केंद्रीय बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने चुनाव सुधार
के लिए सरकार के संकल्पों को दोहराते हुए पार्टियों की फंडिंग की पारदर्शिता के लिए
कुछ कदम उठाने का एलान किया है । चुनावी बॉंड और पार्टियों को नकदी के रूप में
मिलनेवाली चंदे की रकम को बीस हजार से घटाकर दो हजार करने का प्रस्ताव किया गया है
। ये चुनाव सुधार की दिशा में उठाए जानेवाले कदमों की शुरुआत भर मानी जा सकती है ।
इन दो कदमों से चुनावों में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकेगा ऐसा मानना मुश्किल
है परंतु किसी सरकार ने इस दिशा में कदम उठाने का साहस तो दिखाया । अगर रास्ते पर
चल पड़े हैं तो कोईना कोई हल निकलेगा लेकिन अभी तो ये पहल नाकाफी हैं । दरअसल जब
भारतीय जनता पार्टी ने काले धन को दो हजार चौदह के चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाया
उसके बाद से ही राजनीतिक दलों को मिलनेवाले चंदे को लेकर बहस शुरू हो गई थी । जब
पिछले साल नवंबर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विमुद्रीकरण का एलान किया तो
उसके बाद से ही सरकार को घेरने के लिए चुनावी चंदों से लेकर चुनाव में होनेवाले
बेहिसाब खर्चे को लेकर भी विशेषज्ञ सवाल खडे करने लगे थे । सरकार क्या सभी
राजनीतिक दलों पर यह इल्जाम लग रहे थे कि धनकुबरों के काला धन पर लगाम लगाने के
लिए तो कार्रवाई शुरू की गई लेकिन जब बात राजनीतिक दलों की आती है तो सभी दल मिलकर
अपने आपको बचाने के लिए कानून बनाने या पुराने कानून को बचाने में एकजुट हो जाते
हैं । इस सिलसिले में संसद की कैंटीन में मिलनेवाले सस्ते खाने को भी इससे जोड़ा
जाता रहा है । लगातार इस तरह की बातों से राजनीतिक दलों के विरोधी में एक माहौल सा
बनने लगा था । इस तरह के माहौल के बीच चुनाव आयोग ने भी सरकार को चुनाव के दौरान पारदर्शिता
के लिए कई सुझाव दिए थे । शीतकालीन सत्र के शुरू होने के पहले हुई सर्वदलीय बैठक
में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी राजनीतिक दलों को होनेवाली फंडिंग पर चर्चा
की थी और सभी दलों से आग्रह किया था कि इसमें सुधार के लिए अपने सुझाव दें ।
अब अगर आम बजट में सरकार के प्रस्तावों को देखें तो यह कोई
क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं है । एक स्त्रोत से नकद चंदे की रकम की सीमा बीस हजार
से घटाकर दो हजार करने का प्रस्ताव है । इसका फायदा किसे होगा यह तो पता नहीं चल
पा रहा है लेकिन राजनीतिक दलों को इतना नुकासन अवश्य होगा कि अब उनको एक की बजाए
दस पर्चियां काटनी होगी । पहले बीस हजार के चंदे के लिए एक पर्ची काटनी पड़ती थी
लेकिन अब दो दो हजार की दस पर्चियां कटेंगी । इस चंदे पर कोई पूछताछ नहीं होने का
कानून है लिहाजा जितनी भी पर्चियां कटे क्या फर्क पड़ता है । अगर इस चंदे के साथ
पैन कार्ड या फिर आधार कार्ड की फोटो प्रति अनिवार्य की जाती तो काले धन पर रोक
लगाने में मदद मिल सकती थी या फिर राजनीतिक दलों को मिलनेवाले नकद चंदे में ज्यादा
पारदर्शिता आ सकती थी । अगर ऐसा होता तो राजनीतिक दलों पर लगनेवाले आरोपों में कमी
आ सकती थी । राजनीतिक दलों को तीन लाख तक की नकद लेन-देन की छूट भी दी गई है । यह
उचित है क्योंकि अब भी भारत में कई तरह के खर्चे ऐसे होते हैं जो सिर्फ नकद में
किए जा सकते हैं ।
आम बजट में जिस तरह से चुनावी बॉंड का प्रस्ताव दिया गया है उसके
बारे में भी अभी तक स्थिति साफ नहीं है । अपने बजट प्रस्ताव में वित्त मंत्री अरुण
जेटली ने कहा था कि चुनावी बॉंड जारी करने के लिए आरबीआई एक्ट में संशोधन किया
जाएगा ताकि कुछ बैंकों के माध्यम से इस बॉंड की बिक्री की जा सके । सरकारी
