हाल के दिनों में पूरे देश में दो मुद्दे की खासी चर्चा हुई
। सबसे पहले तो लेखकों, फिल्मकारों और कलाकारों ने देशभर में असहिष्णुता का मुद्दा
उठाकर खूब शोर-शराबा किया । असहिष्णुता पर मचे कोलाहल के उस दौर में कन्नड़ लेखक कालबुर्गी,
कॉमरेड पानसरे आदि की हत्या के साथ साथ अखलाक की हत्या का भी मुद्दा उठाकर माहौल बनाने
की कोशिश की गई थी । बिहार चुनाव में बीजेपी की हार के बाद असहिष्णुता का मुद्दा थोड़ा
शांत पड़ गया था लेकिन गाहे बगाहे कोई ना कोई इसको उठाकर मुद्दा बनाने की फिराक में
रहने लगा था । इस बीच हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुल्ला की आत्महत्या
में असहिष्णुता के मसीहाओं को फिर से एक बार सियासत की संभावना दिखी और वो जोर शोर
से इसको दलित उत्पीड़न से जोड़कर शोर मचाने लगे । यह ठीक है कि लोकतंत्र में वैसी परिस्थितियां
नहीं बननी चाहिए कि किसी को भी आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजहबूर होना पड़े । रोहित
की मौत लोकतंत्र के चेहरे पर एक बदनुमा दाग है । लेकिन उससे भी ज्यादा व्यथित करनेवाली
प्रवृत्ति है उसको भुनाने की कोशिश करना । उसपर सियासत करना । दलित और मुसलमानों को
लेकर साहित्य और संस्कृति से जुड़े लोग खासे उत्तेजित हो जाते हैं । आक्रामक भी । लेकिन
ये उनकी सियासत का हिस्सा है । वो दलितों और मुसलमानों को आगे करके अपनी चालें चलते
हैं । इसका एक फायदा यह होता है कि आप समाज सुधारक और धर्मनिरपेक्ष होने का तमगा एक
साथ हासिल कर लेते हैं । लेकिन जब दलितों और मुसलमानों के योगदान को रेखांकित या सम्मानित
करने का वक्त आता है तो चैंपियन उनके खिलाफ ही काम करते नजर आते हैं । लेकिन ये खिलाफत
इतनी खामोशी से होता है किसी को पता भी नहीं चलता है । इसके कई प्रमाण और दृष्टांत
हिंदी साहित्य जगत में यहां वहां बिखरे हुए हैं लेकिन उनको सामने नहीं लाया जाता है
।
पिछले साल का साहित्य अकादमी पुरस्कार हिंदी के वयोवृदध लेखक
रामदरश मिश्र को उनके कविता संग्रह पर दिया गया । असहिष्णुता के मुद्दे पर साहित्य
अकादमी पुरस्कार वापसी के कोलाहल के बीच रामदरश मिश्र से बेहतर चयन शायद ही कोई होता
। साहित्यक हलके में यह बात लगभग सबको मालूम भी थी कि इस बार रामदरश जी को पुरस्कृत
किया जाना है । बानवे साल के रामदरश मिश्र जी को पुरस्कार देने पर कोई विवाद तो नहीं
हुआ लेकिन यह सवाल जरूर उठा कि साहित्य अकादमी पुरस्कार हाल के दिनों में लेखकों की
उम्र को देखकर दिया जाने लगा है । यह बात भी कही गई कि साहित्य अकादमी पुरस्कार अब
कृति पर देने की बजाए लाइफटाइम अचीवमेंट के तौर पर दिया जाना चाहिए । रामदरश मिश्र
जी को उनके कविता संग्रह ‘आग पर हंसी’ के लिए पुरस्कृत किया गया, जो कि उनके ही रचे साहित्य में तुलनात्मक रूप से कमजोर
कृति है । इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए की रामदरश जी को अगर इस उम्र में साहित्य
अकादमी पुरस्कार मिला तो फिर किस उम्र में उनके कद के लेखकों को अकादमी की महत्तर सदस्यता
