क्या रचनात्मक लेखन का कोई धर्म होता है ? क्या कोई साहित्यक रचना किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देती
है ? क्या किसी रचना में धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल से वो रचना
सांप्रदायिक हो सकती है ? क्या किसी रचना में किताबों की बात करने से किसी धर्म विशेष के ग्रंथ
की अवहेलना हो सकती है ? ये कुछ चंद सवाल हैं जो इन
दिनों वैश्विक स्तर पर उन बुद्धिजीवियों को मथ रहे हैं जो साहित्य को साहित्यक
संदर्भ में देखते हैं और उसपर विचार विमर्श करते हैं । ये सवाल उठे हैं बांग्लादेश
से जहां पहली से लेकर आठवीं कक्षा तक के पाठ्यक्रम में भारी बदलाव किया गया है । पाठ्यक्रमों
में बदलाव होते रहते हैं लेकिन जब ये बदलाव किसी दबाव में किए जाएं और किसी रचना
या पुस्तक को हटवाने के पीछे कट्टरपंथी हो तो चिंता का सबब बन जाता है । बांग्लादेश
सरकार ने अभी हाल ही में स्कूलों में पढ़ाई जानेवाली किताबों से नोबेल पुरस्कार से
सम्मानित गुरवर रविन्द्रनाथ टैगोर और जाने माने लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की
कविता और कहानी हटा दी है । बांग्लादेश सरकार ने यह कदम एक कट्टरपंथी संगठन
हिफाजत-ए-इस्लाम के विरोध के बाद उठाया है । यह संगठन वहां मदरसों में पढ़ानेवाले
शिक्षकों और वहां पढ़ाई करनेवाले छात्रों का माना जाता है । दो साल से बांग्लादेश
में मदरसों में छात्रों की संख्या काफी बढ़ी है, बढ़ी को बुर्का पहनने वाली
लड़कियों की संख्या भी है ।
हिफाजत-ए-इस्लाम नाम के इस संगठन ने लंबे समय से कई
लेखकों की आधे दर्जन के अधिक रचनाओं को चिन्हित किया हुआ था और बांग्लादेश सरकार
पर दबाव बना रहे थे कि इन सबको पाठ्यक्रमों से हटा दिया जाए । हिफाजत-ए-इस्लाम की
दलील है कि इन लेखकों की रचनाओं में इस्लाम का विरोध है और हिंदू धर्म को बढ़ावा
मिल रहा है । छठे वर्ग की एक किताब में रबिन्द्रनाथ टैगोर की कविता ‘बांग्लादेशेर ह्दोय’ पढ़ाई जाती थी। गुरवर की इस कविता में मातृभूमि को ऊंचे स्थान पर
रखते हुए टैगोर ने उसकी खूबसूरती की प्रशंसा की है। रबिन्द्र नाथ टैगोर की यह
कविता कई सालों से छात्रों को पढ़ाई जा रही थी लेकिन कुछ दिनों पहले हिफाजत-ए-इस्लाम
को लगा कि गुरुवर की इस कविता में हिंदुओं की एक देवी को बहुत ऊंचे स्थान पर रखा
गया है या कह सकते हैं कि उनको इस बात पर आपत्ति थी कि टैगोर की इस कविता में
हिंदू देवी की तारीफ की गई है । हिंदू देवी के उल्लेख और उसकी तारीफ को इस संगठन
ने इस्लाम के खिलाफ माना, लिहाजा इस कविता को पाठ्यक्रम से हटाने की मुहिम शुरू कर
दी थी । टैगोर के अलावा हिफाजत-ए-इस्लाम के निशाने पर शरतचंद्र चट्टोपाध्याय कहानी
‘ललू’ भी थी । इस कहानी के केंद्र में पशु बलि है जिसपर पर लेखक ने
विस्तार से लिखा है और बताया है कि कैसे एक बच्चा जानवरों की बलि को रोकने के लिए
संघर्ष करता है । पशुबलि रोकने के बालक के संघर्ष में भी कट्टरपंथियों को धर्म का
