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Saturday, June 29, 2019

उदारवाद पर पुतीन का कठोर रुख


रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतीन ने उदारवाद को लेकर कई बेहद महत्वपूर्ण बातें की है। उन्होंने कहा है कि पूरी दुनिया से उदारवाद का दौर लगभग खत्म हो गया है। उनका मानना है कि उदारवादी विचार को जनता ने नकारना शुरू कर दिया है। उदारवाद की इस मजबूत पश्चिमी अवधारणा पर वामपंथी रूस की तरफ से ये अबतक का सबसे बड़ा हमला माना जा सकता है। पुतीन इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने आगे कहा कि अब वो दौर आ गया है कि उदारवादी किसी को भी किसी भी समय इस अवधारणा की आड़ में कुछ भी करने को मजबूर नहीं कर सकते हैं। पुतीन का मानना है कि पिछले कई दशकों के दौरान उदारवाद के नाम पर लोगों को तरह तरह के आदेश देकर सत्ता से अपने हिसाब से काम करवाया। रूस के सर्वोच्च नेता का मानना है कि हर अपराध की सजा तो होनी ही चाहिए। शरणार्थियों के नाम पर किसी देश में घुस आने वालों को शरणार्थी के अधिकार के नाम पर अपराध करने की छूट नहीं दी जा सकती है। बेहद बेबाक अंदाज में पुतीन ने कहा है कि उदारवाद के नाम पर अराजकता की इजाजत कतई नहीं दी जा सकती है। पुतीन का मानना है कि उदारवाद का सिद्धांत किसी भी देश के बहुमत के अधिकारों के खिलाफ जाता है, लिहाजा अब वो अर्थहीन हो चुका है। पुतीन ने अपने बयान के समर्थन में कई बातें भी कहीं उनमें से जो सबसे महत्वपूर्ण है वो ये कि उदारवाद के सिद्धांत को अपनाने वाली सरकारों ने अपनी जनता को भरोसा देने के बजाए सांस्कृतिक बहुलता और उदारता के नाम पर कई ऐसी बातों के मंजूरी दी जो बहुसंख्यक जनता के हितों के खिलाफ थीं। इस संबंध में उन्होंने लैंगिक स्वतंत्रता का उदाहरण दिया। उनका कहना था कि समलैंगिक लोगों को अपनी मर्जी से जीवन जीने का हक है, खुश रहने का अधिकार है लेकिन इसकी इजाजत देश के करोड़ों लोगों की पारंपरिक सांस्कृतिक और पारिवारिक संस्कारों को दांव पर लगाकर नहीं दी जा सकती है।
अब हमें इस बात को समझना होगा कि पुतीन ऐसा क्यों कह रहे हैं। एक वामपंथी देश का सर्वोच्च नेता उदारवादी सिद्धांत के खिलाफ क्यों है। ये वो वामपंथी देश है रूस है जो 1917 के आसपास से ये घोषणा करता आया है कि वो पूरी दुनिया की जनता को पूंजीवाद के शिकंजे से मुक्त करेगा और धरती पर स्वर्ग उतार देगा। पश्चिम में अधिनायकवाद की अवधारणा जोर पकड़ रही थी, जब जर्मनी में नाजी हिटलर बड़े-बड़े दावे करते हुए खुद को श्रेष्ठ बता रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उदारवाद की अवधारणा को आगे बढ़ाया गया, जिसको वामपंथियों ने भी अपनाया। भारत जब आजाद हुआ तो इस उदारवाद को यहां की बहुलतावादी संस्कृति से जोड़ दिया गया। ये तर्क दिए जाने लगे कि भारत की बहुलतावादी संस्कृति के लिए लिबरल यानि दूसरे के प्रति उदार होना चाहिए। जबतक हमारा देश मार्क्सवाद और समाजवाद के रोमांटिसिज्म में रहा देश में उदारवाद की आंधी चलती रही। लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है कि आंधी लंबे समय तक नहीं चल पाती और वो धीरे-धीरे स्थिर होने लगती है। उदारवाद की आंधी भी धीरे धीरे थमने लगी पर उदारवाद की बयार बहती रही। आजादी के बाद की ज्यादातर सरकारों ने उदारवाद की इस बयार को रोकने की कभी कोशिश नहीं की बल्कि जब भी ये हवा थोड़ी धीमी होती थी तो कृत्रिम तरीके से भी इसको ताकत देने कोशिश सरकारों द्वारा होती रही। कभी संस्थाओं के माध्यम से तो कभी व्यक्तियों के माध्यम से। लेकिन कृत्रिमता कभी भी प्राकृतिक स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकती है। हिंदी के मशहूर लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने लिखा है- चाहे कितने भी ट्यूबलाइट लगा दिए जाएं लेकिन वो सब मिलकर भी आकाशीय बिजली से निकलनेवाले प्रकाश की की बराबरी नहीं कर सकते हैं। उदारवाद के साथ भी यही हुआ।
भारत के परिप्रेक्ष्य में लिबरल या उदारवादियों के सिद्धांतों और तर्कों पर विचार करें तो पाते हैं कि वो बार-बार ये कहते हैं कि भारत विविध संस्कृतियों का देश है और हमें इस विविधता को संजो कर रखना चाहिए, इसका सम्मान करना चाहिए। भारत को विविध संस्कृतियों का देश कहते ही सबकुछ गड़बड़ाने लगता है क्योंकि भारत विविध संस्कृतियों का देश नहीं है उसकी संस्कृति एक है और विविधता उसका अनूठापन है। इसी अनूठेपन की वजह से भारतीय संस्कृति पूरी दुनिया में अलग स्थान रखती है। लंबे समय तक भारत को विभिन्न संस्कृतियों का देश कहा जाता रहा, अब भी कहा जाता है और इसके आधार पर ही बहुलता और विविधता को बचाने के लिए अलग अलग धर्मों के हितों की रक्षा की बात की जाती रही और उनको भारतीय संस्कृति से अलग करके देखा जाता रहा । अज्ञानतावश लोग भारत के हिंदू और मुसलमानों की संस्कृति को अलग-अलग करके देखते हैं। इस वजह से ही दोनों समुदायों के बीच वैमनस्यता बढ़ती चली गई। दोनों की एक ही संस्कृति है, भारतीय संस्कृति। पुतीन जब कहते हैं कि पिछले कई दशकों के दौरान उदारवाद के नाम पर लोगों को तरह-तरह के आदेश देकर सत्ता से अपने हिसाब से काम करवाया, तो गलत नहीं कहते हैं। इसकी बानगी आप भारत में भी देख सकते हैं। आप पिछले पचास सालों में पेश हुए बजट का विश्लेषण कर लें आपको ये बातें साफ तौर पर दिखाई देंगी की उदारवाद के नाम पर किस तरह से सत्ता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आदेश देकर अपना काम करवाती रही है। उदारतावाद की मीठी गोली देकर जनता को लंबे समय तक बरगलाया जाता रहा।
अगर याद करें तो 2015 के आसपास एक शब्द बहुत तेजी से राजनीतिक और साहित्यिक-सांस्कृतिक हलके में प्रचलित हुआ था। वो शब्द का असहिष्णुता। असहिष्णुता को इस तरह से प्रचारित किया जैसे वो हिंदुत्व का एक दुर्गुण हो। जबकि अगर सनातन धर्म के प्राचीन ग्रंथों को देखा जाए तो वहां सहिष्णुता और असहिष्णुता जैसी अवधारणा की उपस्थिति नगण्य है। लेकिन उदारवादियों ने इसको नगण्य उपस्थिति को भी केंद्र में ला दिया। नतीजा क्या हुआ पूरे देश में सहिष्णुता और असहिष्णुता को लेकर बहस छिड़ गई। एक ऐसी बहस जो ना केवल अर्थहीन थी बल्कि बाद में वो एक चुनावी दांव के तौर पर देखा गया। लिबरलिज्म या उदारवाद की अवधारणा को भारतीयों पर लादने की कोशिश की गई। भारत में इस तरह की अवधारणा के संकेत नहीं मिलते हैं। यहां तो समभाव की अवधारणा का उल्लेख मिलता है मतलब कि सबके साथ समान भाव से व्यवहार। उदारवादियों ने 2014 के बाद नरेन्द्र मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि वो लिबरल सरकार नहीं है। ये भी कहा गया कि सरकार में अनुवादरवादी शक्तियां प्रबल हैं, सरकार पर तानाशाही से लेकर फासिज्म तक के आरोप जड़े गए। चुनाव के पहले मैं हिंदू क्यों हूं से लेकर व्हाई आई एम अ लिबरल जैसी पुस्तकें लिखी गईं।इस तरह की जितनी भी किताबें लिखी गईं वो उदारवादी अवधारणा को पुष्ट करने के उद्देश्य से लिखी गई थीं। जबकि जरूरत इस बात की है कि भारतीय अवधारणाओं के बारे में लगातार बात करके, लिखित में उसकी व्याख्या करके उसको पुष्ट किया जाए। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का आधार इतना मजबूत है, इसकी अवधारणाएं इतनी स्पष्ट और व्यावहारिक हैं कि हमें किसी विदेशी अवधारणा को ना तो अपनाने की जरूरत है और ना ही उसको पोषित करने की। लेकिन दुर्भाग्य से मार्क्सवाद के रोमांटिसिज्म में हमारे देश ने वो दौर भी देखा जब ज्यादातर बुद्धिजीवी विदेशी अवधारणाओं के प्रभाव में चले गए। सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए भी विदेशी उद्धरणों का सहारा लिया जाने लगा। रूस और चीन का कम्युनिज्म हमारा आदर्श बन गया। लेकिन परिणाम क्या रहा। भारतीय संस्कृति पर आए विदेशी अवधारणाओं के बादल छंट गए दूसरी तरफ रूस और चीन में अधिनायकवादी ताकतें हावी हो गईं। दोनों जगह पर लोकतंत्र नहीं पनप सका। चीन में शी जिनफिंग आजीवन शासक बने रहेंगे और रूस में पुतीन भी कुछ उसी राह पर चलते नजर आते हैं। कभी प्रधानमंत्री बनकर शासन करते हैं तो कभी राष्ट्रपति बन जाते हैं लेकिन सत्ता की बागडोर अपने हाथ ही रखते हैं। तो कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो जो लोग पहले उदारवाद की वकालत कर रहे थे उनका उदारवाद से मोहभंग होने लगा है दूसरी तरफ भारत के साहचर्य और समभाव की अवधारणा एक बार फिर से पुष्ट होने लगी है। ये इस वजह से भी हो पा रहा है कि भारत में राजनीतिक परिवर्तन ने संस्कृति के क्षेत्र में भी बदलाव की शुरुआत कर दी है। मार्क्स और मार्क्सवाद की जगह पर अब भारत और भारतीयता की बात होने लगी है। भारतीय ज्ञान की समृद्धि के लिए यह शुभ संकेत है।  


Thursday, June 27, 2019

यौैन हिंसा के रास्ते सफलता!


