क्या यह बिडंबना नहीं है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी देश के उच्च
और सर्वोच्च न्यायलयों में भारतीय भाषाओं में काम-काज नहीं हो पा रहा है । कई बार
हाईकोर्ट में स्थानीय भाषाओं में सुनवाई और फैसलों का प्रस्ताव सामने आया लेकिन वो
योजना परवान नहीं चढ़ पाई और इन अदालतों में अब भी अंग्रजी में ही कामकाज हो रहा
है । अब उच्च न्यायलयों में अंग्रेजी के दबदबे को खत्म करने की दिशा में कानून
मंत्रालय की संसदीय समिति ने बेहद अहम प्रस्ताव रखा है । संसदीय समिति ने देश के
सभी चौबीस उच्च न्यायलों में हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में कामकाज करने की
सिफारिश की है । संसदीय समिति के प्रस्ताव के मुताबिक संविधान में केंद्र सरकार को
इस बारे में फैसला लेने का अधिकार दिया गया है । संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में
इस बात पर भी जोर दिया है कि इस मसले पर अदालतों की सलाह लेने की जरूरत नहीं है । संसदीय
समिति ने न्यायिक सलाह नहीं लेने पर जोर इस वजह से दिया लगता है क्योंकि सुप्रीम
कोर्ट ने अक्तूबर दो हजार बारह में गुजरात, तमिलनाडू, कर्नाटक, छत्तीससगढ़ पश्चिम
बंगाल आदि राज्यों के उच्च न्यायलयों में स्थानीय भाषाओं में कामकाज के प्रस्ताव
को सिरे से खारिज कर दिया था । सुप्रीम कोर्ट ने उन्नीस सौ सत्तानवे और उन्नीस सौ
निन्यानबे के अपने पुराने फैसलों के हवाले से इन प्रस्तावों को खारिज किया था । पिछले
दिनों भी इस मसले पर एरक याचिका दायर की गई थी जिसपर उस वक्त के मुख्य न्यायधीश ने
याचिकाकर्ता पपर कठोर टिप्पणी की थी । अब संसदीय समिति की इस रिपोर्ट में साफ तौर
पर कहा गया है कि अगर संबंधित राज्य सरकारें इस तरह का प्रस्ताव देती है तो केंद्र
सरकार संविधान में मिले अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए उसको लागू करने का फैसला
ले सकती है । इस मसले पर संविधान में तो प्रावधान है लेकिन उन्नीस सौ पैंसठ में
कैबिनेट के एक फैसले से न्यायलयों से इस बारे में सलाह लेने की परंपरा की शुरुआत
हुई थी जो अबतक चली आ रही है । अब अगर केंद्र सरकार संसदीय समिति की सिफारिशों को
लागू करना चाहती है तो उसको कैबिनेट के फैसले पर पुनर्विचार करना होगा । मौजूदा
सरकार को इस मसले पर संजीदा रुख अख्तियार करना होगा ।
अदालतों में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में कामकाज करने का विरोध
यह कहकर किया जाता है कि इससे न्यायधीशों को दिक्कत होगी और उच्च न्यायलयों में
किसी प्रदेश के जज को किसी भी प्रदेश में स्थानांतरण की प्रक्रिया बाधित होगी । संभव
है कि ऐसा हो, लेकिन इसके लिए कोई मैकेनिज्म बनाया जा सकता है ताकि न्यायाधीशों को
दिक्कत ना हो और उनके स्थानांतरण को लेकर भी प्रक्रिया बाधित ना हो ।लेकिन
न्यायलयों में हिंदी में काम नहीं होने पर कई बार केस मुकदमे में अदालत पहुंचे
पीड़ितों को अदालत की भाषा या वहां जारी बहस समझ नहीं आती है और वो मूकदर्शक बने
रहते हैं । निर्भया के मामले में भी ऐसा हो रहा था । उसकी मां लगातार सुप्रीम
कोर्ट जाती थी और कई बार बगैर कुछ समझे बूझे वहां से वापस हो लेती थी । बाद में
उनकी मदद की गई । अगर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को उच्च न्यायलयों में कामकाज
की एक भाषा बनाने का फैसला होता है तो इससे भाषा का गौरव बढ़ेगा, साथ ही ज्यादातर
पीड़ितों को भी इंसाफ की भाषा समझ में आ सकेगी । अगर अदालतों की बात को छोड़कर
भाषा के सवाल पर विचार करें तो हमें लगता है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हम अपनी
भाषा को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बना पाए । अब वक्त आ गया है कि भाषा संबंधी ठोस
नीति बने और उसको बगैर किसी सियासत के लागू किया जा सके ।
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