बढ़ावा दिखाई दे गया । हिफाजत-ए-इस्लाम का तर्क है कि इस कहानी से हिंदू धर्म में
व्याप्त पशु बलि को बढ़ावा मिलता है लिहाजा बच्चों को यह कहानी नहीं पढ़ाई जानी
चाहिए । सत्येन सेन की कहानी ‘लाल गोरूटा’ को भी पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है । इस कहानी में इसके केंदीय
पात्र निधिराम और गाय के बीच के संवेदनशील संबंध को दर्शाया गया है । इस्लामिक
कट्टर पंथियों की दलील है कि इस कहानी में कहानीकार ने गाय को मां के रूप में
दिखाया है । गाय को मां के रूप में दिखाने को हिंदू धर्म से जोड़कर कट्टरपंथियों
ने इसका विरोध शुरू किया था । उनका तर्क है कि इस तरह की कहानियों से हिंदू धर्म
के उपदेशों को बढ़ावा मिलता है जो उनको किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है ।
अगर हम देखें तो हिफाजत-ए-इस्लाम जैसे कट्टरपंथी संगठनों
के सामने सारे तर्क बेकार होते हैं । वो तो धर्म के चश्मे से सबको देखते हैं और
लिहाजा जो उनकी कसौटी पर खरा नहीं उतरता है उसको खारिज करवाने के लिए एड़ी चोटी का
जोर लगा देते हैं । इस मामले में ही अगर हम अन्य उदाहरणों को देखें तो यह धारणा और
पुष्ट होती नजर आती है । हुमांयू आजाद की की कविता ‘बोई’ को भी पांचवीं कक्षा के सिलेबस से हटा दिया गया है । यह कविता किताब
की महत्ता के बारे में बात करती है । कट्टरपंथियों को यह लगता है कि इस कविता से
जो संदेश निकलता है उससे कुरान की महत्ता कम होती है । उनके तर्कों के मुताबिक
कुरान के अलावा किसी और किताब की महत्ता पर बात नहीं होनी चाहिए और अगर किसी और किताब पर बात होगी तो यह कुरान को नहीं पढ़ने के लिए उकसाने जैसी
बात होगी । यह अजीबोगरीब तर्क है। तालीम को बढ़ावा देने के लिए किताब की महत्ता पर
बल देना ही होगा । पाक कुरानशरीफ की महत्ता भी तालीम हासिल करने के बाद ज्यादा
बेहतर तरीके से समझ आएगी ।
इन कट्टरपंथियों को धर्म की आड़ में विरोध करना बेहतर
लगता है । तभी को उन्होंने उपेन्द्र किशोर रे की रामायण पर आधारित छोटी छोटी
कहानियों का भी विरोध कर उसको हटवा दिया । यही नहीं छठी कक्षा में ही एक यात्रा
वृत्तांत था जिसमें उत्तर भारत के एक शहर का वर्णन था, उसको हटाकर मिस्त्र के एक
शहर के बारे में पढ़ाया जाने लगा । कट्टरपंथी
इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने तो वर्णमाला को सिखाने के तौर तरीके में भी बदलाव
करवा दिया । ‘ओ’ से ‘ओल’ की बजाए अब ‘ओ’ से ‘ओरना’ पढाया जाएगा । ‘ओल’ एक सब्जी है और ‘ओरना’ मुस्लिम लड़कियों द्वारा ओढा जानेवाला एक स्कार्फ । इन शब्दों के
प्रतीकों से वो बच्चों में किस तरह की शिक्षा देना चाहते हैं यह सोचनेवाली बात है ।
दरअसल कट्टरपंथियों ने दो हजार चौदह से ये मुहिम शुरू की जब बांग्लादेश सरकार ने
मदरसों में आधुनिक शिक्षा वाली किताबों को पढ़ाने का प्रस्ताव दिया था । तब
