भारतीय संगीत के सफर में कई मुकाम आए और कई संगीतकारों ने अपनी
धुनों से इसको ना केवल समृद्ध किया बल्कि उसको लेकर सफल प्रयोग भी किए । संगीत की
धुनों के साथ ऐसे ही प्रयोगधर्मी कलाकार थे राहुल देव बर्मन जिन्हें पंचम के नाम
से भी जाना जाता है । पंचम नाम की भी एक दिलचस्प कहानी है । बात उन दिनों की थी जब
उनके पिता सचिन देव बर्मन कोलकाता से मुंबई आ गए थे और बाल राहुल भी छुट्टियों में
अपने पिता के पास आ जाते थे । उनको भी सुर लगाने का शौक था । एक दिन एक गीत के
रिहर्सल के दौरान अशोक कुमार ने राहुलदेव बर्मन से भी सुर लगाने को कहा लेकिन वो ‘प’ का उच्चारण ठीक से
नहीं कर पा रहे थे । उनके ‘प’ के मनोरंजक उच्चारण का मजाक उडाने के
क्रम में उनका नामकरण ‘पंचम’ हो गया । कहा जाता है कि दादामुनि
अशोक कुमारे ने ये नाम उनको दिया था । बचपन से संगीकार बनने की ख्वाहिश पाले सचिन
दा को महमूद ने अपनी फिल्म ‘छोटे नवाब’ में मौका दिया था
। हलांकि इसके पहले गुरुदत्त भी उनसे अपनी एक फिल्म के लिए उनको साइन किया था
लेकिन फिल्म बन नहीं पाई थी । संगीतकार के तौर पर फिल्मों में संगीत देने के पहले
पंचम दा ने ब्रजेन विश्वास से तबला और अली अकबर खान से सरोद की शिक्षा ली थी । हारमोनियम
पर उनका हाथ पहले से साफ था । तबले की इस शिक्षा का उत्स देखने को मिला था फिल्म ‘शोले’ में जब फिल्म में
जब दो घुड़सवार रेलवे स्टेशन से रामगढ की ओर जाते हैं । रेलवे स्टेशन से रामगढ़ तक
जाने के रास्ते में संगीत की बारीकियों को अगर ध्यान से देखें तो इसमें गिटार,
फ्रेंच हॉर्न और तबला तरंगों के कंपनों से जिस तरह की प्रभावोत्पादकता पैदा होती
है वह कोई सधा हुआ संगीतकार ही कर सकता है । जब घुड़सवार गांवों की पगडंडियों से
गुजरते हैं तो धुन एकदम से बदलकर देहाती माहौल का आभास देता है । जब वो ठाकुर के
घर के पास पहुंचते हैं तो एक बार फिर से धुन अपनी राह बदलती है शहनाई के रास्ते
होते हुए वापस अपने शुरुआती धुन पर लौटती है ।
जब पंचम मुंबई आए थे तो उनके नाम के साथ लगा देव बर्मन उनके लिए
सबसे बड़ी चुनौती थी । उन्हें अपने पिता से अलग राह ढूंढनी थी । उन्होंने दुनियाभर
के संगीत को सुना और उसके बाद उन्होंने जिस तरह की धुनों की रचना की उसने देव
बर्मन के नाम को सार्थक किया । राहुल देव बर्मन पर बहुधा ये आरोप लगता रहा कि वो
अपने धुनों में बहुत लाउड होते हैं । होते भी थे, लेकिन धुनों पर उनकी पकड़ इतनी
जबरदस्त थी कि वो इस लाउडनेस को कर्णप्रिय बना देते थे । धुनों की रचना करने में
उनको महारथ हासिल थी और कई बार तो वो गाने के बोल सुनते सुनते ही मन ही मन धुनों
की रचना कर डालते थे । फिल्म ‘सागर’ के दौर की एक बेहद दिलचस्प कहानी है
। जावेद अख्तर फिल्म के डॉयलॉग लिखने के लिए खंडाला में थे अचानक उनको फिल्म की
संगीत को लेकर होनेवाली बैठक के लिए मुंबई का बुलावा आया । आर डी बर्मन ने जावेद
अख्तर को एक धुन दी हुई थी जिसके अनुसार उनको गाना लिखना था । जावेद अख्तर कोशिश
करके हार चुके थे लेकिन धुन के हिसाब से गाने के बोल बन नहीं पा रहे थे । वजह ये
थी कि जावेद अख्तर एक ऐसी पंक्ति उस गाने में रखना चाहते थे लेकिन वो उसके मीटर
में फिट नहीं बैठ रही थी । लिहाजा जावेद ने पंचम दा के दिए गए धुन को दरकिनार करते
हुए अपनी मर्जी का गीत लिख दिया । जब जावेद खंडाला से मुंबई आए तो राहुल देव बर्मन
और रमेश सिप्पी अपनी टीम के साथ उनका इंतजार कर रहे थे । जावेद ने घुसते ही कहा कि
वो धुन के हिसाब से गाना नहीं लिख पाए हैं । पंचम दा ने कहा कि चलो जो गाना तुमने
लिखा है वही मुझे लिखवाओ । जावेद गाना लिखवाने लगे । जैसे ही राहुल देव ने गाना
लिखकर खत्म किया उन्होंने हारमोनियम उठाई और धुन के साथ गाने लगे – ‘चेहरा है या चांद
खिला है, जुल्फ घनेरी शाम है क्या’ । मतलब ये कि गाना लिखते लिखते ही
राहुलदेव ने उसकी धुन तैयार कर ली । ‘सागर’ फिल्म का ये गाना बेहद हिट रहा था । ऐसे
कई किस्से हैं पंचम दा से जुड़े । दरअसल अगर हम देखें तो पंचम दा में ये खूबी थी
कि वो संगीत के माध्यम से दृश्यों में जीवन के रंग भर देते थे । हर क्षेत्र में कई
लोग सफल होते हैं लेकिन बदलते वक्त के साथ उनको भुला दिया जाता है लेकिन चंद लोग
ही ऐसे होते हैं जो सफल तो होती ही हैं अपने अभूतपूर्व कामों से विधा को एक नई
ऊंचाई देते हैं । आरडी बर्मन ने भी मौजूदा वाद्य यंत्रों के साथ साथ नए
वाद्ययंत्रों के साथ नई धुन और नई संवेदना के साथ ऐसा संगीत रचा जो कालजयी हो गया
। सत्तर और अस्सी के दशक के पंचम के बनाए धुन आज भी समकालीन लगते हैं । आर डी
बर्मन को बहुत ही कम उम्र मिली और चौवन साल की उम्र में ही संगीत का ये सितारा डूब
गया ।
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