दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला शुरू हो चुका है । सोशल मीडिया पर
लेखकों का उत्साह देखते ही बन रहा है । जिस लिहाज से सोशल मीडिया पर किताबों के
छपने और उसके लोकार्पित होने के कार्ड पोस्ट हो रहे हैं उससे तो यही लगता है कि कम
से कम प्रकाशकों पर नोटबंदी का कोई असर नहीं पड़ा है । पुस्तक मेले में आ रही
किताबों को देखकर भी यही लग रहा है कि कविता संग्रह तक छापने में प्रकाशकों के
सामने कोई दिक्कत नहीं है । थोक के भाव से कविता संग्रहों के प्रकाशन की सूचना
सोशल मीडिया पर साझा की जा रही हैं । सतह पर भले ही यह दिखता हो लेकिन कुछ नए
प्रकाशकों ने लेखकों, कवियों, कहानीकारों की प्रसिद्ध होने की चाहत में अपने
कारोबार का रास्ता ढूंढ लिया । कविता संग्रह या कहानी संग्रह छपवाने के लिए लेखक
कवि पैसे खर्च करने के लिए तैयार हैं । कविता संग्रह का रेट तीस हजार के करीब
बताया जा रहा है जिसमें तय ये होता है कि जितने पैसे लेखक देगा उतने मूल्य की
किताब उनको दे दी जाएगी । हलांकि ये कोई नई प्रवृत्ति नहीं है । ये पहले से होता
आया है लेकिन अब सांस्थानिक रूप से होने लगा है । पहले प्रकाशक भी और लेखक भी छिप
छिपाकर ये काम करते थे लेकिन अब तो बकायदा करार करने के बाद ये काम हो रहा है । हिंदी के कई प्रकाशक तो अब खुलकर इस कारोबार में
आ गए हैं । तकनीक ने इस काम को और आसान बना दिया है । डिजीटल प्रिंटिंग से किताबें
छापने की सहूलियत के बाद तो एक प्रति से लेकर पच्चीस प्रति तक छापने की छूट मिल गई
है । लेखक या प्रकाशक जितना चाहे या फिर जितनी प्रतियों का सौदा हो जाए उतनी
प्रतियां छाप ली जाती हैं । डिजीटल प्रिंटिंग से निकाली गई किताब छपाई की अन्य तकनीक
के मुकाबले देखने में सुंदर भी लगती है । विमोचन या लोकार्पण के वक्त उसकी तारीफ
भी हो जाती है । सोशल मीडिया पर खूबसूरत कवर आदि पोस्ट होने से लेखक को वहां
प्रसिद्धि भी मिल जाती है । लाइक्स से लोकप्रियता भी तय हो जाती है।
इस प्रवृत्ति के बढ़ने पर सवाल नैतिकता का नहीं है, किसी भी लेखक को
अपनी किताब अपने धन से छपवाने का पूरा हक है । अगर लेखक के पास पैसा है और प्रकाशक
छापने के लिए तैयार है तो किसी का भी इसपर आपत्ति उठाना गलत है । सवाल तो
पारदर्शिता का है । जो भी किताब लेखक के पैसे या सेल्फ फाइनेंसिंग स्कीम के तहत
छपें उस किताब पर यह बात छपी होनी चाहिए । इससे पाठकों को लेखक को समझने में
सहूलियत होगी । पाठकों को पता होगा कि अमुक कृति लेखक ने खुद छपवाई है और फलां
कृति प्रकाशक ने अपनी पूंजी से छपवाई है । फेसबुक पर मीडिया पर पेड न्यूज को लेकर
हमलावर दिखनेवाले नैतिकता के साहित्यक ठेकेदार इस प्रवृत्ति पर मुंह खोलने को
तैयार नहीं दिखाई देते हैं । ना ही प्रकाशकों से रॉयल्टी का रार करनेवाले लेखक इस
तरह की मांग करते दिखाई देते हैं कि लेखक के पैसे से छपी किताबों पर इस बात का
उल्लेख होना चाहिए । लेखकों के पैसे से छपी किताबों पर इस तरह की जानकारी का ना
होना एक तरह से पाठकों का छल भी है । लेखकों के संगठन भी इस मसले पर खामोश हैं । सहिष्णुता,
असिहष्णुता जैसे मुद्दों पर एक मंच पर आनेवाले लेखक संगठन और अन्य साहित्यक संगठन
भी इस मुद्दे पर खामोश हैं । आखिर क्यों ? क्या लेखकीय
पारदर्शिता और ईमानदारी के मुद्दे पर इन संगठनों की खामोशी इनको कठघरे में खड़ा
