पिछले दिनों दिल्ली
के विज्ञान भवन में देशभर के चुनिंदा लोगों के सामने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने
स्टार्ट अप के लिए अपना विजन तो पेश किया ही सरकार की सहूलियतों का भी एलान किया ।
स्टार्टअप को सपोर्ट करने की सरकार की मंशा की तारीफ की जानी चाहिए लेकिन जिस तरह से
इस सपोर्ट सिस्टम को डिजाइन किया गया है उसको लेकर बिजनेस जगत में आशंका है । कई जानकारों
का मानना है कि स्टार्टअप के लिए सहूलियतें देने से जयादा जरूरी है कि उसके फलने फूलने
के लिए वातावरण बनाना । स्टार्टअप के लिए तीन साल तक टैक्स में छूट का एलान क्यों किया
गया यह समझ से परे है । तीन साल में कोई बिरला ही होगा जो अपने स्टार्टअप बिजनेस को
मुनाफे में लेकर चला जाए । सरकार के आलोचकों का कहना है कि स्टार्टअप को तीन साल तक
टैक्स छूट देने के एलान के पीछे चंद बड़ी कंपनियों को फायदा पहुंचाना है । स्टार्टअप
की अवधारणा इंटरनेट के फैलाव से जुड़ा है और पिछला साल इसके लिए अबतक सबसे मुफीद रहा
है । नैसकॉम की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में स्टार्टअप सबसे तेजी से बढ़ता हुआ बिजनेस
मॉडल है । उस रिपोर्ट के मुताबिक यहां स्टार्टअप के लिए विश्व का तीसरा सबसे बड़ा बाजार
भी उपलब्ध है । स्टार्टअप की अवधारणा सुनने और देखने में बहुत ही मोहक लगती है लेकिन
क्या इसकी तस्वीर उतनी ही सुंदर है जितनी ये दिखती है । शायद नहीं । भारत में दो देश
बसता है, एक वो जिसकी संख्या हम करीब दस फीसदी मान सकते हैं और दूसरा वो जिसकी हिस्सेदारी
नब्बे फीसदी है । दस फीसदी आबादी स्टार्टअप के लिए बेहतर बिजनेस वातावरण दे सकता है
और वो इसके साथ कदम से कदम मिलाकर चल भी सकता है लेकिन क्या सिर्फ दस फीसदी के साथ
स्टार्ट अप का बिजनेस मॉडल सफल हो सकता है । स्टार्टअप की सफलता और असफलता दोनों को
मिलाकर ही तय होगी । कोई भी स्टार्टअप अगर नब्बे फीसदी पर ध्यान देगा तो उसका घाटा
होना तय है । नब्बे फीसदी तक पहुंचने के लिए जिस तरह के इंफ्रास्ट्रक्टर की जरूरत है
वो काफी मंहगा पड़ता है । देश के सुदूर इलाके में रह रहे ग्राहकों तक पहुंचने के लिए
श्रम से ज्यादा लॉजिस्टक में खर्च हो जाता है ।
स्टार्टअप बिजनेस
के लिए किसी भी तरह का मोबाइव एप बनवाना बहुत आसान और सस्ता है लेकिन उस मोबाइल एप
को डाउनलोड करवाना और फिर उसको रिटेन करवाना बहुत ही मुश्किल है । इंडस्ट्री के जानकारों
का मानना है कि एक मोबाइल एप को डाउनलोड करवाने का खर्च लगभग पांच सौ रुपए आता है और
उसको ग्राहक अपने मोबाइल में कब तक रखेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है । भारत में मोबाइल
के ग्राहकों की विशाल संख्या को देखते हुए वेंचर कैपिटलिस्टों को और स्टार्टअप को यहां
एक बड़ा बाजार नजर आता है । वो भूल जाते हैं कि ज्यादातर स्मार्टफोन में मेमोरी बहुत
कम होती है और ग्राहक खरीदारी के एप को ज्यादातर दो ही रखते हैं। इन स्टार्टअप बिजनेस में अन्य खर्चों को जोड़ा जाए तो मुनाफा का मार्जिन बेहद
कम होता है और कहीं कहीं तो ये घाटे का भी सौदा होता है । कई स्टार्टअप बिजनेस में
प्रोडक्टस पर डिलीवरी चार्ज भी लिया जाता है जो कि बाजर में उसकी लागत मूल्य से ज्यादा
होता है । इसके अलावा इंटरनेट पर होनेवाले इस कारोबार में अन्य खर्चे इतने ज्यादा होते
हैं जिसकी वजह से ये बिजनेस मॉडल सफल नहीं हो सकता है । ये पूरा बिजनेस ट्रांसेक्शन
की संख्या पर भी निर्भर करता है ।
हमारे देश में हाल
के दिनों में ग्रॉसरी से लेकर सब्जी तक के स्टार्टअप खुलते जा रहे हैं और उसी रफ्तार
से बंद भी हो रहे हैं । मोबाइल एप पर आधारित इस तरह की ज्यादातर कंपनियां घाटे में
चल रही हैं । घाटे में चल रही इन कंपनियों के लिए वेंचर कैपटलिस्ट की पूंजी प्राणवायु
का काम तो करती है लेकिन ये दीर्घकालीन हल नहीं देते हैं क्योंकि वेंचर कैपटलिस्ट पहली
बात तो इक्विटी से अपना घाटा पूरा करते हैं और फिर कंपनी की वैल्यूएशन के आधार पर उसको
मौका मिलते ही बेच देते हैं । किसी भी कारोबार को शुरू करने और उसकी सफलता के लिए माना
जाता है कि आपको अपने प्रोडक्ट के बारे में औरों से बेहतर जानकारी हो, आपको अपने ग्राहकों
के स्वभाव और उनकी खरीदारी के पैटर्न का बेहतर अंदाजा हो और कारोबार को सफल करने का
ख्वाब हो । लेकिन स्टार्टअप में एक और चीज जोड़ी जानी चाहिए कि कारोबारी को इस बात
का भी इल्म हो कि उसके ट्रांजेक्शन कैसे बढ़ाए जा सकते हैं । इस कारोबार में एक और
खतरा है जिसको ध्यान में रखना होता । गूगल और फेसबुक स्टार्टअप कंपनियों को एक निश्चित
राशि के एवज में ग्राहक देते हैं । इंडस्ट्री के जानकारों का मानना है कि फेसबुक और
गूगल एक ग्राहक के लिए करीब पांच या छह सौ रुपए लेते हैं । इन खरीदे गए ग्राहकों के
आधार पर स्टार्टअप कंपनियां निवेशकों को आकर्षित करती हैं । इन स्टार्टअप कंपनियों
के पास फेसबुक या गूगल से खरीदे गए ग्राहकों को अपने साथ जोड़े रहने की कोई रणनीति
नहीं है और ये मानकर चलते हैं कि उनमें से करीब बीस से पच्चीस फीसदी तो जुडे़ ही रहेंगे
। हलांकि इस तरह का कोई रिसर्च उपलब्ध नहीं है । हर कोई फ्लिपकार्ट या स्नैपडील का
उदाहरण देते हैं लेकिन वो ये भूल जाते हैं कि इस तरह की कई कंपनियां हजारों करोड़ के
घाटे में चल रही हैं । हमारे यहां स्टार्टअप शुरू करने के लिए भारतीय परिस्थियों को
ध्यान में रखना होगा अन्यथा ये भी डॉट कॉम के बुलबुले की तरह फूट कर स्थायित्व हासिल
करेगा ।
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