दिल्ली में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा आयोजित विश्व पुस्तक
मेला आज समाप्त हो रहा है । इस वर्ष का विश्व पुस्तक मेला कई मायनों में अनोखा रहा
। पुस्तक मेलों में हर वर्ष ताबड़तोड़ पुस्तक विमोचन होते रहे हैं लेकिन इस बार ये
मेला विमचनों के रेला के लिए याद किया जाएगा । यह कोई बहुत असमान्य बात नहीं है,
समय बीतने के साथ साथ हर चीज में बढ़ोतरी होती ही है । लेकिन इसके साथ जो असमान्य
प्रवृत्ति देखने को मिली वो ये कि जिन पुस्तकों का विमोचन महानुभाव कर रहे थे उनको
उसके बारे में कोई जानकारी नहीं होती थी । विमोचन के बाद अमूमन हर वक्ता यह कहता
था मैंने इनकी कहानी पढ़ी नहीं है लेकिन..., मैंने इनका उपन्यास पढ़ा नहीं है
लेकिन...। क्या आलोचक, क्या वरिष्ठ कथाकार सबों की जुबां पर यही लफ्ज आते थे । यह
प्रवृत्ति लगभग सभी प्रकाशकों के विमोचनों में देखने को मिली । सवाल यही उठता है
कि विमोचनों की इतनी हड़बड़ी क्यों ? क्यों नहीं इस बात का इंतजार किया जा
रहा था कि जिस भी पुस्तक का विमोचन हो, विमोचनकर्ता तैयारी के साथ आएं । कृति पर
थोड़ी बात हो ताकि वहां मौजूद पाठकों के बीच जारी होनेवाली किताब को लेकर उत्सुकता
बने और वो इसको खरीद सकें । हालात तो ये हो रहे थे कि विमोचन वाले स्टॉल के आगे से
कोई वरिष्ठ, कनिष्ठ, समकालीन रचनाकार गुजर रहा हो तो उनको भी बुला लिया जाता था कि
आइए आइए जरा विमोचन कर दीजिए । गुजरनेवाले भी खुशी खुशी किताब हाथ में लेकर पंक्ति
में खड़े हो जाते थे । समारोह में शामिल होनेकी तस्वीर कैमरे में कैद हो जाती थी ।
भारतीय परंपरा में खुशी बांटने की परंपरा भी है लेकिन हद तब हो जाती थी जब खुशी
बांटने के लिए विमोचन समारोह में शामिल होने वाले लेखक से कहा जाता था कि आप भी
विमोचित कृति पर कुछ बोलिए । फिर वही शब्द गूंजता हैं, मैंने इस कृति को पढ़ा तो
नहीं है लेकिन...। यहां जानबूझकर किसी विमोचनकर्ता का नाम नहीं लिखा जा रहा है
क्योंकि लेख का उद्देश्य इस प्रवृत्ति को रेखांकित करना है किसी का नाम लेकर उनका
उल्लेख करना नहीं । इसके अलावा इस बार कई पुस्तक विमोचन हाईटेक रहे । लेखकों ने
तकनीक का फयदा उठाया । जिस लेखक की किताब विमोचित हो रही हो और वो किसी वजह से
पुस्तक मेले में मौजूद नहीं रह पाया तो उनके मित्रों ने उनको फोन कर स्पीकर ऑन कर
दिया या फिर स्काइप या वीडियो क़लिंग के जरिए उनको कार्यक्रम से जोड़ लिया । यह
तकनीक का फायदा रहा लेकिन वीडियो कॉल या फोन के जरिए जुड़े लेखक को भी सुनना पड़ा
कि- इनकी कृति मैंने पढ़ी तो नहीं है लेकिन...। विश्व पुस्तक मेले की इस प्रवृत्ति
को इस वजह से भी रेखांकित किए जाने की जरूरत है क्योंकि प्रसिद्धि की फौरी चाहत
में साहित्य पिछड़ता जा रहा है । पढ़ी नहीं है लेकिन... की प्रवृत्ति ज्यादातर
वरिष्ठ लेखकों में देखने को मिली, कुछ प्रौढ होते लेखक भी इस तरह से विमोचन करते
