आज नए साल का आगाज हो रहा है । आज उम्मीदों का दिन है । साहित्य
में भी विधाओं के लोकप्रिय होने की अपेक्षाओं का दिन है । बीता साल कहानी विधा के
लिए अच्छा नहीं रहा । फॉर्मूलाबद्ध कहानियों की बाढ़ रही । छोटी कहानियों के नाम
पर रिपोर्ताज लिखे गए । पत्र-पत्रिकाओं की शब्द संख्या के नाम पर लेखकों ने
कहानियों की स्वाभाविक विस्तार के साथ समझौता किया । जबकि होना ये चाहिए कि कहानी
को उसकी स्वाभाविक विकास के साथ चलने देना चाहिए । कहानी की बुनियादी शर्त है कि
उसमें पठनीयता हो और पाठकों का पढ़ने में मन लगे । बीते साल में कहानी की पठनीयता
में जबरदस्त कमी महसूस की गई और पाठकों का कहानी में मन लगने की बजाए मन उचटने के
संकेत मिले । नई कहानी के शोरगुल के बीच नामवर सिंह ने लिखा था कि – भाषा इधर की
कहानियों की काफी बदली है, यह भी कह सकते हैं कि मंजी है । यहां तक हिंदी गद्य का
अत्यंत निखरा हुआ रूप आज की कहानी में ही सबसे अधिक मिलता है । कहानी में एक भी
फालतू शब्द ना आये, इसके प्रति आज का लेखक बहुत सतर्क है । तब नामवर सिंह ने इसको
कहानी के लिए शुभ लक्ष्ण माना था । नामवर सिंह के इस कथन के आलोक में आज की
कहानियों पर विचार करने से लगता है कि कहानी में भाषा के स्तर पर ना तो कोई बदलाव
दिखाई देता है और ना ही कोई कहानीकार अपनी कहानियों में भाषा के साथ खिलंदड़ापन ही
करता दिखाई देता है । इसके अलावा आज की कहानी में कई फालतू शब्द भी आवारागर्दी
करते नजर आते हैं । भाषा को निखारने की बात तो छोडिए जो भाषा सही से लिख नहीं पाते
हैं, जिनकी वर्तनी से लेकर व्याकरण तक दोषपूर्ण है उनको भी कहानीकार मान लिया जाता
है । भाषा के अलावा कहानी से कहानीपन भी तो गायब होता चला गया ।
आज की कहानियों के कथानक पर अगर हम विचार करें तो पाते हैं वो लगभग
सपाट है । कहीं किसी भी तरह का उतार चढ़ाव नहीं, नामवर जी इसकी तुलना बहुधा पहाड़ी
रास्तों से करते हैं जहां कदम कदम पर आकस्मिक मोड़ मिलते हैं । रूसी कथाकार चेखव
को ऐसी कहानियों का जनक माना जाता है और उनके प्रभाव में यह प्रवृत्ति विश्वव्यापी
हो गई । हिंदी भी इससे अछूती नहीं रही । नामवर सिंह के मुताबिक ये कहानी में
यथार्थवाद की विजय का पहला उद्घोष था । जिस वक्त चेखव ने यह प्रयोग किया था उस
वक्त पाठकों ने इसको काफी पसंद किया था क्योंकि इसमें एक नयापन था । हिंदी में भी
यथार्थवादी कहानियां इस वजह से ही स्वीकृत और प्रशंसित हुईं । कहानी की इस तकनीक
की सफलता से हिंदी कहानी के ज्यादातर कथाकारों ने इसको अपनाया । नतीजा यह हुआ कि हिंदी
में यथार्थवादी कहानियों की बाढ़ सी आ गई । धीरे-धीरे पाठकों को इस तकनीक से लिखी
गई कहानियों में दुहराव नजर आने लगा । हाल में तो यथार्थवादी कहानियों के नाम पर सीधे-सीधे
घटनाओं को लिखा जाने लगा । इसने कहानी विधा का बहुत नुकसान किया । कथानक की
साम्यता ने पाठकों को निराश करना शुरू कर दिया । बल्कि कई कहानीकारों पर तो नकल का
इल्जाम भी लगा जबकि कथानक में समानता चेखव की तकनीक को अपनाने की वजह से आ रही थी
। इसका बड़ा असर प्रेम कहानियों पर पड़ा ।प्रेम कहानियों के नाम पर देह कहानियां
भी लिखी जाने लगीं । अब देहगाथा लिखने के लिए तो कालिदास जैसा लेखक होना चाहिए जो
भाषा को साध सके । अन्यथा अगर कहानी भाषा की मर्यादा की चौहद्दी को तोड़ती हुई
निकलती है तो फिर भूकंप ही आता है और जलजला अपने साथ तबाही भी लाता है । नए साल
में हिंदी कहानी इन झटकों से उबर पाए यही कामना भी है और उम्मीद भी ।
1 comment:
परिकथा के नवलेखन अंक में एक कहानी आई थी ' हंस अकेला रोया '। कृपया इस कहानी को पढ़कर अपनी राय दें। हो सकता है आपको कहानी की वर्तमान स्थिति का जायजा लेने में मदद मिले।
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