शाहिद कपूर अभिनीत फिल्म कबीर सिंह ने रिलीज के छह दिनों बाद ही 120 करोड़ का बिजनेस कर बॉलीवुड को चौंका दिया है। जिस तरह से बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ उमड़ रही है उसको देखते हुए अब इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि ये फिल्म दो सप्ताह में 200 करोड़ का बिजनेस कर लेगी। एक तरफ तो फिल्म की सफलता को लेकर जश्न हो रहा है और दूसरी तरफ फिल्म के कंटेंट को लेकर बहस छिड़ी हुई है । कबीर सिंह तेलुगू फिल्म अर्जुन रेड्डी का हिंदी रीमेक है। तेलुुगूू फिल्म भी जबरदस्त हिट रही थी। इस फिल्म में शाहिद कपूर ने एक ऐसे शख्स की भूमिका निभाई है जिसको बहुत जल्दी गुस्सा आता है, वो कॉलेज में मार-पीट करता है। एक लड़की से जबरदस्ती अपने प्यार का सार्वजनिक एलान कर देता है। बाद में सर्जन बन जाता है तो भी उसकी इस तरह की हरकतें चालू रहती हैं। वो शराब पीकर और ड्रग्स के डोज लेकर ऑपरेशन करता है, सहकर्मियों के साथ छेड़खानी भी करता है, बहुधा सारी सीमाएं लांघ जाता है। महिलाओं के प्रति हर तरह की हिंसा उसके अंदर भरी हुई है और अपने व्यवहार से लेकर अपने काम-काज के दौरान इस हिंसा का सार्वजनिक प्रदर्शन भी करता है। बावजूद इसके हिंदी फिल्मों के दर्शक टूट कर फिल्म देखने जा रहे हैं। माना जा रहा है कि फिल्म उरी की सफलता के रिकॉर्ड को ये फिल्म तोड़ देगी।
अब जब हम हिंदी सिनेमा के दर्शकों की रुचि को देखते हैं तो एक बेहद अजीब तस्वीर नजर आती है। एक तरफ तो उरी और केसरी जैसी देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्में बॉक्स ऑफिस पर जोरदार कमाई करती है तो दूसरी तरफ कबीर सिंह जैसी फिल्म को भी दर्शक हाथों हाथ लेते हैं। महिलाओं के प्रति हिंसा में आनंद की प्रवृत्ति बहुधा रेखांकित की जाती रही है। चंद सालों पहले जब ई एल जेम्स की उपन्यास-त्रयी फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे आई थी तो उसकी विश्वव्यापी रिकॉर्डतोड़ बिक्री के पीछे की वजह भी यही आनंद की प्रवृत्ति थी। स्त्रियों के खिलाफ यौनिक हिंसा के विभिन्न रूपों के चित्रण ने उस उपन्यास-त्रयी को चर्चित तो किया ही, लेखिका को करोड़ों डॉलर की रॉयल्टी मिली थी। उस उपन्यास के फिल्म राइट्स को बेचकर भी लेखिका को अकूत धन मिला था। कबीर सिंह की सफलता के कई सूत्र तो फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे की सफलता में मिलते हैं। तब भी विभिन्न प्रकार के यौनिक हिंसा के वर्णन को पढ़ते हुए पाठकों को आनंद मिलने की बात कही गई थी। कबीर सिंह में भी कुछ लोग उसी तरह का आनंद देखते हैं। मनोविज्ञान में इस तरह के आनंद को सैडिस्टिक प्लेजर कहते हैं यानि परपीड़ा से मिलने वाला आनंद। और जब समाज में सामंती व्यवस्था के अवशेष मौजूद हों या सामंती मानसिकता गहरे तक धंसी हो तो सैडिस्टिक प्लेजर अलग अलग रूपों में निकलकर बाहर आता है। स्त्रियों के प्रति विद्वेष और उनको शारीरिक रूप से पीड़ित होते हुए देखना आनंद (सैडेस्टिक प्लेजर) से भर देता है। कबीर सिंह की सफलता भी आनंद के इन्हीं रूपों में से एक हो सकती है।

थ्रिलर के साथ लेखन की शुरुआत


सुप्रीम कोर्ट की मशहूर वकील, नई दिल्ली से दो बार निर्वाचित सांसद और एक क्राइम थ्रिलर, जिसमें प्रधानमंत्री की हत्या की बात हो। पाठकों के बीच उत्सुकता का वातावरण बनाने के लिए काफी है। किरदारों, परिस्थितियों और प्लॉट को लेकर जितनी उत्सकुता किसी क्राइम थ्रिलर में होती है, उतनी ही उत्सकुता नई दिल्ली से भारतीय जनता पार्टी की सांसद और सुप्रीम कोर्ट की वकील मीनाक्षी लेखी के पहले उपन्यास न्यू देल्ही कांसिपिरेसी को लेकर है। उत्सुकता इस बात को लेकर भी ज्यादा है कि ये क्राइम थ्रिलर एक पॉलिटिकल क्राइम थ्रिलर है जिसके केंद्र में प्रधानमंत्री की हत्या है। पुस्तक के बारे में प्रकाशक से जितनी जानकारी उपलब्ध हो पाई है उसके मुताबिक दिल्ली की सांसद वेदिका खन्ना के इर्द गिर्द पूरी कहानी चलती है। दिल्ली में एक दिन एक बड़े वैज्ञानिक को गोली मार दी जाती है और वो वैज्ञानिक मौत के पहले सांसद वेदिका को प्रधानमंत्री राघव मोहन की हत्या की योजना के बारे में बता देता है। प्रधानमंत्री की हत्या की योजना को सुनकर वेदिका के होश उड़ जाते हैं क्योंकि जो योजना बेहद संजीदगी से बनाई गई थी। अब उसके दिमाग में इस योजना को नाकाम करने का कीड़ा कुलबुलाने लगा था। उसने प्रधानमंत्री की हत्या की योजना के बारे में दिल्ली की रसूखदार पत्रकार रेया और साइबर विशेषज्ञ कार्तिक से इस बारे में बात की। कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है तो हत्या की योजना के सूत्र हांगकांग तक पहुंच जाते हैं। उसके बाद कहानी एक तिब्बती मॉनेस्ट्री तक पहुंचती है। प्रधान मंत्री की हत्या की योजना का केंद्रबिंदु यही तिब्बती मॉनेस्ट्री है। प्रधानमंत्री राघव मोहन की हत्या की योजना को बेनकाब करने के लिए वेदिका हर संभव कोशिश करती है लेकिन ना तो लेखिका ने और ना ही प्रकाशक की तरफ से इस बात की जानकारी दी गई है कि प्रधानमंत्री की हत्या की योजना नाकाम होती है या फिर उनकी हत्या कर दी जाती है। लेखिका ने कहा कि ये जानने के लिए पाठकों को इंतजार करना होगा कि सांसद वेदिका अपने दोस्तों के साथ मिलकर प्रधानमंत्री की हत्या की योजना को नाकाम कर पाती है या नहीं। इस किताब के सह लेखक कृष्ण कुमार हैं।
भारत में क्राइम फिक्शन कम ही लिखे जाते हैं। हिंदी में वेद प्रकाश शर्मा ने वर्दी वाला गुंडा लिखा था जो राजीव गांधी की हत्या की साजिश पर केंद्रित था। वेदप्रकाश शर्मा का वो उपन्यास जबरदस्त हिट रहा था। भारतीय प्रकाशन जगत में वेदप्रकाश शर्मा का ये उपन्यास एक घटना की तरह था। एक अनुमान के मुताबिक इसकी लाखों प्रतियां बिकी थीं। हिंदी के लेखक प्रभात रंजन का दावा है कि वेदप्रकाश शर्मा ने उनको एक साक्षात्कार में कहा था वर्दी वाला गुंडा की आठ करोड़ प्रतिया बिकी थीं। हो सकता है कि ये आंकड़ा अतिरंजित हो लेकिन उसकी लोकप्रियता में कोई संदह नहीं है। पिछले साल सीमा गोस्वामी का उपन्यास रेस कोर्स रोड छपकर आया था। पर ये राजनीतिक साजिशों पर था। प्रधानमंत्री की हत्या के बाद की घटनाओं पर केंद्रित था लेकिन इसमें भी ये सवाल बार बार उठता है कि प्रधानमंत्री की हत्या किसने की थी। नई दिल्ली की सांसद मीनाक्षी लेखी के उपन्यास में भी प्रधानमंत्री की हत्या की बात आती है। उत्सकुकता के इस माहौल में ये देखना दिलचस्प होगा कि पाठकों को मीनाक्षी का पहला प्रयास कितना भाता है।  
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अपने क्राइम थ्रिलर न्यू देल्ही कांसिपिरेसी को लेकर नई दिल्ली की सांसद मीनक्षी लेखी इन दिनों काफी चर्चा में हैं। अपने इस क्राइम थ्रिलर के प्लॉट, उसको लिखने की योजना आदि को लेकर उन्होंने मुझसे बात की ।
प्रश्न- आपको क्राइम थ्रिलर लिखने की बात दिमाग में कैसे आई?
मीनाक्षी- जब आप इस कृति को पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि इसमें सिर्फ क्राइम ही नहीं है, उससे आगे जाकर भी कई सारी बातें हैं। आपको मालूम है कि मैं वकील भी हूं और कई सारे क्रमिनिल केस किए हैं। वकालत में कई तरह के क्लू ढूंढने पड़ते हैं, इंवेस्टिगेशन देखने पड़ते हैं। कई व्हाइट कॉलर क्राइम भी होते हैं, उसको भी हमें देखना होता है। ये सब अवचेनन मन में चल ही रहा था। आप जब इस किताब को पढ़ेंगे तो इसमें आपको क्राइम के अलावा इंवेस्टीगेशन और धर्म का एंगल भी मिलेगा।
प्रश्न- आप कब से इसको लिख रही हैं।
मीनाक्षी- देखिए, इसको लिखने की बात तो दिमाग में तीन चार साल पहले आ गई थी। पहले सोचा था कि नॉन फिक्शन लिखूंगी। इस पर काफी दिनों तक मंथन चलता रहा। मित्रों से बातें भी हुई। फिर लगा कि अगर इसको नॉन फिक्शन की तरह लिखा जाएगा तो वो बोरिंग हो जाएगा। ये ऐसा प्लॉट है जिसको मसालेदार बनाने के लिए फिक्शनलाइज करना जरूरी लगा। फिर फिक्शन की तरह लिखा। इसको तो तीन चार महीने पहले ही प्रकाशित हो जाना था लेकिन चुनाव और अन्य व्यस्तताओं की वजह से टल गया था।  
प्रश्न- आपकी इस किताब की जो नायिका है वेदिका वो भी दिल्ली से सांसद है, आप भी नई दिल्ली से सांसद हैं। क्या इस किताब में आपके कुछ व्यक्तिगत अऩुभव भी हैं।
मीनाक्षी- बिल्कुल भी नहीं। मुझे तो एक काल्पनिक चरित्र गढ़ना था, वो मैंने गढ़ा। मेरी इस किताब की जो नायिका है उसमें और मेरे व्यक्तिगत जीवन में किसी तरह की कोई समानता नहीं है। वो एकदम ही कालपनिक है।
प्रश्न- क्या आप पहले से क्राइम फिक्शन पढ़ती रही हैं।
मीनाक्षी- एक उम्र में तो सब लोग क्राइम फिक्शन से लेकर हर तरह की किताबें पढ़ते हैं। पर जैसा कि मैंने आपको बताया कि मैंने वकालत के पेशे में भी इतने तरह के क्राइम केस देखे, उसके विविध पहलुओं पर काम किया, अध्ययन किया उसने भी मुझे इस पुस्तक को लिखने में मदद की।   

