इन दिनों हिंदी में नई वाली हिंदी की काफी
बातें हो रही हैं । कुछ ऐसी किताबें भी प्रकाशित की गई जिसकी मार्केटिंग के लिए इस
नई वाली हिंदी का सहारा लिया गया । इस नई वाली हिंदी में बोलचाल की भाषा को जस का
तस रखा गया है । यह अच्छी बात है लेकिन एक खास आयुवर्ग के समाज पर लिखते वक्त अगर
बोलचाल की भाषा को जस का तस रख दिया जाता है तो उससे पाठकीयता पढ़ती हो इसपर किसी
नतीजे पर पहुंचना शेष है । दरअसल साहित्य और पाठकीयता,यह विषय बहुत गंभीर है और
उतनी ही गंभीर मंथन की मांग करता है । आजादी के पहले हिंदी में दस प्रकाशक भी नहीं
थे और इस वक्त एक अनुमान के मुताबिक जो तीन सौ से ज्यादा प्रकाशक साहित्यक कृतियों
को छाप रहे हैं । प्रकाशन जगत के जानकारों के मुताबिक हर साल हिंदी की करीब दो से
ढाई हजार साहित्यक किताबें छपती हैं । अगर पाठक नहीं हैं तो किताबें छपती क्यों है
। यह एक बड़ा सवाल है जिससे टकराने के लिए ना तो लेखक तैयार हैं और ना ही प्रकाशक
। क्या लेखक और प्रकाशक ने अपना पाठक वर्ग तैयार करने के लिए कोई उपाय किया । हम
साठ से लेकर अस्सी के दशक को देखें तो उस वक्त पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने हमारे
देश में एक पाठक वर्ग तैयार करने में अहम भूमिका निभाई । पीपीएच ने उन दिनों एक
खास विचारधारा की किताबों को छाप कर सस्ते में बेचना शुरू किया । हर छोटे से लेकर
बड़े शहर तक रूस के लेखकों की किताबें सहज, सस्ता और हिंदी में उपलब्ध होती थी ।
उसके इस प्रयास से हिंदी में एक विशाल पाठक वर्ग तैयार हुआ । सोवियत रूस के विघटन
के बाद जब पीपीएच की शाखाएं बंद होने लगीं तो ना तो हिंदी के लेखकों ने और ना ही
हिंदी के प्रकाशकों ने उस खाली जगह को भरने की कोशिश की । फॉर्मूला बद्ध रचनाओं ने
पाठकों को निराश किया । नई सोच और नए विचार सामने नहीं आ पाए । यह प्रश्न उठ सकता है कि इससे पाठकीयता का क्या
लेना देना है । संभव है कि इस प्रसंग का पाठकीयता से प्रत्यक्ष संबंध नहीं हो
लेकिन इसने परोक्ष रूप से पाठकीयता के विस्तार को बाधित किया है । अगर किसी ने
विचारधारा के दायरे से बाहर जाकर विषय उठाए तो उसे हतोत्साहित किया गया । नतीजा यह
हुआ कि साहित्य से नवीन विषय छूटते चले गए और पाठक एक ही विषय को बार बार पढ़कर
उबते से चले गए ।
दरअसल नए जमाने के पाठक बेहद मुखर और अपनी रुचि को हासिव करने के
बेताब हैं । नए पाठक इस बात का भी ख्याल रख रहे हैं कि वो किस प्लेटफॉर्म पर कोई
रचना पढ़ेंगे । अगर अब गंभीरता से पाठकों की बदलती
आदत पर विचार करें तो पाते हैं कि उनमें काफी बदलाव आया है । पहले पाठक सुबह उठकर
अखबार का इतजार करता था और आते ही उसको पढ़ता था लेकिन अब वो अखबार के आने का
इंताजर नहीं करता है । खबरें पहले जान लेना चाहता है । खबरों के विस्तार की
रुचिवाले पाठक अखबार अवश्य देखते हैं । खबरों को जानने की चाहत उससे इंटरनेट सर्फ
करवाता है । इसी तरह से पहले पाठक किताबों का इंतजार करता था । किताबों की दुकानें
खत्म होते चले जाने और इंटरनेट पर कृतियों की उपलब्धता बढ़ने से पाठकों ने इस
प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करना शुरू किया । हो सकता है कि अभी किंडल और आई फोन या आई
पैड पर पाठकों की संख्या कम दिखाई दे लेकिन जैसे जैसे देश में इंटरनेटका घनत्व
बढ़ेगा वैसे वैसे पाठकों की इस प्लेटफॉर्म पर संख्या बढ़ सकती है ।
अगर
संपूर्णता में विचार करें तो पाठकीयता के बढ़ने घटने के लिए कई कड़ियां जिम्मेदार
