ओमपुरी जब स्कूल में थे उसी वक्त उनके मन में अभिनेता बनने की लललक
पैदा हुई । जब वो नौंवी के छात्र थे तो उन्होंने एक फिल्म की ऑडीशन का विज्ञापन
देखा और उसमें बताए गए पते पर अपनी अर्जी भेज दी । अर्जी भेजने के बाद उनके दिल की
धड़कन तेज होती रहती थी हर दिन वो डाकिए का इंतजार करते थे । कुछ दिनों के बाद
उनके इंतजार की घड़ियां खत्म हुई और एक बेहद खूबसूरत और रंगीन पोस्टकार्ड उनके पते
पर पहुंचा जिसमें ओमपुरी को ऑडिशन के लिए लखनऊ बुलाया गया था । पोस्टकॉर्ड पर इतना
पढ़ने के बाद ओमपुरी का दिल बल्लियों उझलने लगा । उन्हें क्या पता था कि उसी रंगीन
पोस्टकार्ड में कुछ शर्तें भी लिखी हैं । वो ऐसी शर्त थी जिसको ओमपुरी पूरा नहीं
कर सकते थे । शर्त थी आडिशन के लिए आनेवाले हर अभ्यार्थी को एंट्री फीस के तौर पर
पचास रुपये देने थे । उस वक्त ओमपुरी के परिवार की माली हालत ऐसी नहीं थी कि वो
पचास रुपए का जुगाड़ कर पाते । तंगहाली में दिन गुजार रहे ओमपुरी के पास ना तो
पचास रुपये थे और ना ही लखनऊ आने जाने का किराया, सो फिल्मों में काम करने का यह
सपना भी सपना ही रह गया । जिस फिल्म के ऑडिशन के लिए ओमपुरी को बुलावा आया था लह
फिल्म थी जियो और जीने दो ।
वक्त के साथ ओमपुरी की हसरतें भी जवान हो रही थीं और वो किसी तरह अभिनय को अपना
करियर बनाना चाहते थे । वक्त के थपेड़ों से जूझते ओमपुरी दिल्ली आते है और नेशनल
स्कूल ऑफ ड्रामा में एडमिशन लेते है । अब यहां ओमपुरी के मन में अलग तरह की कुंठा
पैदा होती है । नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में रहने के दौरान वो अपनी शिक्षा को लेकर
और पंजाबी मिश्रित हिंदी को लेकर अपने को कमतर समझने लगे थे । उनके मन में यह घर
करने लगा कि उनका उच्चारण बहुत खराब है और हिंदी में पंजाबियत का जो टच है वो उनको
औसत अभिनेता बना देगा । अपने इस डर के दबाव में वापस पटियाला जाना चाहते थे । ओम
की इस समस्या को उस वक्त के एनएसडी के डायरेक्टर अब्राहम अल्काजी ने भांपी ली थी ।
वो ओमपुरी की इस परेशान को दूर करना चाहते थे और उन्होंने इसके लिए एम के रैना से
बात की । अल्काजी ने रैना को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वो ओमपुरी के मन में
बढ़ रहीइल कुंठा को दूर करें और उनके उच्चारण पर काम करें । एम के रैना ने ओमपुरी
के साथ वक्त बिताना शुरू किया और फिर ओमपुरी के दर आत्मविश्वास पैदा हो गया । कहा
तो यहां तक जाता है कि ओमपुरी अपनी डॉयलॉग डिलीवरी के लिए याद किए जाते हैं लेकिन
इसके पीछे उनकी कड़ी और लंबे समय तक की गई मेहनत थी । फिल्म गांधी के एक लाइन के
डॉयलॉग के लिए ओमपुरी ने घंटों मेहनत की थी ।
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में ओमपुरी को नसीरुद्दीन शाह जैसा दोस्त मिला जो
उनकी जिंदगी के आखिकी दिनों तक बड़े भाई की भूमिका में रहा । अपनी आत्मकथा एंड दैन वन डे में नसीर ने ओम पुरी का जहां भी
