अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली के दरियागांज इलाके में रविवार को फुटपाथ पर लगनेवाले किताबों के बाजार में गया था । वहां जाकर पता चला कि बाजार का स्वरूप काफीबदल गया है । पहले वहां सिर्फ किताबें बिका करती थी लेकिन अब उन किताबों की दुकान के आगे स्टेशनरी और पुराने कपड़ों ने उनको नेपथ्य में डाल दिया है । दरअसल जब से लाल किले के पीछे लगनेवाले चोर बाजार को बंद किया गया है तब से ही वहां से हटाए गए दुकानदारों ने इस ओर रुख किया और जगह की कमी की वजह से वो किताबों के समांतर एक और लाइन लगाने लग गए । नतीजा यह हुआ कि किताबें पीछे चली गई । दिल्ली गेट से शुरू होकर जामा मस्जिद के गेट नंबर एक तक जानेवाली सड़क तक दरियागंज की इस किताब बाजार में तकरीबन दो दशक से जा रहा हूं । तब वहां एक लोहे का पुल भी हुआ करता था जो अब विकास और सौदर्यीकरण की भेंट चढ़ चुका है । मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब उन्नीस सौ तिरानवे में दिल्ली आया था तो पहली बार किसी रविवार को अपने मित्रों के साथ उस बाजार में गया था । तब वह किताब बाजार काफी समृद्ध हुआ करता था । देश विदेश की हिंदी अंग्रेजी की तमाम किताबें वहां मिल जाया करती थी । बाजार शुरु होते ही आपको सबसे पहले आपको साइंस और अन्य विषयों की की किताबें दिखाई पड़ेंगी । गोलचा सिनेमा हॉल के पास पुराना सिक्का बेचने वाले के पास आते आते आपको सोशल साइंस और अन्य विषयों की किताबें दिखने लगती थी । फुटपाथ पर लगनेवाले इस बाजार में व्यक्तिगत लाइब्रेरी से निकाल कर कबाड़ी को बेच दी गई पुरानी किताबें, प्रकाशकों के यहां से चोरी से लाई गई किताबें और पुस्तकालयों से उड़ाई गई किताबें बिका करती थी । मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैंने दास कैपिटल की प्रति सात रुपए में इसी बाजार से खरीदी थी । उस किताब पर दिल्ली विश्वविद्यालय के मशहूर हिंदू कॉलेज की लाइब्रेरी की मुहर लगी थी । इसके अलावा हिंदी के एक प्रसिद्ध आलोचक को लेखकों द्वारा समर्पित कई किताबें भी इस बाजार में दिखाई देती थी । उसपर लिखा समर्पण देखकर एकबारगी यह लगा था कि हिंदी के वरिष्ठ लेखक कितने कठोर होते हैं जो प्यार और आदर से दी गई किताबों को भी कबाड़ में बेच देते हैं । बात में यह धारणा और पुष्ट हो गई जब उन आलोचक को भेंट की गई किताबें नियमित अंतराल पर उस बाजर में दिखाई देने लगीं ।
रविवार को लगने वाले इस किताब बाजार
में मोलभाव का बेहद अलग मनोविज्ञान काम करता है । अगर आपको कोई किताब पसंद आ गई और
आपने अपनी प्रसन्नता जाहिर कर दी तो समझ लीजिए कि आपको उस किताब की मंहमांगी कीमकत
अदा करनी होगी । इस तरह के बाजार में तो ग्राहकों को अपनी प्रसन्नता जाहिर ही नहीं
करनी होती है । अगर कोई किताब पसंद भी आ जाए तो उसको बस यूं ही अनमने ढंग से उठाकर
दाम पूछना होता है । कहने का मतलब यह कि फुटपाथ पर चलनेवाले किताबों के इस बाजार के
नियम कानून बाजार के नियम कानून से भिन्न होते हैं । वहां के दुकानदारों और ग्राहकों
