क्या यह संभव है कि एक कालखंड में या अलग अलग
कालखंड में दो या तीन कवि महान हो सकते हैं? क्या एक कवि को दूसरे कवि के
निकष पर कसना और फिर उनका मूल्यांकन करना उचित है ? एक कवि
के पदों में से दो एक पदों को उठाकर उसको प्रचारित कर देना और दूसरे कवि के चंद
पदों के आधार पर उनको क्रांतिकारी ठहरा देना कितना उचित है? पर
हमारे देश के दो महान कवियों के साथ ये सब किया गया। तुलसीदास को नीचा दिखाने के
लिए कबीर को उठाने का सुनियोजित खेल खेला गया। उपर जितने भी सवाल उठाए गए हैं अगर
हम उनके उत्तर ढूंढते हैं तो यह खेल साफ हो जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी
पुस्तक में तुलसीदास को लेकर अपनी मान्यताओं को स्थापित किया था। जब बीसबीं
शताब्दी में हजारी प्रसाद द्विवेदी आए तो उनके सामने यह चुनौती थी कि वो खुद आचार्य
शुक्ल से अलग दृष्टिवाले आलोचक के तौर पर खुद को स्थापित करें। खुद को स्थापित
करने के लिए यह आवश्यक था कि वो कोई नई स्थापना लेकर आते या पहले से चली आ रही
स्थापनाओं को चुनौती देते । द्विवेदी जी के सामने शुक्ल जी की आलोचना थी जिसमें
उन्होंने तुलसी को स्थापित किया था। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने माहौल के हिसाब से
कबीर की व्याख्या की और उनको क्रांतिकारी कवि सिद्ध किया। इस क्रम में उन्होंने
तुलसीदास को प्रत्यक्ष रूप से कमतर आंकने की कोशिश नहीं की, लेकिन तुलसीदास पर गंभीरता
से स्वतंत्र लेखन नहीं करके उनको उपेक्षित रखा । कालांतर में हिंदी साहित्य में आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्यों का साहित्य पर बोलबाला रहा और उन सब लोगों ने
द्विवेदी जी की स्थपना को मजबूत करने के लिए कबीर को श्रेष्ठ दिखाने के लिए अलग
अलग तरह से लेखन किया और तुलसी को उपेक्षित ही रहने दिया आ फिर जहां मौका मिला
उनको नीचा दिखाने का काम किया। विनांद कैलवर्त ने अपनी पुस्तक- ‘द मिलेनियम कबीर वाणी, अ कलेक्शन आफ पदाज़’ में साफ
तौर पर लिखा भी है- ‘निहित स्वार्थों ने कबीर को बहुत जल्दी
हथिया लिया। सत्रहवीं सदी में गोरखपंथियों और रामानंदियों से लेकर बीसीं शताब्दी
में हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे ब्राह्मणों तथा अन्य सामाजिक समूहों तक ने कबीर का
इस्तेमाल अपने अपने विचारधारात्मक उद्देश्यों और फायदों के लिए किया।‘ संभव है कि विनांद कैलवर्त की स्थापनाएं अतिरेकी हों लेकिन इस बात से
कहां इनकार किया जा सकता है कि कबीर का इस्तेमाल ‘विचारधारात्मक
उद्देश्यों और फायदों के लिए किया गया’।
कबीर को क्रांतिकारी दिखाने और तुलसी को
परंपरावादी साबित करने की होड़ में कुछ क्रांतिकारी लेखकों ने तुलसीदास को वर्णाश्रम
व्यवस्था का पोषक, नारी और शूद्र विरोधी करार देकर उनकी घोर अवमानना की। रामचरित
मानस की एक पंक्ति ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ को पकड़कर तुलसी को कलंकित करने की कुत्सित कोशिश की गई। तुलसीदास की कविता
की व्याख्या करनेवाले आलोचक या लेखक बहुधा बहुत ही सुनियोजित तरीके से तुलसीदास के
उन पदों को प्रमुखता से उठाते हैं जिनसे उनकी छवि स्त्री विरोधी और वर्णाश्रम
व्यवस्था के समर्थक की बनती है। तुलसीदास को स्त्री विरोधी करार देनेवाले मानस में
अन्यत्र स्त्रियों का जो वर्णन है उसकी ओर देखते ही नहीं हैं। एक प्रसंग में
तुलसीदास कहते हैं – कत विधि सृजीं नारि जग माहीं, पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं । इसी
तरह अगर देखें तो मानस में पुत्री की विदाई के समय के प्रसंग में कहा गया है-
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारी, कहहिं बिरंची रचीं कत नारी। इसके अलावा तुलसी साफ तौर