Saturday, June 22, 2019

विवाद के क्षितिज को छेकते अशोक


एक थे राजेन्द्र यादव। हिंदी में कहानियां लिखते थे। हंस पत्रिका के संपादक थे। नामवर सिंह उनको विवादाचार्य कहते थे। राजेन्द्र यादव को विवादों में मजा आता था। उनके पास खबरों में बने रहने की कला थी। वो तब दुखी होते थे जब बहुत दिनों तक उनका नाम मीडिया में नहीं उछलता था, अखबारों में नहीं छपता था। खबरों में बने रहने की उनकी ख्वाहिश पर बात होती थी तो तो वो हरिशंकर परसाईं का एक व्यंग्य सुनाया करते थे- एक नेता एक दिन अपने घर के बाहर तलवार लेकर खड़ा था। उसके परिवार वालों ने पूछा कि क्या हुआ? नेता जी बोले कि आज गला काटना है। अब परिवार वाले और पड़ोसी उनको रोकने लगे। वो इनसे यह कहते हुए छिटक कर भागे कि गला काट कर ही दम लूंगा। आगे-आगे नेताजी और उनको रोकने के लिए परिवारवाले और पड़ोसी। सब यही पूछ रहे थे कि गला क्यों काटना चाहते हैं? अगर किसी से कोई भूल-चूक हो गई है तो उसको सुधार लिया जाएगा। नेताजी रुके और बोले कि जिस गले में सप्ताहभर से कोई माला नहीं पहनाई गई हो उसको तो काट ही डालना चाहिए। किसी तरह समझा-बुझाकर नेताजी को रोका गया। यादव जी ये किस्सा सुनाकर कहते कि यार अगर सप्ताह भर से किसी लेखक का नाम अखबारों में नहीं छपा, किसी पत्रिका में उसकी साहित्यिक या गैर-साहित्यिक गतिविधियों के बारे में नहीं छपा तो लेखक को हिमालय पर चले जाना चाहिए। राजेंद्र यादव अपने जीते जी भी और मृत्यु क बाद भी विवादों में बने रहे, चर्चा के केंद्र में रहे। एक बार विवाद उठाने के चक्कर में बुरे फंसे थे जब उन्होंने भगवान हनुमान को पहला आतंकवादी बता दिया था। उनके खिलाफ प्रदर्शन आदि को देखते हुए दो सुरक्षाकर्मी लगा दिए गए थे। वो रात को भी उनके साथ ही रहते थे और उनके फ्लैट में ही बंदूक लेकर सोते थे। राजेन्द्र यादव जी जैसे स्वछंद जीवन जीने वाले के लिए ये सुरक्षाकर्मी स्थायी बाधा थे। उन्होंने मिन्नतें करके सुरक्षकर्मियों को हटवाया था।
यादव जी के निधन के बाद हिंदी साहित्य में विवाद कम हो गए। नानवर जी अलग तरीक़े से चर्चा में बने रहते थे वो किसी भी कृति को सदी की महानतम कृति बता देते थे या फिर कुछ ऐसा कह या कर देते थे जिससे विवाद हो जाता था। पर वो यादव जी से अपेक्षाकृत कम विवादों में रहते थे। इन दोनों से अलग रविंद्र कालिया अपने काम से विवाद उठाते थे। जिस भी पत्रिका का वो संपादन करते थे उसको संपदित करने के तौर तरीकों से विवाद खड़ा करते थे। एक पत्रिका में उन्होंने लेखकों का परिचय इस तरह से देना शुरू किया था जिससे विवाद हो गया था।पत्रिका चर्चित हो गई। अगले अंकों से परिचय लिखने का विवादित तरीका वापस लेना पड़ा। इसी तरह से युवा लेखन के नाम पर उन्होंने जितने लेखकों को छापा उनकी रचनाओं को लेकर भी सवाल उठे थे, बहसें हुई थीं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के तत्कालीन कुलपति विभूति नारायण राय के एक लेख के एक शब्द को लेकर भारी विवाद हुआ था। धरना प्रदर्शन भी हुए थे, कुलपति को मानव संसाधन विकास मंत्री ने तलब भी किया था। मामला राष्ट्रपति तक भी पहुँचा था।
इन तीन लेखकों के अलावा बचे अशोक वाजपेयी। 2014 के पहले अशोक जी को लेकर, उनके वक्तव्यों को लेकर भी काफी विवाद होते रहे, भारत भवन को लेकर भी उनके दंभ और बड़बोलेपन पर भी सवाल खड़े होते थे। दंभ इसलिए कि हिंदी के लेखकों को हवाई जहाज पर चढ़ाने की बात उन्होंने ही की थी। बाद के दिनों में अशोक वाजपेयी गलत वजहों से विवादों में रहे। 2014 के पहले तक अपने स्तंभ के ज़रिए छोटे-मोटे विवाद उठाते थे। जब तक राजेंद्र यादव, नामवर सिंह और रविंद्र कालिया जीवित रहे विवादों को हवा देने के मामले में अशोक वाजपेयी चौथे नंबर पर ही रहे। यादव जी, कालिया जी और नामवर जी के निधन के बाद हिंदी में अशोक वाजपेयी के कद का कोई लेखक बचा नहीं ना ही अशोक वाजपेयी जितना साधन संपन्न लेखक। तो अब वो विवादाचार्य के सिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए प्रयासरत हैं। अशोक वाजपेयी के पास रजा फाउंडेशन और सोबती-शिवनाथ फाउंडेशन की आर्थिक शक्ति है, लिहाजा कई वरिष्ठ और कनिष्ठ लेखक उनके इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं। एक कुशल राजनेता की तरह अशोक वाजपेयी को मालूम है कि किसको कितना और क्या देना है और बदले में क्या करवाना है। कुछ लोग तो बेवजह उनकी नजर में आने के लिए लाठी भांजते रहते हैं। 2014 के बाद अशोक वाजपेयी साहित्येतर कारणों और विवादों की वजह से चर्चा में रहे। 2015 में उन्होंने पुरस्कार वापसी अभियान की अगुवाई की है और उसके बाद सहिष्णुता- असहिष्णुता के मुद्दे पर सेमिनार और गोष्ठियों करके ख़ुद को चर्चा के केंद्र में बनाए रखा। एक ज़माने में अशोक वाजपेयी वामपंथियों के बेहद खिलाफ़ हुआ करते थे लेकिन नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान में वामपंथियों ने उनका साथ दिया या उन्होंने लिया यह कहना मुश्किल है। हलांकि मुझसे एक बातचीत में उन्होंने यह स्वीकार किया था कि वो वामपंथियों के साथ नहीं गए बल्कि वामपंथी उनकी छतरी के नीचे आए। अब मंगलेश डबराल और असल जैदी जैसे घोषित वामपंथियों को भी बात साफ करनी चाहिए कि किस विचार बिंदु पर वो और कलावादी अशोक वाजपेयी साथ हुए थे। 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान के वक्त कलावादी लेखक और वामपंथियों का जो अवसरवादी गठजोड़ बना था उससे भी साहित्यिक जगत में कोई आंदोलन खड़ा नहीं हो सका।
अभी अशोक वाजपेयी ने एक साहित्यिक पत्रिका को नामवर सिंह को केंद्र में रखकर एक इंटरव्यू दिया है। उसमें उन्होंने कई विवादित बातें कही हैं। एक बात फिर से उन्होंने दोहराई कि नामवर सिंह सत्ता को साधते नजर आते थे। उदाहरणों के साथ परोक्ष रूप से यह भी बताने की कोशिश की है कि नामवर सिंह का नेताओं के साथ उठना बैठना था और वो उनसे लाभ लेने की जुगत में रहते थे। अब ये बातें कहने की नैतिकता अशोक वाजपेयी में शेष नहीं है। नामवर जी से कम नेताओं के साथ उनके संबंध नहीं है। अर्जुन सिंह से लेकर नीतीश कुमार तक से। साहित्य जगत में यह बात सभी को मालूम है इसलिए उसको दोहराने का ना तो कोई अर्थ है ना ही औचित्य। बस तुलसीदास की पंक्ति याद की जा सकती है पर उपदेस कुसल बहुतेरे। अशोक वाजपेयी ने एक ऐसा प्रसंग उठाया है जिसपर हिंदी के लेखकों और कवियों को संवाद करना चाहिए। नामवर सिंह को याद करते हुए उन्होंने एक निजी बातचीत का हवाला दिया। अशोक जी ने कहा कि- कविता पर उनसे बात होती तो मैं पूछता कि आप हिंदी का सबसे बड़ा कवि किसे मानते हैं।उनका कहना था कि वो तुलसीदास को हिंदी जाति का सबसे बड़ा कवि मानते हैं। उनका आलोचकीय आकलन था कि कबीर भी बड़े कवि हैं पर तुलसी में भाषा की जैसी विविधता है, प्रसंगों की जैसी बहुलता और जीवन छवियां हैं वे कबीर में नहीं हैं। इसी प्रकार उन्होंने मुझसे पूछा था इस समय हिंदी के कौन सबसे अधिमूल्यित यानि ओवर एस्टिमेटेड पोएट हैं तो मैंने कहा था केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण। वे तुरन्त सहमत हुए थे। इस पोस्ट को पढ़ते हुए मेरे मन में ये प्रश्न उठा कि क्या अशोक जी ने ये बात पहले भी सार्वजनिक रूप से कहीं कही या लिखी है। कुछ लेखकों ने बताया कि वो पहले भी ऐसा कह चुके हैं लेकिन कईयों का कहना है कि अशोक वाजपेयी कुंवर नारायण के बारे में ऐसा पहले कहते नहीं सुने गए। दूसरी बात ये भी समझ नहीं आई कि नामवर सिंह केदरानाथ सिंह को एपने समय का ओवर एस्टिमेटेड कवि मानते थे। हो सकता है कि पहले इसपर चर्चा हुई हो पर ये चर्चा साहित्य के केंद्र में कभी पहुंची नहीं। याद भी नहीं पड़ता कि कभी अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ में इस तरह की चर्चा की हो। अभी वाग्देवी प्रकाशन बीकानेर से उनकी तीन पुस्तकें अपने समय में, समय के इर्द गिर्द और समय के सामने प्रकाशित हुई हैं। ये उनके अखबारी लेखन और तात्कालिक टिप्पणियों का संग्रह है। अशोक वाजपेयी ने एक पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि वो सच को खुली आंखों से देखकर कहने की हिम्मत रखता हूं। पर अपने सच पर सन्देह भी करता हूं। किसी की भी तानाशाही नहीं हो सकती, अपने सच की भी नहीं। उनको अपने सच के अलावा अपने लेखन पर भी संदेह करने की जरूरत है, उसको भी खुली आंखों से देखने की जरूरत है क्योंकि कई बार उनका लेखन या उऩका वचन मुंदी आंखों से लिखा या दिया प्रतीत होता है। जरूरत तो इस बात की भी है कि उनके सिपहसालार भी सच को खुली आंखों से देखें, आंखें मूंदकर नहीं।

