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Friday, January 27, 2017

वैचारिक समानता की ओर बढ़ते कदम

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल और विवादों का चोली दामन का साथ रहा है । इस वर्ष अभी हाल ही में समाप्त हुए साहित्यके इस सबसे बड़े उत्सव में भी एक अलग ही किस्म का विवाद खड़ा करने की कोशिश की गई । इस विवाद की पृष्ठभूमि उस वक्त ही शुरू हो गई थी जब मेला के आयोजकों ने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले और संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य को मेले में वक्ता को तौर पर निमंत्रित किया था । संघ के बड़े अधिकारियों की जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में उपस्थिति और लगभग हर वर्ष इस आयोजन में दिखाई देनेवाले हिंदी के वरिष्ठ कवि और पुरस्कार वापसी के अगुवा अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश की अनुपस्थिति से जोड़कर देखा गया । दरअसल आयोजन के दसवें साल में अशोक वाजपेयी और असहिष्णुता के कथित झंडाबरदारों को जयपुर के इस साहित्यक महाकुंभ में निमंत्रित ही नहीं किया गया था । यह आश्चर्य की बात थी क्योंकि अशोक जी इस लिट फेस्ट में स्थायी अतिथि होते थे । अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश और हरि कुंजरू आदि को निमंत्रित नहीं करना और दत्तात्रेय होसबोले और मनमोहन वैद्य की उपस्थिति से कई लेखकों के चहरे पर बेचैनी के भाव दिखाई दे रहे थे । यह बात भी फैलाने की कोशिश की गई कि असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी समूह के लेखकों ने इस बार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का बहिष्कार किया जबकि सच्चाई इससे इतर थी । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की साख और वैश्विक ब्रांड के मद्देनजर यह बात किसी के भी गले नहीं उतर रही थी कि कोई लेखक इस उत्सव का बहिष्कार कर सकता है । कुळ लोगों ने सोशल साइट्स पर यह भ्रम फैलाने की कोशिश की । राजस्थान के कुछ लेखकों ने आयोजकों से दबी जुबान में फेस्टिवल के निदेशकों से अपनी आपत्ति दर्ज करवाई । बावजूद इसके संघ के पदाधाकरियों के सत्र में श्रोताओं की जबरदस्त भागीदारी रही । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में मौजूद लेखकों में भी उनको सुनने का कौतूहल देखने को मिल रहा था । अमूमन सभी लेखकों का कहना था कि संघ के विचारों को सुने बिना खारिज किया जाना उचित नहीं है ।
दरअसल अगर हम देखें तो भारत में संवाद की परंपरा रही है, वाद विवाद की नहीं । आजादी के बाद से एक खास तरीके से ऑर्ग्यूमेंट यानि बहस की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाने लगा । किसी प्रकार की बहस या वाद विवाद से तबतक कुछ हासिल नहीं होता जबतक संवाद ना हो । वाद विवाद या बहस की इसी संस्कृति को सत्ता के साथ लंबे समय तक चिपकी एक विचारधारा ने अपनाया । सत्ता की परजीवी इस विचारधारा ने समान विचार वाले लोगों से ही बहस की, ऐसा माहौल बनाया गया कि समाज में बौद्धिक विमर्श अपने चरम पर है लेकिन उससे कहीं कुछ असाधारण हासिल हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं है । बल्कि चिंतन की जो हमारी थाती थी उसपर भी आयातित बौद्धिकता लाद कर उसके विस्तार को अवरुद्ध किया गया । पाणिनी ने जो अष्टाध्ययी की रचना की और उसको एक वैज्ञानिक आधार दिया उसको भी धीरे-धीरे भुला दिया गया । संसार की सबसे वैज्ञानिक भाषाओं में से एक