पर कहते हैं- रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा। इन पदों को आलोच्य
पद के सामने रखकर तुलसीदास का मूल्यांकन किया जाना चाहिए । नारी के अलावा जब उनको
शूद्रों का विरोधी कहा जाता है तब भी खास विचार के पोषक आलोचक तुलसी के उन पदों को
भूल जाते हैं जहां वो रामराज्य की बात करते हुए सबकी बराबरी की बात करते हैं। तुलसी
जब रामराज्य की बात करते हैं तो वो चारों वर्णों के सरयू नदी के तट पर साथ स्नान
करने का वर्णन करते हैं जिसकी ओर क्रांतिकारी लेखकों का ध्यान जाता नहीं है। वो
कहते हैं – राजघाट सब बिधि सुंदर बर, मज्जहिं तहॉं बरन चारिउ नर। यहां यह खेल
तुलसीदास तक ही नहीं चला बल्कि निराला को लेकर भी इस तरह का खेल खेला गया। निराला
ने कल्याण पत्रिका के भक्ति अंक से लेकर कई अन्य अंकों में जो लेख लिखे थे उनको
ओझल कर दिया गया। नई पीढ़ी के पाठकों को इस बात का पता ही नहीं है कि भक्त निराला
ने किस तरह की रचना की।
कबीर को ऊपर उठाने के खेल में जिस तरह से
तुलसीदास की आलोचना की जा रही थी और जिस तरह से दोनों को सामने रखकर तुलनात्मक
बातें हो रही थीं उसी क्रांतिकारी व्याख्या से उत्साहित होकर एक पत्रिका ने
तुलसीदास को हिंदू समाज का पथभ्रष्टक साबित करने के लिए लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित
की थी जो बाद मे पुस्तकाकार भी छपी। बावजूद इसके तुलसी की व्याप्ति भारतीय मानस से
जरा भी नहीं डिगी। तुलसीदास के सामने कबीर को सोशल रिवोल्यूशनरी साबित करनेवाले यह
भूल गए कि वे वेदांतवादी थे और वैष्णव होने की वजह से एकात्मवाद को बढ़ावा देते थे
और सार्वजनिक जीवन में किसी भी तरह के आडंबर के खिलाफ थे। उन्होंने समाज मे
व्याप्त आडंबर के खिलाफ चेतावनी के पद लिखे जिसको बार बार उछाल कर कबीर को क्रांति
के संवाहक के तौर पर पेश किया गया। लेकिन जब राम उनके पदों में आते हैं तो उसको
बिसरा दिया जाता है। वो राम को मानते रहे। राम का नाम कबीर के पदों में बार बार
आता है – ‘राम मेरे पियू, मैं राम की बहुरिया हो या राम निरंजन न्यारा के, अंजन सकल
पसारा। या फिर दुलहिन गावहूं मंगल चार, हम घरि आए हो राजा राम भरतार।‘ कबीर को राम से अलग करके देखने की गलती बार बार हुई या जानबूझकर की गई इस
बारे में निश्चित तौर पर कुछ भी कहना मुश्किल है। वामपंथी लेखकों ने लगातार रामचरित
मानस को धर्म से जोड़कर मूल्यांकन किया और कबीर को क्रांतिकारी समाज सुधारक और
कुरीतियों पर प्रहार करनेवाले बताते रहे । यहां उनसे एक चूक हो गई। वो यह भूल गए
कि किसी कवि की कृति को अगर धर्मग्रंथ का दर्जा हासिल हो जाए तो वो महान हो जाता
है। आज रामचरित मानस की स्थिति क्या है, विचार करिए। लोग उसको मंदिरों में रखते
हैं, उसकी पूजा होती है, जन्म मरण के समय उसका परायण होता है। एक कवि के लिए इससे
बड़ी बात क्या हो सकती है। लेकिन वामपंथी बौद्धिकों को इससे घबराहट होने लगी और
उन्होंने तुलसीदास को उनके विचारों के आधार पर खारिज करने की लगातार मुहिम चलाई। लेकिन
तुलसीदास की कविताई में वो तेज है जिसने अपनी तमाम आलोचनाओं को अबतक धता बताते हुए
अपनी लोकव्याप्ति का दायारा और बढ़ाया है।
दरअसल अगर हम देखें तो तुलसीदास के सृजन का जो कालखंड
है उसमें भारतीय संस्कृति एक संक्रमण के दौर से गुजर रही थी । अपनी समृद्ध विरासत
और संस्कृति के प्रति लोगों की निष्ठा कमजोर हो रही थी या कह सकत हैं कि लगभग खत्म
सी होने लगी थी। एक के बाद एक लगातार हो रहे विदेशी आक्रमणों से देश जख्मी था। तुलसीदास
के सामने एक कवि के रूप में चुनौती थी कि वो जनता को अपने लोक से जोड़ने वाली कोई