से सम्मानित किया जाएगा । दरअसल साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर अकादमी के संविधान
में आमूल चूल सुधार की आवश्यकता है । सुधार की आवश्यकता तो अकादमी के संविधान में साधारण
सभा की सदस्यता को लेकर भी है लेकिन फिलहाल हम अकादमी पुरस्कार की बात कर रहे हैं ।
साहित्य अकादमी पुरस्कारों में सत्तर के दशक से गड़बड़ियां शुरू हो गई । अगर ठीक से
साहित्य अकादमी के इतिहास का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि मार्क्सवादियों के साथ ही
अकादमी में गड़बड़झाले का प्रवेश हुआ । 12 मार्च 1954 को तत्कालीन उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली
राधाकृष्णन ने कहा था कि साहित्य अकादमी का उद्देश्य शब्दों की दुनिया में मुकाम हासिल
करनेवाले लेखकों की पहचान करना, उन लेखकों को प्रोत्साहित करना और आम जनता की रुचियों
का परिष्कार करना है । इसके अलावा अकादमी को साहित्य और आलोचना के स्तर को बेहतर करने
के लिए भी प्रयास किया जाना चाहिए । 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कार देने के प्रस्ताव
पर चर्च हुई थी और 1955 में पहला साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया था । हिंदी के लिए
पहला साहित्य अकादमी माखनलाल चतुर्वेदी को उनकी कृति ‘हिम तरंगिणी’ पर दिया गया था । आश्चर्य की बात है कि पहले पुरस्कार से
लेकर अबतक किसी भी मुसलमान लेखक को हिंदी में लेखन के लिए पुरस्कृत करने योग्य नहीं
माना गया । यह साहित्य अकादमी की कार्यप्रणाली और संकीर्णतावादी दृष्टिकोण को उजागर
करनेवाली बात है या फिर उसके कर्ताधर्ताओं की सोच का प्रदर्शन ।
यह सही है कि साहित्य, जाति, धर्म वर्ण, संप्रदाय आदि से
उपर होता है और रचनाओं को किसी खांचे में बांधना उचित नहीं होगा । लेकिन अगर साठ साल
के लंबे अंतराल में एक खास समुदाय के लेखकों की पहचान और सम्मान ना हो तो प्रश्न अंकुरित
होने लगते हैं । हिंदी में लिखनेवाले मुस्लिम लेखकों की एक लंबी फेहरिश्त है । ‘काला जल’ जैसा कालजयी उपन्यास लिखनेवाले गुलशेर खां शानी, ‘आधा गांव’ जैसे बेहतरीन उपन्यास के लेखक राही मासूम रजा, ‘सूखा बरगद’ जैसे उपन्यास के रचयिता मंजूर एहतेशाम को भी साहित्य अकादमी
ने सम्मानित करने के योग्य नहीं माना । ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ के लेखक अब्दुल बिस्मुल्लाह के अलावा नासिरा शर्मा और असगर
वजाहत अपने लेखन से लगातार हिंदी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं लेकिन अकादमी इनको लेकर
भी उदासीन ही नजर आती है । क्या वजह है कि हिंदी में लिखनेवाले मुस्लिम लेखकों की तरफ
साहित्य अकादमी का ध्यान नहीं गया । अगर यह संयोग मात्र है तो बहुत दुखद है । अकादमी
के क्रियाकलापों को देखकर, खासकर सत्तर के बाद, लगता है कि यह संयोग नहीं है । सत्तर
के दशक के बाद साहित्य अकादमी पर धर्मनिरपेक्षता के चैंपियनों का कब्जा रहा । सहिष्णुता
के उस कथित बेहतर माहौल में किसी भी मुस्लिम लेखक को पुरस्कार नहीं मिलना बेहद अफसोसनाक
