पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस मुक्त भारत का नारा जोर शोर से गूंजा
था । उस नारे को लोगों ने कितना अपनाया यह विवाद का विषय हो सकता है । इस बात पर भी
बहस हो सकती है कि लोकतंत्र में एक मुख्य राजनीतिक दलों में से एक से देश को मुक्त
करने की परिकल्पना कितनी उचित थी । विमर्श, बहस,वाद-विवाद-संवाद लोकतंत्र के लिए जरूरी
है । इसी आवश्यकता की वजह से कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना के विरोध में कई लेख लिखे
गए, लिखे भी जाने चाहिए क्योंकि भारत का संविधान आपको अपने विचार खुलकर रखने का हक
देता है । राजनीति में जिस तरह से कांग्रेस मुक्त भारत पर लंबा विवाद हुआ उसी तरह से
हिंदी में विचारधारा मुक्त साहित्य पर भी बहस होनी चाहिए । पिछले कई दशकों से जिस तरह
से हिंदी साहित्य एक खास विचारधारा की जकड़न में है उसको दूर करने के लिए और साहित्य
को विचारधारा की गुलामी से मुक्त करने के लिए यह आवश्यक है कि हिंदी में विचारधारा
मुक्त साहित्य की मुहिम शुरू की जाए । दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में साहित्य में
भारतीयता की अवधारणा विषय पर एक गोष्ठी आयोजित की गई थी । इस विषय पर बात करने से अबतक
हिंदी के लोग कतराते रहे हैं । दरअसल हुआ यह है कि जिस वक्त से हिंदी साहित्य पर वामपंथी
विचारधारा का प्रभाव बढ़ा उसके बाद से ही हमारे देश की चिंतन पद्धति का हास होना शुरू
हो गया । इसके ह्रास के पीछे एक सोची समझी रणनीति को फलीभूत होते हुए रेखांकित किया
जा सकता था । यह क्योंकर हुआ कि जिस देश में वेद, पुराण, उपनिषद जैसी कालजयी रचनाएं
लिखी गईं, जिस देश में गणित और व्याकरण को वैज्ञानिक तरीके से समझा गया उसी देश में
स्वतंत्र चिंतन की परंपरा खत्म हो गई । हमारी सोच समझ के औजार बदलने लगे । हम स्वदेशी
चिंतन पद्धति को छोड़कर विदेशी और आयातित विचारधारा के प्रभाव में आने लगे । साहित्य
से भारतीयता की बातें कम होनी लगीं । दबे कुचले मजलूमों की बातें करते करते हम अपने
गौरवशाली इतिहास को भुलाने लगे । भारत विश्व का इकलौता देश है जहां इतनी बहुलता और
विविधता है । यहां इतनी भाषाएं, इतनी बोलियां, इतनी पोशाकें, इतनी आदतें हैं जो पूरी
दुनिया के किसीएक देश में दुर्लभ है । इतना विशाल देश होने के बावजूद जो समावेशी संस्कृति
हमारे देश में है और उसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि उसको देखकर पूरी दुनिया में लोग दांतों
तले अंगुली दबा लेते हैं ।
हमारे पुरातन ग्रंथों को चुनिंदा तरीके से दकियानूसी से लेकर जाति प्रथा विरोधी
तक करार दे दिया गया । हमेशा से यह बात कही और सुनी जाती रही है कि साहित्य समाज का
दर्पण होता है । जिस तरह की मान्यताएं और परंपराएं समाज में होती हैं वो साहित्य में
प्रतिबिंबित होती हैं । साथ ही समाज की कुरीतियो को भी साहित्य निगेट करता है । उसपर
कुठाराघात करता है । हमारे पौराणिक ग्रंथों को बेहद ही चालाकी से स्त्री विरोधी करार
दे दिया गया है और यह भ्रम फैलाया गया कि वेद और पुराण स्त्रियों की आजादी के खिलाफ
हैं । दरअसल विदेशी और आयातित विचारधारा को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक था कि पहले
से स्थापित विचारधारा और मान्यताओं को विस्थापित किया जाए । किसी भी विचारधारा को या
लेखन को जममानस से हटाने के लिए यह जरूरी है कि उसको बदनाम किया जाए । विदेशी विचारधारा
को हमारे साहित्य पर थोपनेवालों ने यही काम किया । उन्होंने प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों
को बदनाम करना शुरू किया । बदनाम करने के लिए सबसे जरूरी यह होता है कि उसको समाज के
किसी समुदाय विशेष के खिलाफ साबित करो । आयातित विचारधारा चूंकि दबे, कुचलों और गरीबों
के बारे में बात करती थी लिहाजा यह सोचा गया होगा कि भारतीय ग्रंथों में से कुछ ऐसा
ढूंढकर निकाला जाए जिसमें इस विशाल वर्ग के खिलाफ कुछ हो । इस सोच के पीछे यह साबित
करना था कि भारतीय चिंतन पद्धति या भारतीय लेखन में वर्ग विशेष के हितों का ध्यान रखा
गया है । इस सोच के तहत ही पुराने भारतीय ग्रंथों को बदनाम किया जाने लगा। सबसे पहला
आक्रमण हुआ मनुस्मृति पर । मनुस्मृति को दलितों और समाज के निचले तबके के खिलाफ प्रचारित
कर दिया गया । कानों में शीशा डालने जैसी पंक्तियों को अत्याचार के तौर पर प्रचारित
किया गया लेकिन अफसोस कि इसको समग्रता में नहीं देखा गया । यहां हम उसको उचित नहीं