घूमते दिखे । दरअसल होता क्या है कि लेखकों को लगता है कि अपने से वरिष्ठों से
विमोचन करवाकर फोटो उतार लिए जाएं और उसको फेसबुक पर चढ़ा कर लाइक्स की लोकप्रियता
हासिल कर ली जाए । ज्यादातर विमोचनों को देखकर यही लगा कि इस बार भी पुस्तक मेले
में फेसबुक को ध्यान में रखकर बहुत से काम किए गए । लेकिन फेसबुक की लाइक्स से
साहित्य सृजन में गहराई आए या फिर बेहतर रचना के लिए लेखक और मेहनत करें ऐसा अबतक
देखने को नहीं मिला है ।
इसके अलावा इस वर्ष के पुस्तक मेले में साहित्य की वरिष्ठम पीढ़ी की
लगभग अनुपस्थिति भी दर्ज की गई । ऐसा लगता है कि नामवर सिंह अस्वस्थता और कड़ाके
की ढंड की वजह से कम आ पाए । कुंवर नारायण बहुत कम बाहर निकलते हैं । विश्वनाथ
त्रिपाठी और अशोक वाजपेयी मेले में दिखाई अवश्य दिए लेकिन एकाध विमोचन या
कार्यक्रमों की अध्यक्षता की ही जानकारी मिल पाई । इसके अलावा कई वरिष्ठ
साहित्यकार अकेले घूमते नजर आए । तो क्या इन वरिष्ठ लेखकों का दौर या आकर्षण या
फिर इनसे अपने कृति के बारे में प्रमाण-पत्र लेने का दौर खत्म हो गया । या फिर इन
लोगों ने इतने प्रमाण-पत्र बांट दिए कि अब उनके स्टॉक में सर्टिफिकेट्स खत्म हो गए
हैं । यह भी हो सकता है कि वरिष्ठतम लेखकों ने नई पीढ़ी के आकांक्षाओं की रफ्तार
से तालमेल नहीं बिठा पाए और नेपथ्य में चले गए । वाजपेयी जी जैसे स्टार लेखकों की
स्टार वैल्यू को छीजता देखकर दुख होता है । एक जमाना होता था कि पुस्तक मेले में
वाजपेयी जी के आगमन के साथ हिन्दी के हॉल में लगता था कि बहार आ गई हो । वो जब
चलते थे तो उनके आगे पीछे लेखकों की फौज होती थी । इस बार वैसा नजारा देखने को
नहीं मिला । वाजपेयी जी के अकेले होने की वजह उनका सत्ता से दूर होना भी हो सकता
है । यह पहली बार हुआ है कि वाजपेयी जी की सत्ता प्रतिष्ठान में कोई पूछ नहीं रही
। वो किसी सरकारी पद आदि पर भी नहीं हैं, लिहाजा हिंदी लेखकों को पहली बार हवाई
यात्रा करवाने जैसा दंभपूर्ण बयान भी नहीं दे सकते हैं, पुरस्कार आदि देना तो दूर
की बात है । अब यह देखना दिलचस्प होगा कि साहित्यक सत्ता के केंद्रों की अहमियत कम
होने के बाद नया साहित्यक सत्ता केंद्र उभरेगा या फिर उसका विकेन्द्रीकरण हो जाएगा
।
विश्व पुस्तक मेले में छिटपुट विवाद भी हुआ । हिंदी अकादमी दिल्ली
की उपाध्यक्ष और मशहूर उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा और अपेक्षाकृत नई पीढ़ी की
लेखिकाओं में टकराहट लंबे समय से चल रही है । पुस्तक मेले में एक बार फिर से
प्रत्यक्ष रूप से इस टकराहट से पाठक भी रूबरू हुए । एक चर्चा के दौरान लेखकीय
विरासत के बाबत पूछे गए सव सवाल का जब मैत्रेयी पुष्पा ने नकारात्मक जवाब दिया तो
विवाद बढ़ा । वहां मौजूद उपन्यासकार अल्पना मिश्र ने विरोध दर्ज करवाया । अब सवाल
यही है कि लेखकीय विरासत है क्या ? क्या लेखन कोई संपत्ति है जिसकी
विरासत किसी को सौंपी जाए या फिर उसकी वसीयत की जाए । दरअसल पिछले दिनों नासिरा