Thursday, June 20, 2019

बदल गई है दिल्ली की संस्कृति


मीडिया के विभिन्न आयामों पर हिंदी में शोधपूर्ण लेखन कुमुद शर्मा की पहचान हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर और हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय की निदेशक कुमुद शर्मा ने स्त्री विमर्श को अपने तरीके से व्याख्यायित किया है। उनको भारतेन्दु हरिश्चद्र सम्मान, साहित्यश्री सम्मान समेत कई पुरस्कार मिल चुके हैं। दिल्ली की अपनी यादें मेरे साथ साझा की।

मैं 1981 में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से दिल्ली आई थी। दिल्ली के बारे में बात करने के पहले आपको एक दिलचस्प बात बताती हूं। प्रयागराज निवासी होने के बावजूद मैंने तय किया था कि मैं उस शहर के लड़के से शादी नहीं करूंगी। लेकिन जब आप प्रेम में पड़ते हैं तो सारी तय की गई चीजें धरी रह जाती हैं। मुझे भी प्रेम हुआ और प्रयाग के लड़के से ही हुआ, शादी भी उसी से कर ली। शादी करके हम दोनों दिल्ली आ गए। दिल्ली में मॉडल टाउन इलाके में रहने लगे। मैं 1981 के मई या जून में दिल्ली आई थी और नवंबर 1981 में मुझे जीसस एंड मेरी कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी मिल गई। मुझे मॉडल टाउन से बापू धाम हर रोज बस से आना पड़ता था। प्रयागराज में बस कल्चर था नहीं तो मेरे लिए ये नई बात थी। मेरे पति मुझे सिखाते कि कैसे रॉड पकड़कर बस में चढ़ो, कैसे उतरो आदि। कई बार तो वो बस स्टॉप तक इसलिए आते थे कि मुझे बस में चढ़ा दें। इतनी लंबी दूरी तय करना हर रोज संभव नहीं हो पा रहा था। 15 दिनों में ही मैंने वो नौकरी छोड़ दी थी। उस समय लेक्चरार को 1300 रु प्रतिमाह वेतन मिलता था। मुझ पीएचडी के लिए 900 रु प्रतिमाह स्कॉलरशिप मिलती थी। मैंने तय किया कि पीएचडी करूंगी। उस दौर में हमारे पास पैसे कम होते थे, मैंने अखबारों और पत्रिकाओँ में लिखना शुरू कर दिया था ताकि कुछ अतिरित आय हो सके। धीरे धीरे बस में चलने की आदत सी बन गई तो दिल्ली भाने लगी। तब बसों का किराया तीस पैसे से लेकर पचास पैसे तक हुआ करता था। मेरे पति मुझे दिल्ली दर्शन करवाने के लिए मुद्रिका बस पर बैठाकर निकलते थे। उस वक्त रिंग रोड पर मुद्रिका बस सेवा चला करती थी जो मॉडल टाउन से चलकर पूरी दिल्ली का चक्कर लगाकर वापस मॉडल टाउन तक आती थी। मुद्रिका में बैठे-बैठे हम दिल्ली दर्शन किया करते थे। मॉडल टाउन में उस दौर में काफी साहित्यकार और लेखक रहा करते थे। कवि अजित कुमार का घर हमारे लिए हमेशा खुला रहता था। कथाकार मन्नू भंडारी तब शक्तिनगर इलाके में रहती थीं और हमलोग उनके घऱ पहुंच जाते थे। पर हमारा अड्डा मंडी हाउस में जमता था। वहीं पास में त्रिवेणी कला संगम के कैंपस में बहुत सारे साहित्यकारों से मिलना हो जाता था। सप्ताह में एक दिन बंगाली मार्केट के नाथू स्वीट्स में बैठकी जमा करती थी, बैठकी का मकसद वहां का स्वादिष्ट खाना होता था। इसके अलावा वहां से दूरदर्शन कार्यालय पास में था। मैं सोचा करती थी कि दूरदर्शन में न्यूज रीडर बनूंगी। एक दिन हम लोग त्रिवेणी में बैठे गपबाजी कर रहे थे तो मैंने दूरदर्शन में काम करने की अपनी इच्छा जाहिर की। हमारे मित्रों ने कहा कि वहां मत जाना, वहां का माहौल खराब है। लेकिन मैं एक दिन वहां जा पहुंची । अखबारों और पत्रिकाओं में लिखे अपने लेखों की कटिंग आदि दिखाया। वहां हमें काम मिला, पहले एक कार्यक्रम में फिर पत्रिका कार्यक्रम में। कहीं किसी तरह की दिक्कत नहीं आई।
1983 में मैंने फिर से दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी कॉलेज ज्वाइन कर लिया था। इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है। मैं जब इंटरव्यू देने पंजाबी बाग पहुंची जहां ये कॉलेज था। किसी से कॉलेज का पता पूछा तो उसने बता दिया कि पास ही में है। वो पास ही में करीब तीन किलोमीटर दूर था। जब कॉलेज पहुंची तो इंटरव्यू का वक्त निकल गया था। किसी तरह से इंटरव्यू हुआ। एक साक्षात्कारकर्ता ने पूछा कि जब आप इंटरव्यू में ही लेट आ रही हैं तो नौकरी में समय पर कैसे आ पाएंगीं। मैंने गलत बस स्टॉप पर उतरने की बात बताकर अपनी जान बचाई।
आज अड़तीस साल बाद जब दिल्ली के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि दिल्ली ने हमसे संघर्ष बहुत करवाया लेकिन मेरे व्यक्तित्व को बहुत आयाम भी दिए। दिल्ली एक ऐसी जगह है जो कहीं से भी आए लोगों को बहुत कुछ देती है, हां बहुत मेहनत करवाने के बाद देती है। आज दिल्ली बहुत बदल गई है। यहां दिखावा बहुत बढ़ गया है, लोगों के पास अपने पड़ोसी या दूसरों के लिए वक्त ही नहीं है। पहले भी लोग व्यस्त होते थे लेकिन आज की तरह की संवेदनहीन व्यस्तता नहीं थी। करीब चार दशक तक दिल्ली मे रहने के बाद यह कह सकती हूं कि दिल्ली की संस्कृति बहुत बदल गई है।
(अनंत विजय से बातचीत पर आधारित)