रचना प्रस्तुत करें। यह अकारण नहीं है कि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की शुरुआत
सरस्वती और गणेश वंदना से की- ‘वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि/ मंगलानां च कर्त्तरौ वन्दे वाणीविनायकौ।‘ तुलसीदास
ने जब रामचरित मानस की रचना की तो उन्होंने एक आदर्श राज्य की अवधारणा को राम के
माध्यम से प्रस्तुत किया, जिसे रामराज्य कहा गया। राम का
चरित्र एक मर्यादा पुरुष के तौर पर पेश किया जहां वो न्याय के लिए किसी भी हद तक जा
सकता है। एक ऐसा राजा जिसकी प्राथमिकता में उसका राज्य उसके परिवार से पहले है।
पत्नी के तौर पर जब सीता का चरित्र चित्रण किया तो एक ऐसी आदर्श पत्नी के तौर पर
उसको अपनी रचना में पेश किया जो अपने पति के मान-सम्मान के लिए राजसी जीवन छोड़ने
में देर नहीं लगाती। लोकोपवाद के छींटे पति पर ना पड़ें इसके लिए अग्निपरीक्षा
देने को तैयार हो जाती है। पति के बनवास के वक्त उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलती
है। भाई हो तो लक्ष्मण और भरत जैसा जो
आदर्श हैं। और तो और दुश्मन भी बनाया तो रावण को जो उद्भट विद्वान और शिव का उपासक
था। तुलसीदास का जो समय था वो कबीर के समय से अलग था। तुलसीदास के सामने देश का
सांस्कृतिक संकट था और वो उससे अपनी लेखनी के माध्यम से उस संकट से मुठभेड़ कर रहे
थे। दूसरी तरफ कबीर समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार कर रहे थे । इस तरह से
देखें तो दोनों कवियों का निकष अलग था । तुलसीदास और कबीर की तुलना करने का उपक्रम
ही गलत इरादे से किया गया था।
अस्सी के दशक में राम मंदिर का जब आंदोलन परवान
चढ़ा तो हमारे वामपंथी आलोचक दिग्गजों ने राम को ही कठघरे में खड़ा करने की
कोशिशें शुरू कर दीं । उन्होंने ऐसा ताना बाना बुना कि लोक में अभिवादन का जो सबसे
लोकप्रिय तरीका था, राम-राम जी, उसको भी सांप्रदायिकता से जोड़ने की कोशिश की। यह
अनायास नहीं हो सकता है कि हर हर महादेव कहनेवाले, या राधे राधे कहने वाले, या फिर
जयश्री कृष्ण कहनेवाले सांप्रदायिक ना हों और जयश्री राम बोलनेवाले सांप्रदायिक
हों। जब इन लोगों ने राम को ही संदेहास्पद बनाने की कोशिश की तो उसकी आंच से
तुलसीदास भी बच ना सके। तुलसी को नीचा दिखाने के लिए इन लोगों ने कबीर का सहारा
लिया। लेकिन तुलसीदास के बारे में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पंक्तियां
ध्यातव्य हैं जिसे डॉ रामविलास शर्मा ने निराला की साहित्य साधना में लिखा है-
अंग्रेजी और बांग्ला के अनेक कवियों के नाम गिनाने के बाद एक दिन निराला बोले- ‘इन
सब बड़ेन क पढ़ित है तो ज्यू जरूर प्रसन्न होत है पर जब तुलसीदास क पढ़ित है तो
सबका अलग धरि देइत है। हमार स्वप्न इहै सदा रहा कि गंगा के किनारे नहाय के भीख
मांगिके रही और तुलसीदास कै पढ़ी।‘ महाप्राण निराला के यह
कहने के बाद क्या बचता है। क्या कभी किसी ने ये जानने की कोशिश की कि कबीर के
महिलाओँ के बारे में क्या विचार थे। अभी यह जानकारी आना शेष है। कबीर महिलाओं को
लेकर उतने क्रांतिकारी नहीं हैं जितने वो कुरीतियों के खिलाफ दिखते हैं। बावजूद
इसके कबीर की महानता पर कोई शक नहीं लेकिन संदेह तो तब होता है या सवाल तब उठता है
जब दो महान कवियों में से एक को सिर्फ इस आधार पर हाशिए पर डालने की कोशिश होती है
कि वो भारत को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने का काम करता है। हिंदी साहित्य में इस तरह
की बेइमानियां लंबे समय से चल रही हैं और इसने साहित्य का बड़ा नुकसान किया। जितनी
जल्दी इस प्रवृत्ति से छुटकारा मिल सकेगा उतनी जल्दी साहित्य का भला होना शुरू हो
जाएगा।