दिल्ली में चल रहे विश्व पुस्तक मेले का आज आखिरी दिन है । विश्व
पुस्तक मेले में ताबड़तोड़ किताबों का विमोचन हुआ । हर विधा की सैकड़ों किताबों का
मेलार्पण हुआ कभी लेखक मंच पर तो कभी प्रकाशकों के स्टॉल पर ही विमोचन हुआ । कहीं ताजा
ताजा छप कर आई किताबों का विमोचन हुई तो कहीं पखवाड़े भर पहले छपी किताबों को वहां
मौजूद लेखकों से मेलार्पण करवा दिया गया । जाहिर है कि इस तरह के मेलार्पण सोशल
मीडिया के लिए किए करवाए गए । इसमें कोई बुराई भी नहीं है कम से कम फेसबुक आदि पर
फोटो पोस्ट करने से पाठकों तक जानकारी तो पहुंची कि अमुक लेखक की अमुक किताब अमिक
प्रकाशन से प्रकाशित हुई । किताबों की बड़ी संख्या में विमोचन और मेले में हर दिन
पाठकों की उपस्थिति ने पुस्तकों को लेकर पाठकों के बढ़ते प्रेम की ओर भी इशारा
किया जिससे एक आश्वस्तिकरक स्थिति बनी । मेले पर नोटबंदी का भी कोई असर दिखाई नहीं
दिया । पाठकों की स्टॉलों पर भीड़ लगी रही और खरीद भी हुई । इतना बदलाव अवश्य
देखने को मिला कि लगभग सभी प्रकाशकों ने पेटीएम से या फिर क्रेडिट कार्ड से भुगतान
की सहूलियत का इंतजाम कर रखा था । मेले में किताबों पर चर्चा के दौरान छिटपुट
विवाद भी हुए । मैत्रेयी पुष्पा की राजेन्द्र यादव पर लिखी किताब पर चर्चा के
दौरान लेखकों में पीढ़ियों की टकराहट भी देखने को मिली । लेकिन जिस एक बात को
रेखांकित किया जाना आवश्यक है वह है हिंदी के स्थापित कवियों के संग्रह का मेले के
दौरान प्रकाशित नहीं होना । उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल ने अपनी टीम से एक सर्वे
करवाया है जिसकी सूचना उन्होंने फेसबुक पर साझा की है ।
मोरवाल जी द्वारा करवाए गए सर्वे के मुताबिक - मेले से हिंदी कविता
लगभग पूरी तरह अनुपस्थित है. प्रकाशकों के स्टाल्स पर एक के बाद एक ,कहानी संग्रह और
उपन्यासों के लोकार्पण और उन पर चर्चा कराई जा रही है ,या हो रही है वहां
कविता एक तरह से उपेक्षित-सी रही है. हिंदी के बड़े कवि कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, अशोक
वाजपेयी, विष्णु
खरे,
मंगलेश डबराल , लीलाधर
जगूड़ी, उदय
प्रकाश,कृष्ण
कल्पित , अनामिका, सविता सिंह , नरेश सक्सेना , लीलाधर मंडलोई, मदन कश्यप का कोई कविता
संग्रह मेले में नहीं आया । इसके अलावा भी संजय कुंदन, पवन करन, संजय चतुर्वेदी, कात्यायनी , अनीता वर्मा जैसे उनके
बाद की पीढ़ी के कवियों के संग्रह भी प्रकाशित नहीं हुए । इस सर्वे के मुताबिक लगभग
यही स्थिति फेसबुक से उपजे युवा कवि-कवयित्रियों की भी रही। चर्चा हुई भी होगी तो
उस तरह नहीं जिस तरह मंचीय कवियों और ग़ज़लों के नाम पर लोकप्रिय शायरी को
प्रोत्साहित किया जा रहा है । अगर इस सर्वे के नतीजों को सही माना जाए तो कविता के
लिए ये स्थिति उत्साहजनक तो नहीं ही कही जाएगी । हिंदी के कवियों को इस पर विचार
करने की जरूरत है कि क्या वजह है कि प्रकाशन जगत के इस सबसे बड़े आयोजन में
स्थापित कवियों की अनुपस्थिति दर्ज की गई । क्या कविता अपने समय से पिछड़ गई है या
फिर कविता को लेकर पाठकों में कोई उत्साह नहीं रहा जिसका प्रभाव प्रकाशकों की
उदासीनता के रूप में सामने आ रहा है । दूसरी बात ये भी देखने को मिली कि छोटे छोटे
कई प्रकाशकों की सूची के नए प्रकाशनों में कविता संग्रहों को अच्छी खासी जगह मिली
हुई है । तो क्या कविता को लेकर प्रकाशन का अर्थशास्त्र बदल रहा है । या फिर कोई
और वजह है । कविता एक ऐसी विधा है जो साहित्य को हमेशा से नये आयाम देती रही है
अगर उसपर किसी तरह की आंच आती है तो यह गंभीर बात होगी ।
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