Saturday, June 15, 2019

सकारात्मक के साथ सृजन का दौर


पिछले दिनों एक साहित्यिक जमावड़े में आज के लेखकों के आचार-व्यवहार पर चर्चा हो रही थी। बहस इस बात पर हो रही थी कि साहित्य में निंदा-रस का कितना स्थान होना चाहिए। साहित्यकारों के बीच होनेवाले गॉसिप से लेकर एक दूसरे को नीचा दिखाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी चर्चा होने लगी। वहां मौजूद सबलोग इस बात पर लगभग एकमत थे कि साहित्य में नकारात्मकता ने सृजनात्मकता का काफी नुकसान पहुंचाया। साहित् में नकारात्मकता को बढ़ावा देने के लिए फेसबुक को जिम्मेदार ठहरानेवाले भी मुखरता के साथ अपना पक्ष रख रहे थे। दरअसल ये हमेशा से होता आया है कि जब एक जगह कई साहित्यकार मिलते हैं तो गॉसिप और निंदा पुराण का दौर चलता ही है। साहित्यक जमावड़े में रसरंजन की तरह ये भी एक अनिवार्य तत्व है। कई लेखकों ने इस बारे में लिखा भी है लेकिन बहुत कुछ अलिखित रह गया है। हिंदी के मशहूर उपन्यासकार-नाटककार मोहन राकेश ने 19 जुलाई 1964 को अपनी डायरी में लिखा- कल शाम सी सी आई में चले गए, भारती, गिरधारी, राज और मैं। हम लोग पहले गए, राज बाद में आया। भारती के साथ ज्यादा साहित्यिक राजनीति की ही बातें होती रहीं। वात्स्यायन के बंबई आने का किस्सा, जो पहले बार-बार वे लोग सुना चुके हैं, वह फिर से सुनाने लगा, तो उसे याद दिला दिया कि यह माजरा नया नहीं है। ज्यादा बातें हुईं- दिल्ली के छुटभैयों के बारे में, टी-हाउस, कॉफी हाउस के बारे में, उन कहानीकारों के बारे में जिनसे वक्तव्य नहीं मंगवाए गए। उनके बारे में जिन्होंने वक्तव्य नहीं भेजे। एक मजाक हुआ। राज से गिरधारी ने कहा तुम्हारे मुंह से शराब की गंध आती है। तुम्हारे मुंह से तुलसीपत्र की गंध आती है राज ने उससे कहा और फिर बोला, और ये जो दो चले जा रहे हैं, उनके मुंह से प्रेमपत्र की गंध आती है। इसपर भारती रुककर बोला क्यों गलत बात कहते हो? राकेश के मुंह से तो हमेशा त्यागपत्र की गंध आती है। भारती मतलब धर्मभारती और वात्स्यायन माने अज्ञेय जी। मोहन राकेश की डायरी के इस अंश में कई तरह के संकेत निकल रहे हैं। पहली ही पंक्ति में कहा गया है कि सबसे ज्यादा बात साहित्यिक राजनीति की हुई। इसका मतलब है कि उस दौर में भी साहित्य में खूब राजनीति होती थी। जब राजनीति होगी तभी को बातें होगीं। फिर वात्स्यायन के मुंबई (उस वक्त का बंबई) आने का किस्सा भी फिर शुरू हुआ था। कोई ऐसा किस्सा जरूर रहा होगा जिसको साहित्यिक जमावड़े में बार-बार दोहराया जाता होगा। उस किस्से को इतनी बार दोहराया जा चुका था कि उस दिन उस किस्से को बीच में ही रोक दिया गया। अगर बार-बार दोहराया जाता होगा तो वो होगा भी दिलचस्प। मुंबई में बैठकर दिल्ली के लेखकों के बारे में भी बातें होती रही थीं। जाहिर सी बात है कि जिस अंदाज में उस प्रसंग को लिखा गया है उससे इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि या तो निंदा पुराण का पाठ हुआ होगा या फिर जमकर गॉसिप।
इसके अलावा एक और चीज जो लेखकों के बीच देखने को मिलती थी वो थी ईर्ष्या। इसके बारे में तो सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं लेकिन मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव का उदाहरण देना इस वजह से उचित लगता है कि ये दोनों काफी गहरे मित्र भी थे। हिंदी की नई कहानी त्रयी के दो मजबूत स्तंभ थे। तीसरे कमलेश्वर थे। मोहन राकेश को जब अगस्त, 1959 में उनके नाटक आषाढ़ का एक दिन के लिए संगीत नाटक अकादमी की ओर से सर्वश्रेष्ठ नाटक का अवॉर्ड देने की घोषणा हुई तो मोहन राकेश ने लिखा कि यादव का व्यवहार फिर कुछ अजीब सा लगा। न जाने क्यों मुझे छोटा बतलाकर या समझकर उसे खुशी होती है।मोहन राकेश साफ-साफ कह रहे हैं कि उनके पुरस्कार मिलने से राजेन्द्र यादव को अच्छा नहीं लगा। बात सिर्फ यादव और राकेश की नहीं है। उपेन्द्र नाथ अश्क और महादेवी के बीच जिस तरह का शीतयुद्ध चलता था वो जगजाहिर है। दिनकर ने भी अपनी डायरी में एक समकालीन कवि-सांसद के ईर्ष्या भाव को उजागर किया ही है। बावजूद इन सबके उस दौर में ज्यादातर रचनाकर अपने समकालीनों पर लिखते भी थे, उनकी अच्छी रचनाओं की तारीफ भी करते थे। राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर के बीच चाहे जितनी ईर्ष्या रही हो लेकिन वो तीनों एक दूसरे को काफी प्रमोट करते थे। एक दूसरे के बारे में ग़ॉसिप भी करते थे लेकिन सार्वजनिक मंचों पर एक दूसरे की तारीफ करते थे, लेख लिखकर एक दूसरे की रचनाओं को स्थापित करते थे।
उस वक्त के साहित्यिक माहौल और अब के साहित्यिक माहौल में थोड़ा अंतर आ गया है। ईर्ष्या अब भी है, निंदा-पुराण का पाठ अब भी होता है, लेकिन सार्वजनिक रूप से अपने समकालीनों की तारीफ करने की प्रवृत्ति का ह्रास हुआ है। आज के ज्यादातर लेखक-लेखिकाओं में अपने समकालीनों को लेकर एक अजीब किस्म का भाव देखने को मिलता है जिसका फेसबुक पर बहुधा प्रकटीकरण भी हो जाता है। इसके अलावा गॉसिप में एक आवश्यक दुर्गुण चरित्र हनन का शामिल हो गया है जो कि चिंताजनक है। अगर हम इस पर गंभीरता से विचार करें तो इस तरह की प्रवृत्ति पिछले दस साल में ज्यादा बढ़ी है। आज से दस-पंद्रह साल पहले लेखन की दुनिया में आए रचनाकारों के साथ तकनीक की घुसपैठ भी साहित्य में बढ़ी। फेसबुक साहित्यकारों के बीच लोकप्रिय हुआ। वैसे लेखक जो फेसबुक को एक बुराई के तौर पर देखते थे अब दिनभर वहीं पाए जाने लगे। फेसबुक ने कई लेखकों को अहंकारी बना दिया। उनकी रचनाओं पर सौ पचास लाइक्स और कमेंट आने से वो खुद को प्रेमचंद या मन्नू भंडारी समझने लगे। बढ़ते अहंकार ने उनकी रचनात्मकता को प्रभावित किया। कुछ वाकए तो ऐसे भी सामने आए जिनमें लेखकों या लेखिकाओं ने अपने समकालीन लेखक या लेखिका के चरित्र पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कीचड़ उछाला। फेक आईडी के आधार पर एक दूसरे को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई। फेसबुक ने निंदा-पुराण और गॉसिप के तंत्र को विकसित होने के लिए एक ऐसा मंच दिया जो बेहद उर्वर साबित हुआ। यहां मोहल्ले के छुटभैये दादाओं की तरह साहित्यिक गिरोह बने, उनके सरगना बने और फिर अपने साथियों को निबटाने का खेल खेला गया। अब भी खेला जा रहा है, यह स्थिति साहित्य सृजन के लिए बेहतर नहीं कही जा सकती है। फेसबुक की व्यापक पहुंच की वजह से इस तरह के गिरोहों का आतंक भी बढ़ा। 
अब अगर हम एकदम नई पीढ़ी की बात करें तो उसमें एक खास किस्म की सकारात्मकता दिखाई देती है। सत्य व्यास, दिव्य प्रकाश दूबे, अंकिता, विजयश्री तनवीर की नई वाली हिंदी की टोली से लेकर खुद को गंभीर लेखन की परंपरा के मानने वाले प्रवीण कुमार, उमाशंकर चौधरी जैसे लेखकों के सार्वजनिक व्यवहार से साहित्य में सकारात्मकता का एहसास होता है। ये सभी लोग फेसबुक पर सक्रिय हैं लेकिन वहां एक दूसरे की रचनाओं पर खुश होकर टिप्पणियां करते हैं, चर्चा करते हैं। नई वाली हिंदी की जो टोली सोशल मीडिया पर है वो आपस में खूब चुहलबाजी करती है, मजाक मजाक में ही अपनी और अपनी पीढ़ी के अन्य लेखकों की कृतियों का प्रमोशन भी करती चलती है। इस टोली के किसी सदस्य को कभी नकारात्मक टिप्पणी करते हुए नहीं देखा गया है। यही इस पीढ़ी की ताकत है और इनको अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से अलग भी करती है। इसी वजह से उनकी व्यापक स्वीकार्यता भी है, ऐसा प्रतीत होता है। इनका एक अपना पाठक वर्ग बना है जो इनके नाम से पुस्तकों की खरीद करता है। पाठकों को इन लेखकों की साहित्येतर टिप्पणियों में जो सृजनात्मकता देखने को मिलती है उसके आधार पर ही वो इनकी कृतियों तक जाने का मन बनाते हैं। नई वाली हिंदी की इस पीढ़ी के ठीक पहले वाली पीढ़ी के कई लेखकों ने नकारात्मकता को अपनी पहचान बनाई। उसकी वजह से पूरी पीढ़ी को नुकसान हुआ। फेसबुक पर हमेशा नकारात्मक बातें, सिद्धांत और विचारधारा की आड़ में गाली-गलौच उनकी पहचान बन गई। उनके व्यक्तित्व के साथ वो नकारात्मक पहचान चिपक गई। अब इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि उदारीकरण के स्थायित्व प्राप्त कर लेने के बाद साहित्य में इस तरह की नकारात्मकता क्यों बढ़ी और फिर उसके बाद की जो पीढ़ी आई उसने खुद को सकारात्मकता के सांचे में डालकर पाठकों के बीच लोकप्रियता हासिल की। हिंदी साहित्य के अध्येताओं के लिए इसके कारणों की तलाश करनी चाहिए। क्या पता कुछ दिलचस्प निष्कर्ष निकल आए।  