हैं । पाठकीयता को एक व्यापक संदर्भ में देखें तो इसके लिए कोई एक चीज जिम्मेदार
नहीं है इसका एक पूरा ईकोसिस्टम है । जिसमें सरकार, टेलीकॉम, सर्च इंजन, लेखक,
डिवाइस मेकर, प्रकाशक, मीडिया और मीडिया मालिक शामिल हैं । इन सबको मिलाकर
पाठकीयता का निर्माण होता है । सरकार, प्रकाशक और लेखक की भूमिका सबको ज्ञात है ।
टेलीकॉम यानि कि फोन और उसमें लोड सॉफ्टवेयर, सर्चे इंजन जहां जाकर कोई भी अपनी
मनपसंद रचना को ढूंढ सकता है । पाठकीयता के निर्माण का एक पहलू डिवाइस मेकर भी हैं
। डिवाइस यथा किंडल और आई प्लेटफॉर्म जहां रचनाओं को डाउनलोड करके पढ़ा जा सकता है
। प्रकाशक पाठकीयता बढ़ाने और नए पाठकों के लिए अलग अलग प्लेटफॉर्म पर रचनाओं को
उपलब्ध करवाने में महती भूमिका निभाता है ।
हिंदी
साहित्य को पाठकीयता बढ़ाने के लिए सबसे आवश्यक है कि वो इस ईको सिस्टम के संतुलन
को बरकरार रखे । इसके अलावा लेखकों और प्रकाशकों को नए पाठकों को साहित्य की ओर
आकर्षित करने के लिए नित नए उपक्रम करने होंगे । पाठकों के साथ लेखकों के बाधित
संवाद को बढ़ाना होगा । देश भर के अलग अलग शहरों में हो रहे करीब ढाई सौ लिटरेचर
फेस्टिवल भी इसको बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं । इसके अलावा लेखकों को इंटरनेट के
माध्यम से पाठकों से जुड़ कर संवाद करना चाहिए और अपनी रचनाओं पर फीडबैक भी लें ।
फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे की लेखिका ई एल जेम्स ने ट्राइलॉजी लिखने के पहले इंटरनेट पर
एक सिरीज लिखी थी और बाद में पाठकों की राय पर उसे उपन्यास का रूप दिया । उसकी
सफलता अब इतिहास में दर्ज हो चुकी है और उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है । इन
सबसे ऊपर हिंदी के लेखकों को नए नए विषय भी ढूंढने होंगे । जिस तरह से हिंदी
साहित्य से प्रेम गायब हो गया है उसको भी वापस लेकर आना होगा । आज भी पूरी दुनिया
में प्रेम कहानियों के पाठक सबसे ज्यादा हैं । हिंदी में बेहतरीन प्रेम कथा की बात
करने पर धर्मवीर भारती की गुनाहों की देवता और मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास कसप ही
याद आता है । हाल में खत्म हुए दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले नेएक बार फिर से इस
बात को साबित किया कि लोगों में पढ़ने की भूख है । जरूरत है पाठकों की रुचि को
ध्यान में रखकर लिखा जाए और अगर इसपर आपत्ति हो तो पाठकों के अंदर की रुचि का
परिष्कार करने का उपक्रम किया जाए ताकि पाठतों में साहित्य पढ़ने का एक संस्कार
विकसित हो सके । हिंदी को इस मामले में अन्य भारतीय भाषाओं के साथ मिलकर कदम आगे
बढ़ाना चाहिए ।
1 comment:
बढ़िया लेख लेकिन मेरे अनुसार हिंदी में घटती पाठकों का एक कारण ये भी है कि इधर खाली एक ही प्रकार के साहित्य की रचना होती है। आपने प्रेम की बात तो की लेकिन हिंदी से हॉरर और विज्ञान गल्प भी गायब ही है। बाहर अलग अलग शैली की रचनाओं के लिए अलग अलग पुरस्कार होते हैं जो उधर लेखको एक तरीके से प्रोत्साहित करते है उदाहरण जासूसी के लिए शेमस अवार्ड, सिल्वर डैगर अवार्ड, और विज्ञान गल्प के लिए नेब्यूला जैसे अवार्ड। लेकिन इधर ऐसा कुछ प्रचलन ही नहीं है। हॉरर भी एक ऐसी विधा है जिसमे हमे कुछ मिलता ही नहीं है। पाठक तभी बढ़ेंगे जब उनकी हर तरह की जरूरत पूरी होगी। वरना अंग्रेजी साहित्य के रूप मी कई विकल्प हैं ही और अक्सर पाठक इन शैली के उपन्यास पढ़ने के लिए उधर का ही रुख कर देते हैं।
Post a Comment