के बीच एक अलग ही तरह का रिश्ता होता है । दरअसल फुटपाथ पर लगनेवाले इस तरह के किताब
बाजार देश के अनेक छोटे बड़े शहरों में लगते रहे हैं । मुंबई के फ्लोरा फाउंटेन से
लेकर कोलकाता के गरियाहाट और गोलपार्क के बीच फुटपाथ से लेकर अहमदाबाद के एलिस ब्रिज
से लेकर मद्रास रेलवे स्टेशन के ठीक बगल की एक इमारत में पुरानी किताबों का बाजार रविवार
को सजा करता था । कोलकाता के किताब बाजार में तो मार्कसवादी साहित्य की ही धूम रहा
करती थी । कोलकाता का कॉलेज स्ट्रीट को तो ज्ञान का पुंज ही माना जाता था । कहा जाता
था कि वहां हर तरह की किताबें मिल जाया करती थी । अस्सी के दशक में कोलकाता और मुंबई
की फुटपाथी दुकानों को देखा था । कोलकाता की इन दुकानों पर वामपंथी और मार्क्सवादी
साहित्य बहुतायत में मिला करती थी । 1987 में मैक्सिम गोर्की का कालजयी उपन्यास मां
की प्रति वहीं से खरीदी थी । अस्सी के ही आखिरी दशक में मुंबई के फ्लोरा फाउंटेन के
फुटपाथ पर किताबों की दुकानों पर घंटों बिताया था । दिल्ली और कोलकाता की तुलना में
वहां किताबों की कीमत में ज्यादा मोलभाव नहीं होता था । वहां फुटपाथी दुकानों के मालिक
आपसे किताबों पर विमर्श कर सकते थे, इस विषय से जुड़ी अन्य किताबों के बारे में आपको
जानकारी दे सकते थे । कहने का मतलब यह है कि वहां के दुकानदारों की किताब और उसके विषयों
को लेकर समझ दिल्ली के फुटपाथी किताब बेचनेवालों से बेहतर थी । कोलकाता में तो दुकानदारों
पर भी लाल रंग ही चढ़ा रहता था । वो बातचीत में हमेशा बुर्जुआ से लेकर क्रांति की डींगें
हांका करते थे ।
एक और चौंकानेवाली बात जो इस
बार दरियागांज के इस किताब बाजार में महसूस हुई वह यह कि अब वहां हिंदी की बहुत कम
किताबें उपलब्ध हैं । तकरीबन बीस साल पहले दरियागंज की इन पटरियों पर आपको विश्व क्लासिक्स
के साथ साथ हिंदी की अहम कृतियां भी मिल जाया करती थी । चाहे वो निराला की कोई कृति
हो या फिर जयशंकर प्रसाद या रेणु की किताब । हंस का साहित्य संकलन जो बालकृष्ण राव
और अमृतराय के संपादन में संभवत 1957 में निकला था की प्रति भी 1994 में मुझे वहीं
से मिली थी । हंस के उस अंक में रामकुमार का जार्ज लुकाच से मुलाकात पर बेहद रोचक संस्मरण
छपा था । मैक्सिम गोर्की की कालजयी कृति मां भी वहीं से खरीदी थी। सारिका और धर्मयुग
के पुराने अंकों के अलावा नई कहानियां का प्रवेशांक भी मुझे वहीं से मिल पाया था ।
नई कहानियां को वह प्रवेशांक मेरी व्यक्तिगत लाइब्रेरी से कहीं गुम हो गया है लेकिन
उसका स्कैन किया गया कवर अब भी मेरे पास है । इसके अलावा आजादी के बाद निकले कई साहित्यक
पत्रिकाओं के अंक भी आसानी से दरियागंज में उपलब्ध थे । लेकिन समय के साथ साथ हिंदी
की पुरानी पत्रिकाएं फुटपाथ से गायब होते चली गई । और अब तो हालात यह है कि एक दो दुकानों
को छोड़कर हिंदी की किताबें भी नहीं मिल पा रही हैं । फुटपाथ से हिंदी की किताबें गायब
होने के पीछे क्या वजह हो सकती है । यह किस ओर इशारा करती है , इसके क्या निहितार्थ