हुस्न और सुर का संगम सुरैया


सुरैया, भारतीय सिनेमा का एक ऐसा नाम है जिसने अपने हुस्न और गायकी से पूरे मुल्क को चकाचौंध कर दिया। उनके जैसा दूसरा कोई हुआ नहीं। गायिका-अभिनेत्री सुरैया का जलवा ऐसा कि फिल्मों में होना मतलब सफलता की गारंटी। सुरैया बाल-कलाकार के तौर पर फिल्मों में आईं लेकिन समय के साथ जब नायिका की भूमिका निभानी शुरू कीं तो फिर तो पृथ्वीराज कपूर से लेकर सहगल साहब के साथ काम करने लगीं। पृथ्वीराज कपूर को सुरैया पापाजी कहती थी और उनसे डरती भी बहुत थी। एक के बाद एक दर्जनभर हिट फिल्में सुरैया के नाम हैं।   सुरैया के अभिनय और गायिकी के कॉकटेल का जादू भारतीय दर्शकों के होश उड़ा देता था। जहां से वो निकल जाती थीं तो ट्रैफिक जाम हो जाता था। मुंबई के मरीन ड्राइव के उनके घर के बाहर हर रोज तमाशा होता था। क्या फिल्म प्रोड्यूसर, क्या डायरेक्टर, क्या अभिनेता सभी सुरैया पर जान छिड़कते थे। एक समय तो ऐसा आया कि एक शख्स सुरैया के घर के बाहर प्रणय निवेदन करते हुए धरने पर बैठ गया। पुलिस कार्रवाई में बेचारे आशिक को वहां से रुखसत होना पड़ा। इसी तरह एक बार बेहद दिलचस्प वाकया तब हुआ जब सुरैया और उसकी मां अपने फ्लैट में थी। अचानक फ्लैट के बार जोर-जोर से बैंड बजने की आवाज आने लगी। धीरे धीरे बैंड का शोर बढ़ता ही चला गया। सुरैया और उसकी मां को आनेवाले खतरे का अंदाजा नहीं था। जब बैंड का शोर काफी बढ़ गया तो सुरैया की मां ने अपने फ्लैट का दरवाजा खोला तो उनके ही दरवाजे पर बैंड बज रहा था और एक शख्स दूल्हे की पोशाक पहनकर सामने खड़ा था। सुरैया की मां ने जब उससे पूछा कि क्या बात है तो उसने कहा कि वो सुरैया से शादी करने के लिए पूरी बारात लेकर जालंधर से यहां आया है। जब तक उसकी मां कुछ समझ पाती तबतक दूल्हा पूरी बारात समेत उनके फ्लैट में दाखिल हो गया। बाराती और दूल्हा सुरैया से शादी रचाने पर जोर डालने लगे। इस बीच सुरैया ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया था। सुरैया की मां के लाख समझाने के बाद भी जालंधर वाले टस से मस नहीं हो रहे थे। वो चीखने चिल्लाने लगे थे कि इतने महंगे गहने बनवा कर लाए हैं, इतनी साडियां लेकर आए हैं, बारात पर इतना खर्च किया है बगैर शादी के वापस नहीं जाएंगे। सारे गहने बक्से से निकालकर उन्होंने सुरैया की मां के सामने रख दिया। लाखों के गहने और साडियां। इस बीच कुछ बाराती बदतमीजी पर उतारू होने लगे तो सुरैया कि मां ने पुलिस को बुला लिया। पुलिस ने लाठी डंडा मारकर सबको बाहर निकाला और दूल्हा बेचारा सारे गहने आदि समेट कर वापस जालंधर चला गया। लेकिन सबसे दिलचस्प रही थानेदार की टिप्पणी। उसने जाते-जाते सुरैया की मां से कहा कि पता नहीं आप लोग क्या करते हो कि कभी कोई खुदकुशी करने चला आता है तो कभी कोई शादी के लिए धरने पर बैठ जाता है तो कभी बारात लेकर घर में घुस आता है। जाते जाते चेता भी गया कि अब आगे से कुछ करना मत।
सुरैया ने गाने की कोई औपचारिक ट्रेनिंग कभी नहीं ली थी। समय की मांग ने उनको गायिका बना दिया था। जब नर्गिस लोकप्रिय होने लगीं तो सुरैया का सिंहासन डोला, फिर कामिनी कौशल और निम्मी से सुरैया को टक्कर मिली। इसी दौर में मधुबाला का भी फिल्मों में पदार्पण हुआ। एक साथ इन नायिकाओं की फौज ने सुरैया की सल्तनत को चुनौती दी थी। सुरैया और देवानंद के प्रेम पर बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है लेकिन लाहौर से मुंबई आई इस अभिनेत्री ने फिल्म इंडस्ट्री पर अपनी शर्तों पर राज किया और फिर अपनी ही शर्तों पर इससे अलग भी हो गईं।

Friday, June 14, 2019

कुल जमा ढाई फिल्म लेकिन निर्देशक कालजयी


सिर्फ ढाई फिल्म का निर्देशन और महान निर्देशक के रूप में पहचान, ढाई इस वजह से कि दो फिल्में उनके जीवनकाल में रिलीज हुई और एक फिल्म उनके निधन के बाद। नाम करीमुद्दीन आसिफ, जिसे लोग के आसिफ के नाम से जानते हैं और उनकी अनमोल कृति है मुगल-ए-आजम। के आसिफ ने दो फिल्में निर्देशित की। उनकी पहली फिल्म थीं फूल जो 1945 में रिलीज हुईं। दूसरी फिल्म थी मुगल-ए-आजम जो 1960 में रिलीज हुई। एक और फिल्म का निर्देशन वो कर रहे थे लव एंड गॉडजो उनके जीवन काल में पूरी नहीं हो सकी। ये फिल्म उनके निधन के बाद रिलीज हुई। मुगल-ए-आजम को बनाने में के आसिफ साहब को एक दशक से अधिक वक्त लगा था। पहले वो चंद्रमोहन सप्रू और नर्गिस को लेकर मुगल-ए-आजम बनाना चाहते थे जो बन नहीं पाई। लेकिन ये कहानी उनके मन में कुलबुलाती रही, उसपर फिल्म बनाने को लेकर वो बेचैन रहते थे. मुगल-ए-आजम को बेहद भव्य तरीके से बनाना चाहते थे, उसके सेट से लेकर गीत और संगीत पर भी वो कुछ अनूठा करना चाहते थे, कुछ ऐसा जो कालजयी हो। इसी सोच के तहत उन्होंने दिलीप कुमार और मधुबाला को लेकर फिल्म बनाने का फैसला किया। के आसिफ ने जब नए सिरे से फिल्म बनाने का फैसला किया तो अपनी पुरानी योजना का सबकुछ बदल दिया। एक दिन वो नौशाद साहब के पास पहुंचे और कहा कि आपको मुगल-ए-आजम का संगीत देना है। नौशाद साहब उन दिनों उड़न खटोला फिल्म के म्यूजिक पर काम कर रहे थे। उन्होंने के आसिफ को अपनी व्यस्तता का हवाला देते हुए मना कर दिया। नौशाद साहब के मन में कहीं ना कहीं ये बात चल रही थी कि के आसिफ ने अनिल बिस्वास को म्यूजिक के लिए साइन कर रखा है तो उनको उन्हीं से करवाना चाहिए। बातचीत के बीच अचानक के आसिफ ने अपने पॉकेट से एक लाख रुपए की गड्डी निकाली और नौशाद साहब के होरमोनियम पर रख दिया। फिर बोले कि फिल्म का म्यूजिक तो आपको ही देना होगा और ये रहा आपका एडवांस। नौशाद साहब बिगड़ गए और उन्होंने साफ शब्दों में के आसिफ को बोल दिया कि सबकुछ पैसे से नहीं खरीदी जा सकती। अपना पैसा उठाइए मैं इस फिल्म के लिए काम नहीं कर पाऊंगा। आसिफ साहब डटे थे, बोले करना तो आपको ही है ये फिल्म, अगर आपको अधिक पैसे चाहिए तो बताइए। नौशाद इसको सुनकर बिफर गए। नौशाद ने इस वाकए को बयान करते हुए लिखा है कि जब पैसे की बात पर आसिफ साहब डट गए तो उन्होंने एक लाख की गड्डी उठाई और उसको अपने कमरे से बाहर छत पर फेंक दिया। ये सब देखकर भी के आसिफ को कोई फर्क नहीं पड़ा और वो मुस्कुराते रहे। इस बीच नौशाद का नौकर उन दोनों के लिए चाय लेकर छत पर आया। उसने वहां नोटों को उड़ते देखा। वो फौरन भागकर नीचे गया और नौशाद की पत्नी को बताया कि पूरी छत पर नोट बिखरे हैं। नौशाद की पत्नी के कहा कि फिल्मों में शूटिंग के लिए नकली नोट मंगवाएं होंगे वही बिखर गए होंगे। नौकर ने जब जोर देकर अपनी मालकिन को कहा कि असली नोट बिखरे हुए हैं तो वो नीचे से छत पर देखने आईं। वहां तो असली नोट पूरी छत पर बिखरे हुए थे। नौशाद साहब गुस्से में लाल पीले हो रहे थे और के आसिफ खड़े खड़े मुस्कुरा रहे थे। नौशाद साहब  की पत्नी ने जब नोट बिखरने के बारे में जानना चाहा तो मुस्कुराते हुए आसिफ ने कहा कि अपने पति से पूछिए। खफा नौशाद बोले कि ये पैसे आसिफ मुगल-ए-आजम में काम करने के लिए एडवांस के तौर पर देने आए थे। मेरे मना करने पर भी जब नहीं माने तो मैंने फेंक दिए। इस बीच नौशाद साहब की पत्नी छत पर बिखरे नोटों को समेटने लगी थीं। तब के आसिफ ने मनुहार करते हुए कहा कि जिद छोड़िए, आपको ही ये फिल्म करनी है। मुगल-ए-आजम में संगीत आप ही देंगे। नौशाद को तबतक बात समझ में आ गई थी कि आसिफ मानेगा नहीं। उन्होंने हंसते हुए कहा कि अपने पैसे ले जाइए, मैं आपकी फिल्म करूंगा।फिल्म पूरी होने तक यानि दस सालों तक कभी नौशाद साहब ने पैसे नहीं मांगे। फिल्म खत्म होने के बाद के आसिफ ने नौशाद को पैसे दिए।
ऐसा ही एक और वाकया हुआ। एक दिन के आसिफ ने नौशाद से कहा कि वो फिल्म में एक सीन डालना चाहते हैं जिसमें तानसेन मंडप में बैठकर गा रहे हों। नौशाद ने कहा कि वो धुन तो बना देंगे लेकिन गाएगा कौन। आसिफ ने उनसे पूछा तो नौशाद ने बड़े गुलाम अली खान का नाम लिया। तय किया और दोनों जा पहुंचे बड़े गुलाम अली खान के पास। के आसिफ ने उनसे मुगल-ए-आजम के बारे में बताया और कहा कि वो उनसे इस फिल्म में गवाना चाहते हैं। बड़े गुलाम अली खान साहब ने अपने अंदाज में कहा कि नौशाद मियां, मैं फिल्मों में नहीं गाता। कोई संगीत सम्मेलन हो तो मुझे आमंत्रित करिएगा मैं अवश्य आऊंगा। फिल्म वाले बहुत तरीके की पाबंदियां लगाते हैं जो मुझे मंजूर महीं। नौशाद कुछ बोल पाते इसके पहले ही के आसिफ बोल पड़े, खान साहब ये गाना तो आप ही गाएंगे। अब चौंकने की बारी खान साहब की थी। उन्होंन नौशाद से पूछा कि ये साहब कौन हैं। नौशाद ने बताया कि ये के आसिफ हैं जो मुगल-ए-आजम बना रहे हैं। खान साहब ने कहा कि मियां, ये तो बड़े अजीब आदमी हैं, मैं मना कर रहा हूं और ये जनाब हैं कि कह रहे हैं कि गाएंगे तो आप ही। ये सुनकर आसिफ ने फिर कहा कि जी, खान साहब, ये गाएंगे तो आप ही, चाहे आप जितना पैसा लें, हम देने को तैयार हैं। खान साहब ने फिर कहा कि वो नहीं गा सकते। के आसिफ डटे रहे और फिर बोले कि गाना तो आपको पड़ेगा। नौशाद बीच में फंसे थे। खान साहब नौशाद को लेकर बाहर निकले और बोले कि ये पैसे की बात कर रहा है, मैं इसको इतना पैसा बताता हूं कि ये अभी भाग जाएगा। इस बीच नौशाद ने भी खान साहब को मनाने की कोशिश की लेकिन वो नहीं माने। खैर दोनों वापस कमरे में लौटे जहां के आसिफ बैठे-बैठे मुस्कुरा रहे थे। खान साहब ने उनसे पूछा कि अच्छा तो जनाब आप मुझे मुंहमांगी रकम देने को तैयार हैं । के आसिफ ने कहा जी बिल्कुल। खान साहब बोले कि वो एक गाने के लिए पच्चीस हजार रुपए लेंगे। के आसिफ ने कहा कि बस! पच्चीस हजार और बहात मान ली। अब खान साहब के सामने और कोई विकल्प था नहीं। बाद की बातें इतिहास है। इस तरह प्रेम जोगन बन के में बड़े गुलाम खान साहब की आवाज का जादू पिरोया गया। ये वो जमाना था जब बेहतरीन गायकों को भी फिल्मों में एक गाने के लिए तीन सौ से हजार रुपए तक फीस मिला करती थी। आज ही के दिन के आसिफ जैसा फिल्म निर्देशक इस धरती पर आया था। उनकी स्मृति को नमन।     