ठहरा रहे हैं, आग्रह सिर्फ इस बात का है कि किसी भी कृति का मूल्यांकन समग्रता में
होना चाहिए । इसी तरह से तुलसीदास कृति रामचरित मानस की एक पंक्ति उठाकर उसको स्त्री
के खिलाफ प्रचारित कर दिया गया । वेदों के बारे में जाने क्या-क्या अनाप शनाप प्रचारित
किया गया । कमोबेश सभी ग्रंथों को स्त्री और दलित विरोधी करार दे दिया गया । उन धर्म
ग्रंथों को भी स्त्री विरोधी करार दे दिया गया जिसकी बुनियाद दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती
जैसे मजबूत चरित्रों के आधार पर किया गया है । इसके पीछे सिर्फ यह मानसिकता काम कर
रही थी कि किस तरह से भारतीयता को बदनाम किया जा सके । किसी भी प्राचीन ग्रंथ का मूल्यांकन
समग्रता में नहीं किया गया और कुछ चुनिंदा अंशों को उठाया गया और फिर विचारधारा के
पोषकों ने उसको जमकर प्रचारित कर दिया । समग्रता में मूल्यांकन नहीं होता है तो उसको
ही साहित्यक बेइमानी कहते हैं ।
उदाहरण के तौर पर अगर हम देखें तो हमारे पुराने ग्रंथों में स्त्रियों को लेकर
बेहद अच्छे विचार पेश किए गए हैं । अगर इसका मूल्यांकन बगैर किसी पूर्वग्रह के समग्रता
में हो तो यह बात निकल कर आ सकती है कि भारतीय समाज में स्त्रियों की बेहद इज्जत की
जाती थी और उनका ध्यान रखने के लिए पुरुषों को प्रेरित भी किया जाता था । मनुस्मृति
में भी इस बात का उल्लेख मिलता है जहां उसके तीसरे खंड में कहा गया है कि- पिता, भाई,
पति, रिश्तेदारों को महिलाओं का सम्मान करना ही चाहिए । जहां स्त्रियों का सम्मान होता
है वहां देवताओं का वास होता है और वो प्रसन्न होते हैं और जहां महिलाओं का अपमान होता
है वहां चाहे आप कितना भी पूजा पाठ कर लें कुछ नतीजा नहीं निकल सकता है । जिस परिवार
में स्त्रियां दुख में रहती हैं वो परिवार जल्द ही खत्म हो जाता है । मनुस्मृति में
तो यहां तक कहा गया है कि जो पुरुष अपने परिवार में खुशहाली चाहते हैं उनको छुट्टियों
में स्त्रियों को घुमाना चाहिए और उनको उपहार आदि देकर प्रसन्न रखना चाहिए । इसी तरह
से अगर हम वेदों को देखें तो उसमें भी स्त्रियों को इतनी आजादी और सम्मान है जिसको
उभारा ही नहीं गया । ऋगवेद और अथर्वेद में स्त्रियों के बारे में विस्तार से लिखा गया
है । अथर्वेद में साफ तौर पर कहा गया है कि जब कोई लड़की विवाह करके ससुराल में आती
है तो वो नए परिवार से उसी तरह मिलती है जैसे समुद्र में नदी का मिलन होता है । विवाह
के बाद स्त्री उस परिवार में रानी की तरह आती है जो अपने पति के साथ मिलकर सभी फैसले
लेनेवाली होती है । इस तरह की तुलना और स्त्री-पुरुष समानता की बात उस काल में विश्व के अन्य ग्रंथों
में दुर्लभ है । ऋगवेद में तो कई ऋचाओं को महिला ऋषियों से ही कहलवाया गया है जिसका
प्रतीकात्मक अर्थ है । उन अर्थों को प्रचरित करने के बजाए दबा दिया गया । महिला वैदिक
ऋषियों की एक लंबी परंपरा रही है जिनमें रोमाशा, लोपमुद्रा, विवसरा से लेकर मैत्रेयी
और गार्गी का उल्लेख मिलता है ।
विदेशी आक्रमणों के अलावा विचारधारा के आक्रमण ने हमारे साहित्य का नुकसान किया
। वामपंथी विचारधारा से इतर साहित्य रचना करनेवालों को कभी कलावादी तो कभी परिमलवादी
कहकर एक खास खांचे में डाला गया । उनके मूल्यांकन को बाधित किया गया । अज्ञेय हिंदी
साहित्य का वो हीरा है जो विश्व की किसी भी भाषा के लेखक से कमतर नहीं है लेकिन उनका
वामपंथियों ने क्या हाल किया ये सबके सामने है । दिनकर के लेखन पर क्यों कर विचार नहीं
किया गया । उनको सत्ता प्रतिष्ठान का पिछलग्गू प्रचारित कर उनके महत्व को कम कर आंकने
की कोशिश की गई और तो और अशोक वाजपेयी तक को
उन्होंने साहित्य से बदर करने की भरसक कोशिश की । वो तो अशोक वाजपेयी की प्रतिभा थी
कि अपने को प्रासंगिक बनाए रख सके । आज भी अगर कोई लखक इस तरह की बात करता है तो उसको
संघी कहकर साहित्य से अछूत करने की भरसक कोशिश की जाती है क्योंकि जहां तर्क चुक जाते
हैं वहां सामने वाले को संघी कहकर बच निकलने का वामपंथी मार्ग बेहद सुगम है । यह मार्ग
आसान हो सकता है लेकिन ईमानदारी का मार्ग नहीं है । अगर किसी विषय पर विमर्श करना हो
तो खुले दिल से हर मंच पर जाकर बात होनी चाहिए । साहित्य में किसी भी विचारधारा को
लेकर अस्पृश्यता का भाव दरअसल इको पालने वाले की कमजोरी को ही रेखांकित करता है ।
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