शर्मा ने एक पत्रिका में अपनी साहित्यक वसीयत लिखी थी और कुछ रचनाकारों का नाम भी
लिया था । उनके वसीयतनामे के बाद विरासत की साहित्यक राजनीति शुरू हो गई । संगीत
में तो विरासत फिर भी मुमकिन है लेकिन साहित्य में विरासत की अवधारणा ही गलत है । बेहतर
साहित्यक लेखन तो वो होता है जो परंपरा से अलग हटकर अपनी राह खुद बनाए । यह बात भी
समझ से परे है कि मैत्रेयी पुष्पा से स्वीकृति की मोहर क्यों लगवाने की जरूरत है ।
मैत्रेयी ने अपने तरह का लेखन किया और अब नई पीढ़ी की लेखिकाएं अपनी तरह का लेखन
कर रही हैं । इस विवाद की जड़ में विरासत आदि होगा लेकिन आपत्ति इस बात को लेकर
ज्यादा हुई होगी कि मैत्रेयी पुष्पा ने मनीषा कुलश्रेष्ठ का नाम ले लिया । कुछ
दिनों पहले जब मैत्रेयी पुष्पा ने अपेक्षाकृत युवा लेखिकाओं को निशाने पर लेते हुए
एक लेख लिखा था तब मनीषा कुलश्रेष्ठ ने भी विरोध का झंडा उठाया था । अब बदले साहित्यक
परिदृश्य में मैत्रेयी जी ने मनीषा को बेहतर रचनाकार माना तो उनसे सवाल पूछे जाने
लगे । स्त्री लेखन में साहित्यक विरासत की गूंज मेले में रही लेकिन एक दो दिनों
में ही ये थम सा गया । इन दिनों हिंदी साहित्य में असहिष्णुता भी बढती जा रही है ।
कोई भी अपनी रचनात्मक आलोचना सुनने को तैयार नहीं है । अगर किसी ने रचना की भी
आलोचना कर दी तो लेखक आगबबूला हो जाता है । प्रकरांतर में इस प्रवृत्ति का नुकसान
साहित्य की अलग अलग विधाओं को होता है । देश में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर छाती
कूटनेवालों में भी सहिष्णुता का आभाव दिखाई देता है । वो अपनी आलोचना तो क्या ही
बर्दाश्त करेंगे अपनी रचना पर भी आलोचनात्मक टिप्पणी उनको नहीं सुहाती है । लेखकों
के लिए आत्ममंथन का वक्त है ।
इस बार विश्व पुस्तक मेले के पहले प्रकाशकों को इस बात का अंदेशा
था कि नोटबंदी का असर दिखाई देगा । कई प्रकाशकों ने कार्ड से लेकर पेटीएम तक से
भुगतान लेने का इंतजाम किया हुआ था । लेकिन जिन प्रकाशकों के यहां ईपेमेंट का
इंतजाम नहीं था उनको भी कोई दिक्कत नहीं हुई । नोटबंदी का किसी प्रकार का कोई असर
देखने को नहीं मिला । भारी संख्या में पाठक पुस्तक मेले में पहुंचे और जमकर
खरीदारी की । आमतौर पर होता था कि हिंदी के मंडप में अंग्रेजी की तुलना में कम
पाठक पहुंचते थे लेकिन इस बार ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हिंदी के पाठकों ने
अंग्रेजी वालों को पीछे छोड़ दिया है, संख्या के लिहाज से भी और बिक्री के हिसाब
से भी । यह हिंदी के लिए सुखद संकेत है ।
4 comments:
बढ़िया लेखा...दरअसल विमोचन, लोकार्पण , मेलार्पण इत्यादि शब्द तब बेमानी हो जाते हैं जब एक गंभीर पाठक जिसे वास्तव में कोई किताब पढनी है वो इन सब ‘’औपचारिकताओं ’’ से आकर्षित नहीं होता |उसे यदि किताब पढनी है तो वो पुस्तक मेले से भी ( बगैर विमोचनों ) के खरीदेगा |या अमेज़न, या प्रकाशन गृह आदि से सीधे मंगवाता है |