Saturday, June 8, 2019

सलमान खान का अपना ‘भारत’


अभिनेता सलमान खान ने गुरूवार को एक ट्वीट किया- सबको बहुत धन्यवाद, मेरे करियर का सबसे बड़ा ओपनिंग देने के लिए, पर मुझे जिस पल सबसे ज्यादा खुशी मिली या मैं जब सबसे अधिक गौरवान्वित हुआ वह क्षण था जब मेरी फिल्म में राष्ट्रगान बजा और मैं उसके सम्मान में खड़ा हो गया। अपने देश के लिए इससे बड़ा सम्मान क्या हो सकता है। जय हिंद और हैश टैग के साथ भारत। सलमान खान अपनी नई फिल्म भारत की बात कर रहे थे। अबतक सलमान के इस ट्वीट को एक लाख से ज्यादा लोग लाइक कर चुके हैं और ये बारह हजार से ज्यादा रिट्वीट हो चुका है। दरअसल ये ट्वीट सलमान खान ने बुधवार को रिलीज हुई अपनी फिल्म भारत को मिली बंपर ओपनिंग से खुश होकर किया था। इस फिल्म ने पहले ही दिन 42 करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया। ईद का दिन भी था। ये सलमान की अबतक की किसी भी फिल्म की ओपनिंग की कमाई से अधिक है। इसके पहले 2015 की दीवाली पर आई सलमान की फिल्म प्रेम रतन धन पायो को 39 करोड़ 32 लाख रुपए की ओपनिंग मिली थी जो अबतक उनके फिल्मी करियर की सबसे बड़ी ओपनिंग थी। ट्रेड एनालिस्ट तरण आदर्श के मुताबिक अबतक सलमान की ईद पर रिलीज होनेवाली फिल्मों में सबसे बड़ी ओपनिंग फिल्म सुल्तान को मिली थी, जिसने पहले दिन 36 करोड़ 54 लाख रुपए का बिजनेस किया था । सलमान की फिल्म भारत को ये रिकॉर्डतोड़ सफलता तो तब मिली जब पहले ही दिन ज्यादातर फिल्म समीक्षकों ने इस फिल्म को कमजोर करार दिया था। कोरियाई फिल्म ओड टू माई फादर के आधार पर भारत पाक विभाजन की थीम पर बनी इस फिल्म को समीक्षकों ने कमजोर तक करार दे दिया। सलमान की ये फिल्म, क्रिटिक कैटेगरी में भले ही अच्छा नहीं कर पाई पर पॉपुलर कैटेगरी में तो उसने बंपर सफलता हासिल की। तीन दिन में इस फिल्म ने 95 करोड़ से अधिक का बिजनेस कर लिया और उम्मीद जताई जा रही है कि रविवार को फिल्म भारत सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो जाएगी। अगर ऐसा होता है तो ये सलमान की चौदहवीं फिल्म होगी जो सौ करोड़ से अधिक का बिजनेस करेगी। एक के बाद एक लगातार सफल फिल्में देकर सलमान खान ने साबित कर दिया है कि लोगों पर उनका जादू बरकरार है। अब ये देखना होगा कि किस वजह से सलमान खान का जादू दर्शकों के सर चढ़कर बोल रहा है। एक तरफ शाहरुख खान हैं जो ढलती उम्र के साथ एक अदद सफलता की तलाश में हर तरह की फिल्में करने का जोखिम उठाते जा रहे हैं, पर सफलता है कि उनके हाथ नहीं लग रही है। आमिर खान की फिल्म ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान औंधे मुंह गिरी है। ऐसे में सलमान की फिल्मों की बंपर सफलता के मायने क्या है, क्यों लोग सलमान भाई को पसंद कर रहे हैं। पिछले दो सालों में ईद के मौकों पर रिलीज सलमान की फिल्म ट्यूबलाइट और रेस-3 ने औसत बिजनेस किया था, उसके बाद से ये कहा जाने लगा था सलमान खान के दिन अब लद गए। लेकिन भारतने सलमान के बारे में बन रही इस अवधारणा का निषेध कर दिया है।  
सलमान खान की फिल्मों की सफलता का कारक उनकी ऑन स्क्रीन और ऑफ स्क्रीन छवि दोनों का समुच्चय है। सबसे पहले अगर हम सलमान खान की ऑन स्क्रीन छवि की बात करें तो फिल्म डर्टी पिक्चर की नायिका विद्या बालन का उसी फिल्म का एक संवाद याद आता है। एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, और एंटरटेनमेंट। सलमान खान की फिल्में भी शुरू से लेकर आखिर तक एंटरटेनमेंट ही होती हैं। इनकी फिल्मों में किसिंग सीन नहीं होते, बेड सीन नहीं होता यानि कि एक साफ सुथरी फिल्म जिसको आप पूरे परिवार के साथ बैठकर देख सकते हैं। फिल्म भारत में दिशा पटनी एक डांस सीक्वेंस में अचानक आकर सलमान खान के गाल पर किस कर लेती हैं जिसको सलमान की फिल्म में किसिंग सीन कहकर प्रचारित किया गया । लेकिन फिल्म में जब दर्शक वो गाना देख रहे होते हैं तो ये सीन कब आकर कब निकल जाता है, पता भी नहीं चलता। ना तो किसिंग सीन है और ना ही दर्शकों को उस सीन को दिखाने का कोई मकसद। बहुत ही नैचुरल तरीके से डांस सीक्वेंस में वो सीन आता है और एक सेंकेंड से भी कम समय में चला जाता है। इसके अलावा अगर हम देखें तो अपनी ज्यादातर फिल्मों में सलमान एक नायक के तौर पर किसी ना किसी परिवार के साथ खड़ा दिखता है। किसी परिवार को बचाते हुए दिखता है। किसी परिवार पर आई मुसीबत से उनको बचाने की कोशिश करता दिखता है। किसी परिवार के किसी सदस्य को गंभीर बीमारी से बचाने में जुटा होता है। सलमान की फिल्मों की कहानियों में परिवार की एक अंतर्धारा रहती है जो जो शुरू से लेकर अंत तक फिल्म में चलती रहती है। चाहे वो फिल्म वांटेड हो, फिल्म सुल्तान हो, फिल्म दबंग या किक हो, सभी फिल्मों में आपको परिवार को बचाने या उसके जोड़ने की एक धारा दिखाई देती है। इसलिए जब दर्शक फिल्म को देख रहा होता है तो फिल्म की इस पारिवारिक अंतर्धारा से खुद का जुड़ाव महसूस करता है। यही जुड़ाव दर्शकों को बार-बार सलमान की फिल्म देखने के लिए हॉल तक खींच लाता है। सलमान खान की फिल्मों में हिंसा होती है, लेकिन वो जुगुप्साजनक नहीं होती है। मार-पीट, खून खराबा सब होता है लेकिन जिस तरह की हिंसा हाल के दिनों में कुछ फिल्मों और वेब सीरीज में दिखाई जाती है वो यहां नहीं होती है।       
सलमान खान की फिल्म भारत का ही एक डॉयलॉग है, देश लोगों से बनता है और लोगों की पहचान उनके परिवार से होती है। तुझमें पूरा देश है भारत। यह एक फिल्म का डॉयलॉग भर नहीं है अगर इसको सलमान की निजी जिंदगी पर भी लागू करके देखें तो वहां फिट बैठता है। सलमान की एक पहचान परिवार से भी होती है। यह ठीक है कि सलमान खान सुपरस्टार हैं, उनकी फिल्मों की अपार सफलता के बाद उनको किसी और परिचय की जरूरत नहीं है लेकिन बार-बार अपनी निजी जिंदगी में सलमान अपने परिवार के साथ ही दिखाई देते हैं। अकारण ऐसी खबरें नहीं आती हैं कि सलमान की फिल्में उसके पिता सलीम खान सबसे पहले देखते हैं और फिर वो जो बदलाव सुझाते हैं उसपर अमल होता है। सलमान की अपनी मां और बहनों के साथ की तस्वीरें आती हैं। अपने भाई और भाई के परिवार को साथ लेकर चलने के किस्से सुनने को मिलते हैं। इतना यश और पैसा कमाने के बावजूद अपने माता-पिता के साथ एक छोटे से फ्लैट में रहना। मां के हाथ का बनाया खाना खाना आदि-आदि। इऩ सबका असर भी भारतीय जनमानस पर पड़ता है। जब सलमान की फिल्में आती हैं तो दर्शकों के अवचेतन मन में बसी सलमान खान की ये छवि उसको सिनेमा हॉल तक लेकर जाती हैं। इन सबसे दर्शकों का एक भरोसा और बनता है कि इसकी फिल्मों को देखते हुए घर-परिवार के साथ बैठकर मनोरंजन हो सकता है।
सलमान की ऑन स्क्रीन और ऑफ स्क्रीन छवि के अलावा उनका अपने दर्शकों से एक कनेक्ट है। दर्शकों से सलमान के जुड़ाव की गुत्थी को बहुधा फिल्म समीक्षक पकड़ नहीं पाते हैं। जब भी उनकी फिल्म आती है तो फिल्म क्रिटिक बहुत ही पारंपरिक और सैद्धांतिक तरीके से उनकी फिल्मों का आकलन कर डालते हैं। सलमान की फिल्मों को ज्यादातर समीक्षक ठीक ही कसौटी पर कसते होंगे लेकिन पारंपरिक तरीके से सलमान खान की फिल्म और उसकी सफलता-असफलता का  आकलन संभव नहीं है। अभी अभी संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में एक बात की खूब चर्चा रही कि चुनाव का आकलन अब अंकगणित के आधार पर नहीं हो सकता है अब उसका आकलन केमिस्ट्री के आधार पर करना होगा । लोकसभा चुनाव के पहले ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों ने नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी और भारतीय जनता पार्टी की संभावनाओं को चुनावी अंकगणित के आधार पर विश्लेषित करने की कोशिश की और जब नतीजे आए तो लगभग सभी के आकलन गलत निकले। नरेन्द्र मोदी की जनता के साथ केमिस्ट्री ऐसी थी जिसको राजनीतिक पंडित पकड़ नहीं पाए। सवाल ये उठता है कि क्या सलमान खान की भी अपने दर्शकों के साथ ऐसी ही कोई केमेस्ट्री है जिसको फिल्मी पंडित पकड़ नहीं पाते हैं। जिस फिल्म को वो औसत बताते हैं वो फिल्में चार दिन में ही सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो जाती हैं। आनेवाले दिनों में ये देखना दिलचस्प होगा कि सलमान की फिल्मों के आकलन का मानदंड बदलता है या नहीं, उसको देखने के लिए अगले ईद तक इंतजार करना होगा जब संजय लीला भंसाली की फिल्म में सलमान और आलिया की जोड़ी दिखेगी।  

