इन दिनों कहानी पर लिखना बर्रे के छत्ते में हाथ डालने जैसा है,
सात्विक कहानियों पर अगर लिख दें तो चल भी जाएगा लेकिन स्त्रीवादी कहानी पर लिखना
बेहद जोखिम का काम है । दरअसल हम सहिष्णुता की बहुत बात करते हैं लेकिन जहां कहीं
भी जरा सी आलोचना दिख जाए या उसका अंदेशा भी दिखे तो कहानीकार या फिर उनके गुर्गे हमलावर
हो जाते हैं । साहित्यक पत्रिका हंस से राजेन्द्र यादव ने हिंदी साहित्य में स्त्री
विमर्श की शुरुआत की । स्त्री मुक्ति के नाम पर या स्त्री विमर्श के नाम पर देह
मुक्ति पर्व मनाया जाने लगा था । स्त्री विमर्श के नाम पर देह विमर्श होने लगा था ।
स्त्री विमर्श के पैरोकार राजेन्द्र यादव ने कुछ लेखिकाओं को सिमोन और वर्जिनिया
वुल्फ की घुट्टी पिलाई । सिमोन का नाम उस दौर में स्त्री विमर्श का नारा बनकर रह
गया था । सिमोन की स्वच्छंदता की कसमें खाई जाने लगी थी । राजेन्द्र यादव ने इस
प्रवृत्ति को खूब जमकर बढाया । लेकिन यादव जी भारतीय समाज और उसके मनोविज्ञान को
ठीक से भांप नहीं सके । जिन लेखिकाओं को उन्होंने सिमोन बनाने की ठानी थी या जिनको
वर्जिनिया वुल्फ की तरह देखना चाहते थे वो उनके रास्ते पर चली तो सही लेकिन हिचक
के साथ । इस हिचक ने हिंदी साहित्य में थोड़ा सिमोन, थोड़ा वर्जीनिया वुल्फ की
प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया । यादव जी की लेखिकाएं सिमोन जैसा साहस नहीं दिखा पाईं ।
लेकिन राजेन्द्र यादव ने लेखक लेखिकाओं की पूरी पीढ़ी तैयार की जो इस तरह का बोल्ड
लेखन कर सकें । बोल्ड लेखन की आड़ में राजेन्द्र यादव ने कई लेखकों को कहानीकार
बना दिया जिन्हें कलम पकड़ने की तमीज नहीं थी । उनमें से चंद लेखिकाओं के पास भाषा
का कौशल था लिहाजा वो देहगाथा को भी संभाल ले गईं । विषयगत प्रयोग भी किए और
आधुनिक कहानियों के साथ साथ ग्रामीण जीवन पर भी सफलतापूर्वक लिखा । इस बात को पहले
भी कहा जा चुका है कि बोल्ड लेखन सबके वश की बात नहीं है, बोल्ड लेखन के लिए भाषा
पर पकड़ होनी चाहिए । ज्यादा पीछे नहीं जाते हैं । कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी
को देखें, मृदुला गर्ग की कृति चितकोबरा को देखें, मैत्रेयी पुष्पा की चाक या फिर
अलमा कबूतरी को देखें तो उसमें जो देहगाथा आती है उसमें पाठकों को जुगुप्सा नहीं
होती है । चाक की सारंग का जो प्रसंग है वो बहुत स्वाभाविक तरीके से उपन्यास में
आता है और पाठक वहां उसको यौन प्रसंग के तौर पर देखने की बजाए एक घटना के तौर पर
देखते हैं । हलांकि इन सब ने अपने दौर में इस तरह के बोल्ड लेखन का विरोध झेला था
लेकिन वो विरोध वक्त के साथ दफन हो गया । यह विरोध इस वजह से दफन हुआ कि उन रचनाओं
में कंटेंट था । पिछले साल प्रकाशित बुजुर्ग
लेखिका रमणिका गुप्त की आत्मकथा आपहुदरी को देखें । भाषा के स्तर पर बेहद फूहड़ और
यौन घटनाओं की बहुलता ने पाठकों को बेहद निराशा किया ।
अगर हम पिछले साल को उदाहरण के तौर पर लें तो कहानी विधा के लिए उसको
बेहतर नहीं माना जा सकता है । एक ही तरह कि कहानियां, एक ही तरह का यथार्थ, एक ही
तरह की भावभूमि जैसे कहानीकारों के पास कहने को नया कुछ है ही नहीं । घिसी पिटी
लीक पर फॉर्मूलाबद्ध कहानियों की बाढ़ रही । मशहूर नाटककार इब्सन ने अपने नाटक घोस्ट्स
की भूमिका में लिखा है – हमारी सीमा के प्रसार का समय आ गया है । लेकिन सवाल यही
है कि क्या सीमा के प्रसार के नाम पर क्रांतिकारी नारेबाजी से काम चलेगा या फिर
कुछ सार्थक रचना होगा । इसपर विचार करना होगा कि क्या बोल्ड लेखन के उद्घोष या फिर
देहगाथा का परचम लहराकर नई सीमा तय की जा सकती है । क्या सालों से चले आ रहे विचार
का कोई परिष्कार हो पाया है । आधुनिकता के नारे के बीच विचार तो गौण हो ही गया है
परंपरा को भी हम भूलने लगे हैं । दरअसल पारंपरिक विचारों में जबतक नवीनता के साथ
सृजन नहीं होगा तबतक आधुनिकता का दावा बेमानी है । आधुनिकता का नारा खोखला लगता
रहेगा । व्यक्तिगत कुंठा से परे जाकर समाज के बड़े सवालों से टकराते हुए जब हम
आधुनिकता का दावा करते हैं तो यह भी देखना होता है कि रचना में अपने समय या समाज
को झकझोरने का माद्दा है या नहीं । बोल्ड लेखन के नाम पर राजेन्द्र यादव और उनके सिपहसलारों