पुराने और अपने ज़माने के मशहूर लेखक बतर्ज़ ,‘’जो दिखता है वो बिकता है’’ के दर्शन ( चलन ) पर नई ‘’भीड़’ में पीछे हो जाने और ( यदि वो सत्ता में हैं ) तो सत्ता से दूर हो जाने पर साहित्य बिरादरी से अलग थलग पड़ ही जाते हैं, अकेले अशोक बाजपेई ही इसके उदाहरण नहीं | लेकिन उन जैसे लेखकों के लिए ‘’भीड़ का पीछे चलता हुजूम ‘’ इस उम्र और पोजीशन तक आकर महत्वहीन हो जाता है |कुछ शब्द हर पुस्तक मेले में चंद नए शगूफों के नए नकोर पदार्पित होते हैं| किताबों , व्यवस्थाओं, शब्दों , प्रचार, विज्ञापनों , विषय / शिल्प , शैली आदि में नए प्रयोग किये जाते हैं और वो होने भी चाहिए वरना रीति /विधाओं में बासीपन की परतें चढ़ती जायेंगी | लेकिन एक तरफ इस प्रयोगात्मक नवीनता के साथ आगे बढ़ने की चुनौती और वहीं दूसरी और ‘’साहित्यिक विरासत ‘’ बनाम परम्परावाद की स्वीकृति इन दौनों ही अवधारणाओं के विरोधाभास को कैसे माना जा सकता है ? ‘’विरासत वादी परम्परा ‘’ की रीत संभवतः राजेन्द्र यादव जी से शुरू होती है व तथाकथित साहित्यक विरासत के दाबेदार ( संवाहक )यद्यपि कई लेखक/लेखिकाएं हैं |समय २ पर वो इसे सगर्व प्रस्तुत भी करती हैं लेकिन पिछले दिनों जब मशहूर और प्रिय लेखिका नासिरा शर्मा ने ये ‘’वसीयत’’ बाकायदा अपनी पसंदीदा लेखिकाओं को सौंपी तो पिछली क्षीण सी परम्परा को कुछ बल मिला | जबकि आज अनगिनत लेखक लेखिकाएं और बेहतर लिख रहे हैं इसकी आवश्यकता ही क्यूँ पडी कि नासिरा शर्मा को साहित्यिक वसीयत करनी पडी ? नए लेखन में अपनी पसंदीदा लेखिकाएं होना अलग बात है लेकिनं विरासत ?नासिरा शर्मा निस्संदेह बहुत बड़ी लेखिका हैं |उनका लिखा हमेशा पसंद आता है |वस्तुतः यदि ये परम्परा चल निकली तो सामान्य पाठकों का ‘’ गंभीर साहित्य’’ में विशवास कम होने का संकट पैदा हो सकता है | |संगीत की बात अलग है |संगीत परपराओं, खानदानो , और घरानों से आगे बढ़ता रहा है | गौरतलब है कि मुगलकाल में संगीत/ कलाओं की दुर्दशा के बाद इनमे अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो गयी थी |उस वक़्त के मूर्धन्य संगीत कलाकारों ( विशेषतौर पर मुस्लिम कलाकारों ने ) ने सिर्फ अपने खानदानी लोगों को अपनी ‘’पारम्परिक विशेषताओं के साथ ‘’संगीत की शिक्षा देना शुरू कर दिया था वो भी सिर्फ प्रायोगिक |इस हस्तांतरण में संगीत को विकसित होने का संकट पैदा हो गया था | भातखंडे , पलुस्कर जैसे संगीत के मूर्धन्य कलाकारों ने संगीत की परम्परा को ‘’सब के लिए’’ बनाने के लिए किताबें लिखीं , स्कूल कॉलेज खोले, सभाएं की आज शास्त्रीय संगीत उन जैसे विरले और अद्भुत महापुरुषों की बदौलत भी ज़िंदा है | और तब मूल विषय , शास्त्रीयता वही होते हुए अपनी विशिष्ट गुणात्मकता के साथ राज्यों, घरानों में संगीत बंट गया जिन्हें उनके शागिर्द हर काल में नया और विस्तार देते रहे हैं लेकिन साहित्य को जाहिराना तौर पर ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना पडा फिर साहित्य तो समाज को ही रेखांकित करता है और समाज परिवर्तनशील है फिर इसमें परम्पराएं कैसे पोषित की जा सकती हैं ? खैर