नाम लिया है बेहद आत्मीयता औरर स्नेह के साथ । नसीर ने यह माना है कि ओमपुरी का
जीवन उनके लिए प्रेरणा रहा है । अपनी आत्मकथा में नसीर ने लिखा है कि नेशनल स्कूल
ऑफ ड्रामा में तीन साल के दौरान उन्होंने महसूस किया कि बीते सालों में उनका घमंड
बढ़ा जबकि ओम पुरी ने एक अभिनेता के रूप में बेहद मेहनत से अपने लिए
जमीन तैयार कर ली । नसीरुद्दीन शाह ईमानदारी से इस बात को स्वीकारते हैं कि ओम की
मेहनत से वो बेचैन होते थे लेकिन इसमें डाह का भाव नहीं होता था बल्कि खुद के लिए
धिक्कार का भाव होता था । इस कमी को दूर करने के लिए नसीर ने सत्यदेव दुबे के साथ
काफी दिनों तक मेहनत की । लेकिन बावजूद इसके ओमपुरी हर मुकाम पर उनके साथ साए की
तरह रहे । नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के बाद दोनों पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन
इंस्टीट्यूट पहुंचे । नसीरुद्दीन शाह तो ओम को अपनी जान बचानेवाला दोस्त मानते रहे
हैं । दरअसल हुआ ये था कि मंथन के दौरान एक शख्स ने नसीर पर जानलेवा हमला किया था
। नसीर बुरी तरह से जख्मी हो गए थे और अफरातफरी के माहौल में ओमपुरी ही नसीर को
लेकर अस्पताल पहुंचे थे । वहां तबतक रहे थे जबतक कि नसीर ठीक नहीं हो गए थे ।
जैसा कि आमतौर पर होता है कि पुणे के बाद अगला पड़ाव मुंबई होता है
वही ओम के साथ भी हुआ । यहां पहुंचकर फिर से एक बार शुरू हुआ फिल्मों में काम पाने
के लिए संघर्षों का दौर । यहां ओम को पहला असाइनमेंट मिला एक पैकेजिंग कंपनी के एक
विज्ञापन में जिसे बना रहे थे गोविंद निहलानी । फिर फिल्मों के लिए संघर्ष का दौर
शुरू हुआ तब ओमपुरी की शक्ल को देखकक शबाना ने कहा था कि इन दिनों जाने कैसे कैसे
लोग हीरो बनने चले आते हैं । इस तरह की अपमानित करनेवाली टिप्पणियां भी ओमपुरी को
डिगा नहीं पाई और उन्होंने अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई । ओम पुरी ने सद्गति,
आक्रोश, अर्धसत्य, मिर्च मसाला और धारावी जैसी फिल्मों में यादगार भूमिका निभाई । बाद
मे वो कमर्शियल फिल्मों में भी काम करने लगे जाने भी दो यारो, चाची 420, मालामाल
वीकली, माचिस, गुप्त, सिंह इज किंग औपर बजरंगी भाईजावन जैसी फिल्मों में कॉमिक रोल
भी किए । अर्धसत्य में उनकी शानदार भूमिका के लिए नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिला था ।
हिंदी फिल्मों के अलावा उन्होंने कई अंग्रेजी फिल्मों में भी काम किया और वहां भी
अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी । घोस्ट ऑ द डार्कनेस, सिटी ऑफ जॉय, माईसन द
फैनेटिक, वुल्फ जैसी फिल्मों में उनके काम को अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली ।छोटे
पर्दे पर कक्का जी कहिन के काका के तौर पर उनकी भूमिका अब भी मील का पत्थर है ।
ओमपुरी के निधन के बाद बॉलीवुड में अभिनय का वो कोना सूना हो गया जहां से सार्थक
फिल्में निकला करती थीं ।
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