कट्टरपंथियों को ये लगने लगा था कि अगर मदरसों में धार्मिक कट्टरता की बजाए
तर्कवादी दृष्टिकोण से शिक्षा का आधुनिकीकरण होगा तो उनकी दुकान बंद हो जाएगी ।
अब अगर इन कट्टरपंथी घटनाओं के बढ़ने
और आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वालों के पढ़ा लिखे होने को जोड़कर देखें तो
बहुत चिंतित करनेवाली तस्वीर सामने आती है । हाल के आतंकवादी वारदातों ,चाहे वो
बांग्लादेश की आतंकीवादी वारदात हो या फिर पेरिस में भीड़ पर आतंकवादी हमला या
तुर्की में हुआ आतंकवादी हमला, पर नजर डालें तो खतरनाक प्रवृत्ति दिखती है । इन
हमलावरों की प्रोफाइल देखने पर आतंकवाद को लेकर चिंता बढ़ जाती है । पहले कम पढ़े
लिखे लोगों को आतंकवादी संगठन अपना शिकार बनाते थे । उसको धर्म की आड़ में जन्नत
और हूर आदि का ख्वाब दिखाकर और पैसों का लालच देकर आतंकवाद की दुनिया में दाखिला
दिलवाया जाता था । अनपढ़ों और जाहिलों को धर्म का डर दिखाकर बरगलाया जाता था। आश्चर्य
तब होता है जब एमबीएम और इंजीनियरिंग के छात्र भी आतंकवाद की ओर प्रवृत्त होने
लगते हैं, हमले करने लगे हैं । रमजान के पाक महीने में बांग्लादेश, पेरिस और मक्का
समेत कई जगहों पर आतंकवादी वारदातें हुईं थीं । ढाका पुलिस के मुताबिक बम धमाके के
मुजरिम शहर के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले छात्र थे । पूरी दुनिया में
इस बात पर मंथन हो रहा है कि इस्लाम को मानने वाले पढ़े लिखे युवकों का
रैडिकलाइजेशन कैसे संभव हो पा रहा है । बांग्ललादेश में तो दो हजार तेरह के बाद से
ही इस तरह की घटनाओं में बढोतरी देखने को मिल रही है । कई तर्कवादी ब्लागर की
नृशंस तरीके मौत के घाट उतार देने की वारदातों ने हमारे पड़ोसी देश को झकझोर कर रख
दिया था ।
अब इस बात पर विचार करना होगा कि
धार्मिक कट्टरता के खिलाफ किस तरह की रणनीति बनाई जाए क्योंकि कट्टरता ही आतंकवाद
की नर्सरी है । कट्टरता के खात्मे के लिए आवश्यक है कि पूरी दुनिया के बौद्धिक इसके
खिलाफ एकजुट हों और अपने अपने देशों में आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा को बढ़ावा दें
। इस्लामिक बुद्धिजीवियों पर जिम्मेदारी ज्यादा है । उनको धर्म की आड़ में कट्टरता
को पनपने से रोकने के लिए धर्म की गलवत व्याख्या पर प्रहार करना होगा । धर्म के
ठेकेदारों के खिलाफ बोलना शुरू करना होगा । हर विचारधारा और धर्म के लोगों को गलत
को गलत कहने का साहस दिखाना होगा । हम किसी अन्य धर्म में बढ़ रही कट्टरता का
विरोध करना इस तर्क के आधार पर नहीं छोड़ सकते हैं कि यह उनका आंतरिक मामला है ।
जब बात मानवता और इंसानियत की आती है तो फिर वो मामला किसी का भी आंतरिक नहीं रह
जाता है क्योंकि आतंक की तबाही ना तो धर्म देखती है और ना ही रंग वो तो सिर्फ जान
लेती है । चुनी हुई चुप्पीकी सियासत इस समस्या को बढ़ाएगी, लिहाजा बोलने का वक्त
है ।
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