नहीं करती है ।
अगर इस धंधे में पारदर्शिता आ जाए तो लेखक और भाषा दोनों का भला होगा
। प्रकाशन के धंधे में अब तो कई कंपनियां ऐसी भी आ गई हैं जो प्रिंट ऑन डिमांड का
काम कर रही हैं । इनके काम करने का तरीका ये होता है कि जितनी प्रतियों का आदेश
मिलता है वो इतनी ही प्रतियां छाप कर ग्राहक को भेज देते हैं । पहले वो ऑनलाइन
स्टोर में किताब का कवर और उसका परिचय पोस्ट करवाते हैं और जैसे जैसे ग्राहक किताब
का आर्डर करते हैं वैसे वैसे छाप कर ग्राहकों को भेजते रहते हैं । आदेश मिलने के
चौबीस घंटे के अंदर किताब छपकर ग्राहक को भेज दिया जाता है । यह काम किसी भी किताब
के लिए अंतराष्ट्रीय बाजार में ग्राहकों तक पहुंचने का बेहतर रास्ता है । अगर
अमेरिका में बैठा कोई पाठक अमुक लेखक की किताब खरीदना चाहता है तो वो ऑनलाइन स्टोर
में उसका आदेश देता है और उसी देश का प्रकाशक उस किताब को छापकर ग्राहक को भेज
देता है । यह तकनीक की सहूलियत है और इसका फायदा हिंदी के लेखकों को उठाना चाहिए ।
बजाए बाजार का फायदा उठाने के हिंदी के वैसे लेखक जो फौरी प्रसिद्धि चाहते हैं वो
उसके ट्रैप में फंस जा रहे हैं । सेल्फ फाइनेंसिंग बुरी बात नहीं है, बुरा है इसका
गुपचुप तरीके से होना। अगर किसी लेखक के पास पैसा है तो वो इसको साहित्य में निवेश
करना चाहता है तो इसको सोच समझ कर इस तरह से निवेश किया जाना चाहिए कि लेखक के
फायदे के साथ साथ साहित्य का भी भला हो । इस तरह की प्रवृत्ति पर वृहत्तर लेखक
समुदाय को मिल बैठकर बात करनी चाहिए वर्ना आनेवाले दिनों में इसका जो सबसे बड़ा
नुकसान दिखाई देता है वह है साहित्य की साख पर बट्टा । जिसके भी पास पच्चीस तीस
हजार रुपए होंगे वो अपनी किताब छपवाकर बेचने लग जाएगा । किसी भी प्रकार अगर वो दो
चार पाठकों को बेचने में भी सफल हो जाता है तो उन दो चार पाठकों का तो मोहभंग होगा
और वो अपने को ठगा हुआ महसूस करेगा । लेखक संगठनों को , लेखकों को , अकादमियों को
इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए और पारदर्शिता के बारे में जरूरी कदम
उठाने चाहिए । सोचना तो भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भी चाहिए जो
पुस्तकों को छपने के पहले आईएसबीएन नंबर प्रदान करती है । नंबर देने के पहले उसको
प्रकाशकों से यह जानकारी देना अनिवार्य कर देना चाहिए कि किसी पूंजी से इस पुस्तक
का प्रकाशन हो रहा है । अगर ऐसा हो पाता है तो इसके दीर्घकालिक परिणाम होंगे और
साहित्य का भला होगा । साख तो कायम रहेगी ही ।
2 comments:
पहले भी तो ऐसा होता था हालांकि वे केवल अपनी किताबें प्रकाशित करते थे। उदयाचल, अक्षर ( राजेंद्र यादव ) उपेन्द्र नाथ अश्क आदि अनेक उदाहरण हैं। रेणु की प्रसिद्ध पुस्तक मैला आँचल भी पहली बार खुद के पैसों से छपाई गई थी। हाँ अब प्रकाशकों ने लेखकों के शोषण का जरिया बना लिया है।
आपका लेख सराहनीय है व गम्भीर विषय की ओर इंगित करता है| साहित्य जगत में व्याप्त कुरीतियाँ क्या इसकी जिम्मेदार नहीं? साहित्य जगत का गिरता स्तर किताबों के प्रति जनता का अरुचि क्या इसकी जिम्मेदार नहीं? प्रकाशक का पुस्तक बेचने में असफल होना भी इसका मुख्य कारण है...मेरा गरीब साहित्यिक समाज आज बीमार है जरूरत है इसके इलाज की.......
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