Friday, June 7, 2019

यादों में व्यंजनों के शहंशाह


आज से करीब पच्चीस साल पहले की बात है। एक मित्र की शादी के सिलसिले में पटना गया था। बारात पटना के मेनका होटल में रुकी थी। शादी संपन्न होने के बाद  के बाद बारात वापस घर लौट रही थी। बारात के साथ ही दूल्हा दुल्हन भी लौट रहे थे। दूल्हा-दुल्हन के साथ एक व्यक्ति गाड़ी में होता है जिसका दायित्व रास्ते भर उन दोनों का ख्याल रखना होता है। चूंकि दुल्हा मेरा मित्र था इस वजह से ये दायित्व मुझे सौंप दिया गया। पटना से जब हम जमालपुर के लिए चले तो अम्बेसडर कार में पीछे की सीट पर बैठे दुल्हा-दुल्हन बातें कर रहे थे। आगे की सीट पर बैठा मैं विकल्पहीनता की स्थिति में उनकी बातें सुन रहा था। घर परिवार, नाते-रिश्तेदार से होती हुई बातचीत खाने पर पहुंच गई। दूल्हे ने दुल्हन से पूछा कि तुम्हें खाना बनाना आता है ? वो कुछ बोलती इसके पहले उसने कहा कि मेरी भाभी और मां दोनों बहुत अच्छा खाना बनाती है, तुम्हारा मुकाबला उनसे ही होगा। दुल्हन हां-हूं कर रही थी। बना लूंगी, कर लूंगी, बहुत तो नहीं आता आदि-आदि। दूल्हा को लगा कि उसके हाथ एक ऐसा मसला आ गया है जिससे वो अपनी नई नवेली पत्नी पर रौब झाड़ सकता है। वो लगातार अपनी भाभी और मां के खाने और खाने की डिशेज की तारीफ कर रहा था। दुल्हन चुपचाप सुन रही थी। ये क्रम पंद्रह-बीस मिनट तक चला तो अचानक दुल्हन ने कहा कि सबकुछ तो ठीक है पर आपकी भाभी और मां जो खाना बनाती हैं वो तो कोई भी बना सकता है। वो पारपंरिक खाना बनाती हैं। व्यंजनों के साथ कोई प्रयोग नहीं करती हैं। मैं आप लोगों को ऐसा खाना बनाकर खिलाऊंगी कि सब भूल जाएंगें। अब दुल्हन आक्रामक होकर अपनी बात रख रही थी। उसने पाक-कला पर धारा प्रवाह बोलना शुरू किया। पहली बार गाड़ी में दुल्हन के मुंह से ही मैंने जिग्स कालरा का नाम सुना। उसने कहा कि मैंने जिग्स कालरा की किताबें पढ़ रखी हैं। दूरदर्शन पर उनके शो दावत को देखती हूं और जिस तरह से वो मसालों, सूखे मेवों और सब्जियों को अलग अलग तरीके से मिलाकर नए तरह का खाना बनाते हैं वो आपके यहां किसी ने सुना भी नहीं होगा। वो इतने पर ही चुप नहीं हुई। उसने कहा कि जिग्स कालरा ऐसे खाना बनाते हैं जैसे कोई विज्ञान की प्रयोगशाला में अलग अलग केमिकल्स को उसकी प्रकृति को समझते हुए एक दूसरे से मिलाकर एक नए तरह का केमिकल तैयार करता है। दुल्हन ऐसे-ऐसे शब्द प्रयोग कर रही थी जिसको हमने भी पहली बार सुना था। मेरे दोस्त की हालत खराब थी, वो बार-बार टॉपिक बदलने की कोशिश करता था, लेकिन दुल्हन अपने पाक कला के ज्ञान से उसको लगातार आतंकित कर रही थी। बार-बार जिग्स कालरा का उदाहरण भी दे रही थी। उसने ये भी बताया कि अपने मायके से जो सामान लाई है उसमें जिग्स की लिखी किताबें और लेखों की कटिंग भी है।
अभी जब जिग्स कालरा के निधन की खबर मिली तो अचानक मेरे दिमाग में पच्चीस साल पहले की ये घटना कौंध गई। ये बात इसलिए महत्वपूर्ण है कि कोई लेखक या कोई कलाकार अगर अपनी लेखनी के माध्यम से देश के अलग अलग परिवारों में अपना स्थान बना लेता है। ये उसकी कला की ताकत है। जिग्स कालरा की कुकिंग को देखकर जिस तरह से मेरे दोस्त की पत्नी पाककला में निपुण हो गईं उसी तरह से देशभर में हजारों महिलाएं हुई होंगी। दरअसल अगर देखा जाए तो भारत में पाककला पर नियोजित तरीके से लेखन की शुरुआत जसपाल इंदर सिंह कालरा उर्फ जिग्स कालरा ने की। जिग्स कालरा ने भारतीय कुजीन को विदेशी मंचों पर ना केवल प्रतिष्ठा दिलाई बल्कि अपने प्रयोगों से विदेशियों को चौंकाया भी। जिसने भी कालरा के दूरदर्शन पर चलनेवाले शो को देखा होगा उनको याद होगा कि किस तरह के प्रयोग वो किया करते थे। रविवार को दूरदर्शन पर आनेवाले दावत नाम के उस कार्यक्रम में पुष्पेश पंत उनके साथ होते थे। उस कार्यक्रम में समोसा और कोरमा पर तो बात होती ही थी, मशरूम चाय और उसके बनाने के तरीके पर भी दिलचस्प बातें होती थीं। भारतीय मसालों का प्रयोग भी वो अद्भुत तरीके से करते थे। तंदूरी और मिंट चटनी के कांबिनेशन का उनका प्रयोग भी काफी चर्चित रहा था।जिग्स कालरा ने बाद के दिनों में और भी प्रयोग करने शुरू कर दिए थे। उन्होंने भारतीय व्यंजनों के साथ एशियाई देशों में बनने वाले खाना बनाने की विधि को मिलाकर प्रयोग करने शुरू किए। जिग्स कालरा के खाने के देश-विदेश में कई नामचीन लोग मुरीद थे। अटल बिहारी वाजपेयी जी के साथ वो उनके विदेश दौरों में जाया करते थे और अटल जी को मनपसंद खाना खिलाया करते थे। इंगलैंड के शाही घराने की डायना और प्रिंस चार्ल्स, अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बिल क्लिंटन और उनकी पत्नी हिलेरी क्लिंटन के अलावा पाकिस्तान के तानाशाह परवेज मुशरर्फ भी जिग्स के खाने के दीवाने थे। लगभग पचास सालों तक जिग्स कालरा ने भारतीय खान-पान की विरासत को जिस तरह से वैश्विक व्याप्ति दी वो अप्रतिम है। चार जून को उनके निधन ने कुजीन की दुनिया को विपन्न कर दिया।