है । अगर हम गहराई से विचार करें तो अल्पसंख्यकों के नाम पर अपनी दुकान चलानेवालों
ने उनके नाम की तख्ती तो लगाई लेकिन कभी भी उस तख्ती को सम्मान नहीं दिया । दरअसल साहित्य
अकादमी पर इमरजेंसी के बाद जो भी शख्स हिंदी भाषा के कर्ताधर्ता रहे उनमें से ज्यादातार
ने खास विचारधारा के ध्वजवाहकों को सम्मानित किया । मेधा और प्रतिभा पर अपने लोगों
को तरजीह दी गई । ये पीरियड काफी लंबे समय तक चला और मुस्लिम लेखकों के साथ अन्याय
होता चला गया । अपनों को रेवड़ी बांटने के चक्कर में इनका सांप्रदायिक चेहरा दबा रहा
लेकिन अब वक्त आ गया है कि उनके चेहरे से नकाब उठाया जाए और उन सभी से ये सवाल पूछा
जाए कि शानी, रजा, मंजूर एहतेशाम, असगर वजाहत को क्यों नजरअंदाज किया । साहित्य अकादमी
के कथित सेक्युलर लेखकों ने साहित्य अकादमी ने उर्दू में लिखने वाले गोपीचंद नारंग,
गुलजार जैसे हिंदू लेखकों को सम्नानित किया लेकिन हिंदी कर्ताधर्ता वो दरियादिली नहीं
दिखा सके । उपर जिन लेखकों का नाम लिखा गया है उनमें से किसी की भी कृति अबतक साहित्य
अकादमी प्राप्त किसी भी कृति से किसी भी मानदंड पर कमजोर नहीं है । फिर आखिर क्यों
कर ऐसा हुआ । सुरसा के मुंह की तरह ये सवाल साहित्य अकादमी के सामने खड़ा है ।
बात सिर्फ मुस्लिम लेखकों की ही नहीं है । साहित्य अकादमी
ने संभवत: अबतक किसी दलित लेखक को भी सम्मानित नहीं किया । इसके पीछे
क्या वजह हो सकती है । जब भी जो भी हिंदी भाषा के संयोजक रहे उन्होंने अपने हिसाब से
पुरस्कारों का बंटवारा किया । वर्तमान अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी जब हिंदी भाषा के संयोजक
के चुनाव में खड़े हुए थे तब हिंदी के ही एक अन्य लेखक ने दावेदारी ठोकी थी लेकिन तब
उनको यह समझा दिया गया कि संयोजक होने से पुरस्कार नहीं मिल पाएगा, लिहाजा वो नाम वापस
ले लें । हुआ भी वही । जब सौदेबाजी, क्षेत्रवाद, जातिवाद के आधार पर पुरस्कार दिए जाते
रहे तो फिर दलितों और मुसलमानों के मुद्दों के चैंपियन क्यों खामोश रहे । साहित्य के
इन मठाधीशों के खिलाफ किसी कोने अंतरे से आवाज नहीं उठी थी, जो भी आवाज उठाने की हिम्मत
करता उसको हाशिए पर धकेल दिया जाता था । इस परिस्थिति को देखते हुए अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन
के कथन का स्मरण होता है – ‘यह एक नियम है कि शिक्षित लोग मशीनगन के सामने भी उतना कायरतापूर्ण
व्यवहार नहीं करते जितना बड़बोले वामपंथी लफ्फाजों के सामने ।‘ यह अकारण नहीं है कि अलेक्सांद्र सोल्झेनित्सिन इस तरह की
बात करते थे । दरअसल इन बड़बोले वामपंथी लफ्फाजों ने वर्षों तक सही बात कहनेवालों का
मुंह बंद करके रखा । सोवियत संघ के पतन के बाद से जिस तरह से इनके प्रकाशन और संस्थान
आदि बंद हुए तो उनकी लफ्फाजी थोड़ी कमजोर हुई । वक्त आ गया है कि साहित्य अकादमी में
इन्होंने जो गलतियां की उसको सुधारा जाए । अकादमी के संविधान में संशोधन करके तमाम
योग्य मुस्लिम और दलित लेखकों को मरणोपरांत पुरस्कृत किया जाए ।
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