हैं इस बारे में विचार करना आवश्यक है । वहां लंबे समय से हिंदी की किताबें बेचनेवाले
अजीज अहमद से पूछने पर पता चला कि हिंदी की किताबों में रुचि लेनेवाले ग्राहकों की
संख्या में कमी आई है । उन्होंने एक और चौंकानेवाली बात बताई । उनका कहना था कि पहले
दिल्ली के विश्वविद्यालयों के छात्र हिंदी और वैचारिक किताबों की खोज में यहां आते
थे लेकिन अब यहां आनेवाले छात्रों की संख्या में कमी आई है और जो छात्र यहां आते हैं
वो अंग्रेजी की हल्की फुल्की किताबें खरीदने में रुचि रखते हैं । उन्होंने साफ तौर
पर बताया कि यह बाजार है और यहां मांग के अनुसार ही उपलब्धता होती है । अहमद के इस
बयान के बाद यह सवाल खड़ा हो गया कि क्या सचमुच देश की राजधानी के युवाओं की रुचि हिंदी
साहित्य में कम हुई है । अगर यह संकेत मात्र भी है तो यह हिंदी जगत के लिए बेहद चिंता
की बात है । उससे भी चिंता की बात है इन बाजारों का सिमटना । दिल्ली में किताबों के
रविवारीय बाजार के अलावा कोलकाता में भी गरियाहाट वाले बाजार को बंद करवा दिया गया
। एलिस ब्रिज के नीचे लगनेवाले बाजार में भी किताबों की दुकानों की संख्या कम हो रही
है । इन बाजारों के सिमटने से पुस्तक संस्कृति के सिमटने का संकेत मिल रहा है । पुस्तक
संस्कृति किसी भी विकासशील समाज के लिए एक मजबूक आधार प्रदान करती है लेकिन हिंदी में
पुस्तक संस्कृति को लेकर एक उदासीनता का माहौल देखकर निराशा होती है । जिनपर इस तरह
की संस्कृति को विकसित करने का दायित्व है वह भी अपने दायित्वों के प्रति उदासीन दिखाई
देते है ।
8 comments:
बढ़िया अवलोकन.........
बढ़िया अवलोकन
बढ़िया अवलोकन.........
बढ़िया अवलोकन...........
बढ़िया अवलोकन...........
आप ने इस किताब बाज़ार का जो विवरण दिया है , वह एकदम यथार्थ है । इस धन्धे के पीछे कबाड़ी मुख्य रूप से हैं । प़काशक पुस्तकों के दाम लागत से पाँच छह गुना रखते हैं ।तब पुस्तक प़ेमी इस किताब बाज़ार से अपनी ज़रूरत पूरी करता है । आलोचक और सम्पादक मुफ़्त में मिली किताबें कबाड़ी को बेच देते हैं । एक मित्र वहाँ से मेरा खण्डकाव्य ख़रीद कर लाए थे , जो मैं ने सम्पादक को समीक्षा के लिए दिया था ।
आज का युवा किताबें शायद कम खरीदता है और ऑनलाइन ज्यादा पढता है और जरूरत हो तो ऑनलाइन ही मंगवा लेता है शायद यही वजह है अब इन बाजारों की तरफ रुख नहीं करता.शायद समय की कमी भी एक कारण है आज लाइफ फ़ास्ट हो गयी है तो कौन ढूंढें जब एक क्लिक की पहुँच पर हों चीज फिर वो किताबें ही क्यों न हों....मुझे तो यही कारण दिख रहा है इन सिमटते बाजारों का.
सर आजकल kindle और online पढ़ने का चलन बहुत बढ़ गया है ख़ास कर हिंदी किताब ! अंग्रेज़ी किताब ख़रीदते हुए वे आस पास देखते हुए लेते है की उन्हें कितने लोग देख रहे हैं, किताब की महँगी क़ीमत पर भी सवाल नही करते लेकिन हिन्दी की किताब online पढ़ते / लेते है प्लस क़ीमत पर सवाल करना तो आम बात है !
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