प्रस्ताव के मुताबिक इस चुनावी बॉंड को सिर्फ चेक या फिर डिजीटल पेमेंट के माध्यम
से ही खरीदा जा सकेगा । इस बॉंड को उन्हीं खातों में जमाकर भुनाया जा सकता है जो पंजीकृत
राजनीतिक दलों के चंदा लेने के मकसद से खोले गए हों । इसके लिए एक निश्चित समय
सीमा भी तय किए जाने का प्रस्ताव है । जिस तरह के बॉंड का प्रस्ताव है उसके बारे
में विस्तृत जानकारी तो नहीं है लेकिन जो प्रस्ताव है उससे तो यही प्रतीत होता है
कि यह धारक के लिए जारी होगा किसी खास राजनीतिक दल के नाम से जारी नहीं किया जाएगा
। जिसके पास भी ये ब़ॉंड रहेंगे वो इसका मालिक होगा और जिस चाहे उस राजनीतिक दल का
डोनेट कर सकेगा क्योंकि यह बॉंड बीयरर चेक की तरह होगा । ये बॉंड लगभग नकदी की ही
तरह होता है इसलिए इससे क्या फर्क पड़ता है कि राजनीतिक दल को नकद मिल रहा है या
फिर बॉंड के माध्यम से । अब यहीं से गड़बड़ी की आशंका शुरू होती है । मान लीजिए
किसी व्यक्ति ने दस लाख के बॉंड खरीदे और उसने ये खरीदारी चेक से या फिर डिजीटल
पेमेंट के माध्यम से की । उसके बाद उसने लाख दो लाख के मुनाफे पर इसको दूसरे
व्यक्ति को कैश पेमेंट पर बेच दिया । अगले ने उसको राजनीतिक दल को डोनेट कर दिया
तो फिर कहां से काला धन के डोनेशन पर रोक लगी ।
चुनावी बॉडं के बाजार में खरीद बिक्री को कैसे नियंत्रित किया जाएगा
इसपर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि बॉंड को लेकर इस तरह का वाकया पहले भी देखने
को मिला है । दो हजार सतासी में राजीव गांधी के शासन काल के दौरान विकास के लिए धन
जुटाने की मंशा से इंदिरा विकास पत्र जारी किए गए थे । इंदिरा विकास पत्र जारी
करने का अधिकार डाकघरों को दिया गया था । इस बॉंड में भी वही दिक्कत थी कि यह लगभग
बीयरर बॉंड था यानि जिसके पास रहेगा वो इसको भुना सकता था । नकद के जैसा । कुछ
सालों के बाद सरकार को जब लगा कि इस बॉंड का इस्तेमाल मनी लॉंड्रिंग के लिए किया
जा रहा है तो इसको बंद कर दिया गया । अब इस तरह का चुनावी बॉं जारी करने को लेकर
भी विशेषज्ञों के बीच इसी आधार पर बहस शुरू हो गई है ।
दरअसल चंदे कि रकम की सीमा के घटाने या बॉंड जारी करना चुनाव सुधार
की दिशा में उठाया गया एक बेहद ही मामूली कदम है । अगर सरकार और सभी राजनीतिक दल
सचमुच चुनाव सुधार या चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता को लेकर संजीदा है तो उनको
चुनाव आयोग को और अधिकार देने होंगे और पीपल्स रिप्रेजेंटेशन एक्ट में सुधार करते
हुए उसको और मजबूती देनी होगी । इस तरह का कानून बनाना होगा कि चुनाव आयोग को ये
अधिकार मिले की वो एक फंड बनाए और सभी राजनीतिक दलों को चुनाव के वक्त उस फंड से
चुनाव लड़ने के लिए पैसे दिए जाएं । जो भी औद्योगिक घराना चुनाव के वक्त राजनीतिक
दलों को चंदा देना चाहते हैं उनको चुनाव आयोग को देना चाहिए और फिर चुनाव आयोग
इसका उचित वितरण करने का फॉर्मूला बनाए । इससे चुनावों में कालेधन पर रोक लगाई जा
सकती है । सालों से स्टेट फंडिंग की बात होती रहती है लेकिन वो विमर्शों का ही
हिस्सा बनकर रह जाती है उस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं । सालों पहले
चुनाव सुधार के लिए बनाई गई इंद्रजीत गुप्ता कमेटी ने भी स्टेट फंडिंग का सुझाव
दिया था लेकिन वो सुझाव फाइलों में धूल फांक रही है । इन प्रस्तावों को लेकर
आरबीआई एक्ट और पीपल्स रिप्रेजेंटेशन एक्ट में संसद में संशोधन करवाना होगा, यह
देखना दिलचस्प होगा कि अन्य राजनीतिक दल इसपर किस तरह का रुख अपनाते हैं ।
1 comment:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’बाबा आम्टे को याद करते हुए - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
Post a Comment