ने आधुनिक और आधुनिकता के मानदंडों को इतना उलझा दिया कि उसको चिन्हित करने में
कठिनाई होने लगी है । समय सापेक्ष आधुनिकता को लेकर भ्रम की स्थिति बना दी गई ।
समसमायिकता के चित्रण को आधुनिकता से जोड़ दिया गया जिससे स्थिति और विकट होने लगी
। स्त्री पुरुष संबंधों के आधुनिक होने का आधार दैहिक संबंध होने लग गए । यहां इस
बात को फिर से दोहराना आवश्यक है कि दैहिक संबंधों का चित्रण भाषा का कुशल चितेरा
ही कर सकता है ।
हिंदी कहानी को लेकर जिस तरह की उदासीनता पाठकों में देखने को मिल
रही है वो बहद चिंता का विषय है । कहानी की बुनियादी शर्त है कि उसमें पठनीयता हो
और पाठकों का पढ़ने में मन लगे । बीते साल में कहानी की पठनीयता में जबरदस्त कमी
महसूस की गई और पाठकों का कहानी में मन लगने की बजाए मन उचटने के संकेत मिले । नई
कहानी के शोरगुल के बीच नामवर सिंह ने लिखा था कि – भाषा इधर की कहानियों की काफी
बदली है, यह भी कह सकते हैं कि मंजी है । यहां तक हिंदी गद्य का अत्यंत निखरा हुआ
रूप आज की कहानी में ही सबसे अधिक मिलता है । कहानी में एक भी फालतू शब्द ना आये,
इसके प्रति आज का लेखक बहुत सतर्क है । तब नामवर सिंह ने इसको कहानी के लिए शुभ
लक्ष्ण माना था । नामवर सिंह के इस कथन के आलोक में आज की कहानियों पर विचार करने
से लगता है कि कहानी में भाषा के स्तर पर ना तो कोई बदलाव दिखाई देता है और ना ही
कोई कहानीकार अपनी कहानियों में भाषा के साथ खिलंदड़ापन ही करता दिखाई देता है । इसके
अलावा आज की कहानियों में भी कई फालतू शब्द भी आवारागर्दी करते नजर आते हैं । भाषा
को निखारने की बात तो छोडिए जो भाषा सही से लिख नहीं पाते हैं, जिनकी वर्तनी से
लेकर व्याकरण तक दोषपूर्ण है उनको भी कहानीकार मान लिया जाता है । भाषा के अलावा
कहानी से कहानीपन भी तो गायब होता चला गया ।
आज की कहानियों के कथानक पर अगर हम विचार करें तो पाते हैं वो लगभग
सपाट है । कहीं किसी भी तरह का उतार चढ़ाव नहीं, नामवर जी इसकी तुलना बहुधा पहाड़ी
रास्तों से करते हैं जहां कदम कदम पर आकस्मिक मोड़ मिलते हैं । रूसी कथाकार चेखव
को ऐसी कहानियों का जनक माना जाता है और उनके प्रभाव में यह प्रवृत्ति विश्वव्यापी
हो गई । हिंदी भी इससे अछूती नहीं रही । नामवर सिंह के मुताबिक ये कहानी में
यथार्थवाद की विजय का पहला उद्घोष था । जिस वक्त चेखव ने यह प्रयोग किया था उस
वक्त पाठकों ने इसको काफी पसंद किया था क्योंकि इसमें एक नयापन था । हिंदी में भी
यथार्थवादी कहानियां इस वजह से ही स्वीकृत और प्रशंसित हुईं । कहानी की इस तकनीक
की सफलता से हिंदी कहानी के ज्यादातर कथाकारों ने इसको अपनाया । नतीजा यह हुआ कि
हिंदी में यथार्थवादी कहानियों की बाढ़ सी आ गई । धीरे-धीरे पाठकों को इस तकनीक से
लिखी गई कहानियों में दुहराव नजर आने लगा । हाल में तो यथार्थवादी कहानियों के नाम
पर सीधे-सीधे घटनाओं को लिखा जाने लगा । इसने कहानी विधा का बहुत नुकसान किया ।
कथानक की साम्यता ने पाठकों को निराश करना शुरू कर दिया । बल्कि कई कहानीकारों पर
तो नकल का इल्जाम भी लगा जबकि कथानक में समानता चेखव की तकनीक को अपनाने की वजह से
आ रही थी । जब भीहम यथार्थवादी कहानियों की बात करते हैं तो हमें प्रेमचंद और
जैनेन्द्र के बीच की एक दिलचस्प बातचीत का स्मरण हो आता है । प्रेमचंद ने
जैनेन्द्र से कहा कि उपन्यास लिखो उपन्यास । जैनेन्द्र ने पूछा कि कैसे लिखें तो
प्रेमचंद ने कहा कि घर में नाते-रिश्तेदार जो हों उनको ही लेकर लिख दो । प्रेमचंद
की इस सीख को कहानीकारों ने सालों तक उपयोग किया । उदय प्रकाश की कहानियों में तो इसको अब भी देखा जा सकता है । उसके बाद कहानी
सालों तक कहानीकारों ने रेणु के प्रभाव
में कहानियां लिखीं थी । इसी क्रम को ईदगे बढ़ाते हुए आधुनिकता के नाम पर
राजेन्द्र यादव ने कम से कम एक दशक तक देह को केंद्र में रखकर कहानियां लिखवाईं । लेकिन
हिंदी कहानी को अब अपना रास्ता बदलना होगा । अगर वक्त रहते हिदीं कहानी ने अपना
रास्ता नहीं बदला तो उसके सामने गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है ।
1 comment:
गजब विश्लेषण।
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