो सर्वेकारों या टिप्पणीकारों की
लापरवाही सामने आने के बाद गलतियों को प्रकाशित करे और भविष्य में उनको इस काम से
अलग रखें । जिस तरह से चुनावों के सर्वेक्षणों को लेकर लोगों के विश्वास में कमी
आई है उसी तरह से साहित्य के इन सर्वेक्षणों में भी पाठकों का विश्वास घटने लगा है
। सालभर के साहित्य का सर्वेक्षण करना अपने आप मे एक श्रमसाध्य काम है और सर्वेकार
को सालभर सजग रहना पड़ता है । साहित्यक घटनाओं से लेकर चर्चित प्रकाशनों तक का
खाता-बही संभालना पड़ता है । सैकड़ों किताबें पढ़नी पड़ती हैं तब जाकर सर्वेक्षण
संभव हो पाता है ।
1 comment:
सही है , और ऐसी समीक्षात्मक टिप्पणी लेखक के लिए भी ठीक नहीं । सुझाव और सुधार की गुंजाईश तो नई शुरुआत करने वालों से लेकर शिखर तक पहुंचे लेखकों तक सभी को होती है । समीक्षक ही ये कर सकते हैं ।
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