संस्कृत को पवित्रता के दायरे में बांधकर उसको पूजा पाठ की भाषा घोषित कर उसका गला घोंट दिया गया । मशहूर डच भाषाविज्ञानी और दार्शनिक फ्रिट्स स्टाल ने पाणिनी के मूल सिद्धांतों की तुलना यूक्लिड के ज्यामिती के सिद्धांतों से की है और कहा है कि जिस तरह से यूक्लिड ने ज्यामिती के सिद्धांतों को पूरे यूरोप में स्थापित किया उसी तरह से पाणिनी ने भारतीय ज्ञान परंपरा को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया । पहले विदेशी आक्रमणकारियों की वजह से इस परंपरा को नुकसान पहुंचा और बाद में वैचारिक आक्रमण ने इसके विकास को बाधित किया ।
भारतीय ज्ञान परंपरा को रोकने के लिए आजादी के बाद ऑर्ग्यूमेंट की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाने लगा । होना यह चाहिए था कि ऑर्ग्यूमेंट की जगह कनवरसेशन यानि विचार विनियमय होता लेकिन अमर्त्य सेन जैसे महान विद्वान ने भी आरग्यूमेंटेटिव इंडियन की अवधारणा को ही आगे बढ़ाया । नतीजा यह हुआ कि विचार विनिमय का दौर रुक गया । बहस वाली विचारधारा के अलावा जो भी विचारधारा थी उसको अस्पृश्य माना जाने लगा । उनसे संवाद तक रोक दिया गया । नतीजा, दशकों तक एक विचारधारा का एकाधिकार और जहां एकाधिकार होता है वहां अधिनायकवाद का जन्म होता है । इसी वाद के चलते पिछले नौ साल तक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में संघ से सीधे तौर पर जुड़े किसी विचारक या प्रचारक को वहां आमंत्रित नहीं किया गया । बगैर संघ के विचारों को सुने, बगैर उनसे संवाद किए उस विचारधारा को खारिज किया जाता रहा । जिस तरह से किसी प्रोडक्ट की एक लाइफ साइकिल होती है उसी तरह से विचारधारा भी उपर नीचे होती रहती है । वामपंथी विचारधारा के अंतर्विरोधों और मार्क्स के अनुयायियों के विचार और व्यवहार में अंतर ने उसको कमजोर किया तो लोग वैकल्पिक विचारधारा की ओर बढ़े । उसको जानने की कोशिश की जाने लगी और उसी कोशिश का नतीजा है मनमोहन वैद्य और दत्तात्रेय होसबोले का जयपुर लिटरेचपर फेस्टिवल में जाना । उनको विचारों को सुना गया अब उसके बाद अगर उसपर विचार विनिमय हो और विचारों की आवाजाही हो तो अस्पृश्यता की दीवार टूटेगी और यह स्थिति लोकतंत्र को मजबूत करने में सहायक होगी । जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल साहित्यक और वैचारिक विमर्श का मंच है और जब उसमें सभी विचारधारा के लोगों को समान मौका मिलेगा तो उसकी साख भी बढ़ेगी ।

जिस तरह से आयोजकों ने पुरस्कार वापसी समूह को इस बार निमंत्रित नहीं करके उनको अपनी राजनीति चमकाने का मौका नहीं दिया उसी तरह से उनको तस्लीमा नसरीन के विरोध को भी दरकिनार करना होगा । तस्लीमा का विरोध कर रहे चंद मुस्लिम संगठनों के दबाव में आकर अगर उनको बोलेने ता मंच नीं देने का फैसला वापस नहीं होता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा । तस्मीमा के विरोध और जयपुर लिट फेस्ट के आयोजकों की उनको भविष्य में नहीं बुलाने के आश्वासन पर भी हमारे बौद्धिक समाज में किसी तरह का कोई स्पंदन नहीं हुआ । यह भी एक किस्म की बौद्धिक बेइमानी है जब अभिव्यक्ति की आजादी पर चुनिंदा तरीके से अपनी प्रतिक्रिया देते हैं । जब बौद्धिक समाज या कोई विचारधारा अपने आंकलन में पक्षपात करने लगता है तब यह मान लेना चाहिए कि उसका संक्रमण काल है और वाम विचारधारा के अनुयायी करीब करीब हमेशा इस तरह का ही प्रतिक्रिया प्रदर्शन करते हैं ।  

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