मैत्रेयी पुष्पा जी ,वो ज़ाहिर तौर पर एक सुप्रसिद्ध और समर्पित लेखिका हैं |वो हम सबकी आदरनीय हैं |हिन्दी साहित्य की एक मज़बूत कड़ी हैं |उनकी ‘’गुरु परम्परा’’ काफी चर्चित और पुष्ट रही है | अब वो सता में भी हैं | उनके आत्मीय सानिध्य का प्रतिफल उनके समक्ष के रचनाकारों को प्राप्त होता रहा है ये भी कोई नई बात नहीं | लेकिन बतौर हिन्दी की पाठक ,ये स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि निजी तौर पर उनका लेखन ख़ास पसंद नहीं | पत्र पत्रिकाओं में लेख समीक्षाएं आदि के सिवाय अब तक उनकी एक भी किताब नहीं पढी |अपने इस दुस्साहस पर मुझे खेद हैं |बावजूद इसके कि पाठक को ये हक़ है कि वो अपने पसंदीदा रचनाकारों को ‘’इमानदारी से’’ चुन सके |
विमोचन, लोकार्पण , मेलार्पण इत्यादि शब्द तब बेमानी हो जाते हैं जब एक गंभीर पाठक जिसे वास्तव में कोई किताब पढनी है वो इन सब ‘’औपचारिकताओं ’’ से आकर्षित नहीं होता |उसे यदि किताब पढनी है तो वो पुस्तक मेले से भी ( बगैर विमोचनों ) के खरीदेगा |या अमेज़न, या प्रकाशन गृह आदि से सीधे मंगवाता है |
पुराने और अपने ज़माने के मशहूर लेखक बतर्ज़ ,‘’जो दिखता है वो बिकता है’’ के दर्शन ( चलन ) पर नई ‘’भीड़’ में पीछे हो जाने और ( यदि वो सत्ता में हैं ) तो सत्ता से दूर हो जाने पर साहित्य बिरादरी से अलग थलग पड़ ही जाते हैं, अकेले अशोक बाजपेई ही इसके उदाहरण नहीं | लेकिन उन जैसे लेखकों के लिए ‘’भीड़ का पीछे चलता हुजूम ‘’ इस उम्र और पोजीशन तक आकर महत्वहीन हो जाता है |कुछ शब्द हर पुस्तक मेले में चंद नए शगूफों के नए नकोर पदार्पित होते हैं| किताबों , व्यवस्थाओं, शब्दों , प्रचार, विज्ञापनों , विषय / शिल्प , शैली आदि में नए प्रयोग किये जाते हैं और वो होने भी चाहिए वरना रीति /विधाओं में बासीपन की परतें चढ़ती जायेंगी | लेकिन एक तरफ इस प्रयोगात्मक नवीनता के साथ आगे बढ़ने की चुनौती और वहीं दूसरी और ‘’साहित्यिक विरासत ‘’ बनाम परम्परावाद की स्वीकृति इन दौनों ही अवधारणाओं के विरोधाभास को कैसे माना जा सकता है ? ‘’विरासत वादी परम्परा ‘’ की रीत संभवतः राजेन्द्र यादव जी से शुरू होती है तथाकथित साहित्यक विरासत के दाबेदार ( संवाहक )यद्यपि कई लेखक/लेखिकाएं हैं |समय २ पर वो इसे सगर्व प्रस्तुत भी करती हैं लेकिन पिछले दिनों जब मशहूर और प्रिय लेखिका नासिरा शर्मा ने ये ‘’वसीयत’’ बाकायदा अपनी पसंदीदा लेखिकाओं को सौंपी तो पिछली क्षीण सी परम्परा को कुछ बल मिला | जबकि आज अनगिनत लेखक लेखिकाएं और बेहतर लिख रहे हैं इसकी आवश्यकता ही क्यूँ पडी कि नासिरा शर्मा को साहित्यिक वसीयत करनी पडी ? नए लेखन में अपनी पसंदीदा लेखिकाएं होना अलग बात है लेकिनं विरासत ?नासिरा शर्मा निस्संदेह बहुत बड़ी लेखिका हैं |उनका लिखा हमेशा पसंद आता है |वस्तुतः यदि ये परम्परा चल निकली तो सामान्य पाठकों का ‘’ गंभीर साहित्य’’ में विशवास कम होने का संकट पैदा हो सकता है | |संगीत की बात अलग है |संगीत परपराओं, खानदानो , और घरानों से आगे बढ़ता रहा है | गौरतलब है कि मुगलकाल में संगीत/ कलाओं की दुर्दशा के बाद इनमे अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो गयी थी |उस वक़्त के मूर्धन्य संगीत कलाकारों ( विशेषतौर पर मुस्लिम कलाकारों ने ) ने सिर्फ अपने खानदानी लोगों को अपनी ‘’पारम्परिक विशेषताओं के साथ ‘’संगीत की शिक्षा देना शुरू कर दिया था वो भी सिर्फ प्रायोगिक |इस हस्तांतरण में संगीत को विकसित होने का संकट पैदा हो गया था | भातखंडे , पलुस्कर जैसे संगीत के मूर्धन्य कलाकारों ने संगीत की परम्परा को ‘’सब के लिए’’ बनाने के लिए किताबें लिखीं , स्कूल कॉलेज खोले, सभाएं की आज शास्त्रीय संगीत उन जैसे विरले और अद्भुत महापुरुषों की बदौलत भी ज़िंदा है | और तब मूल विषय , शास्त्रीयता वही होते हुए अपनी विशिष्ट गुणात्मकता के साथ राज्यों, घरानों में संगीत बंट गया जिन्हें उनके शागिर्द हर काल में नया और विस्तार देते रहे हैं लेकिन साहित्य को जाहिराना तौर पर ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना पडा फिर साहित्य तो समाज को ही रेखांकित करता है और समाज परिवर्तनशील है फिर इसमें परम्पराएं कैसे पोषित की जा सकती हैं ? खैर
मैत्रेयी पुष्पा जी ,वो ज़ाहिर तौर पर एक सुप्रसिद्ध और समर्पित लेखिका हैं |वो हम सबकी आदरनीय हैं |हिन्दी साहित्य की एक मज़बूत कड़ी हैं |उनकी ‘’गुरु परम्परा’’ काफी चर्चित और पुष्ट रही है | अब वो सता में भी हैं | उनके आत्मीय सानिध्य का प्रतिफल उनके समक्ष के रचनाकारों को प्राप्त होता रहा है ये भी कोई नई बात नहीं | लेकिन बतौर हिन्दी की पाठक ,ये स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं कि निजी तौर पर उनका लेखन ख़ास पसंद नहीं | पत्र पत्रिकाओं में लेख समीक्षाएं आदि के सिवाय अब तक उनकी एक भी किताब नहीं पढी |अपने इस दुस्साहस पर मुझे खेद हैं |बावजूद इसके कि पाठक को ये हक़ है कि वो अपने पसंदीदा रचनाकारों को ‘’इमानदारी से’’ चुन सके |
Bahut behtrin sir
'Maine inki kriti padhi nahi hai lekin...'haha...is jumle ka istemaal hona hi hai kyonki aaj kal koi bhi sahityakar apne likhe ko sabse sarvopari manta hai. Use fursat kahan ki dusron ki kitaab utha kar dekh le. Ab padhne walon se vimochan nahi karaya jata, facebook par atyadhik active aur fan following wale logon se vimochan karaya jata hai...jo baad unke photo tag krke unke kaseede padhe.
Main aapka yah lekh padh kar, kah rahi hun ki...Aapne ek behad sarthak lekh likha hai :D Bina pustak mela gaye wahan ka poora byora mila gaya.
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