इन दिनों हिंदी साहित्य में नया वाला फेमिनिज्म
पर जमकर चर्चा हो रही है । पतनशील पत्नियों के नोट्स जैसी शीर्षकवाली किताबें छप ही
नहीं रही हैं बल्कि पसंद भी की जा रही हैं । कुछ ऐसा ही हाल इस वक्त हिंदी फिल्मों
का भी है । हिंदी फिल्मों में इस वक्त अभिनेत्रियों का स्वर्णकाल चल रहा है । अगर
पिछले एक दशक की फिल्मों पर नजर डालें तो महिला किरदारों पर केंद्रित कितनी ही
फिल्में आईं और करीब करीब सभी को दर्शकों ने पसंद किया । जिस तरह से महिला
किरदारों पर केंद्रित फिल्में लिखी और फिल्माई जा रही हैं तो उससे यह साबित होता
है कि इस वक्त समाज में दर्शक महिलाओं की सफलता, उसके संघर्ष और इसकी जिजीविषा को
देखना चाहते हैं क्योंकि बहुधा फिल्मों में चरित्रों का बार-बार चित्रण होना समाज
की रुचियों का प्रकटीकरण होता है । इस तरह की फिल्मों के बनने से यह भी पता चलता
है कि हमारे समाज के दर्शकों की रुचियों का भी परिष्कार हुआ है । दो हजार तेरह में
जब विकास बहल के निर्देशन में बनी फिल्म क्वीन आई थी तो उसमें कंगना के रोल ने
दर्शकों को झकझोरा था । किस तरह दिल्ली के मध्यमवर्गी. परिवार की एक पंजाबी लड़की
अपनी शादी के पहले शादी तोड़ने की खबर से सदमे में आकर विदेश जाती है और वहां खुद
को रीडिस्कवर करती है । इस फिल्म में कंगना के रोल ने उनको राष्ट्रीय पुरस्कार
दिलवाया । इसी तरह के कहानी में विद्या बालन ने एक गर्भवती महिला का रोल किया है
जो कोलकाता में अपने पति तको तलाशने में जुटती है । सुजय घोष की इस फिल्मने
जबरदस्त बिजनेस किया था । विद्या के रोल ने इस कहानी को हिट कर दिया था । इस फिल्म
का सीक्वल भी अभी हाल ही में रिलीज हुआ था जिसमें विद्या बालन की भूमिका की
प्रशंसा हुई थी । इसमें विद्या ने एक बेहद बोल्ड फैसला किया था जहां पूरी फिल्म
में किरदार की मांग के मुताबिक उसने ना तो ग्लैमरस कपड़े पहने और ना ही किसी
प्रकार का मेकअप किया । हिंदी फिल्मों में खूसूरत और ग्लैमरस दिखने और दिखाने की
चाहत वालों के लिए यह फिल्म नया वाला फेमिनिज्म को ही सामने लाता है जहां महिलाएं
जो है जैसी हैं वैसी ही रूपहले पर्दे पर आने का साहस दिखाती हैं । इसी तरह से
विद्या बालन की फिल्म डर्टी पिक्चरे ने भी नये वाले फेमिनिज्म को आगे बढाया । उसके
बोल्ड गाने, उसके बोल्ड सींस आदि ने इस वक्त देशव्यापी चर्चा को जन्म दिया था । सेंसर
बोर्ड की कैंची भी चली थी और दूरदर्शन ने उसको रात के स्लॉट में दिखाया था । विवाद
चाहे जितना हो लेकिन डर्टी पिक्चर बेहद सफल रही थी
अभी पिछले साल जूब अनिरुद्ध रायचौधरी की फिल्म
पिंक रिलीज हुई थी तो यह पूरी फिल्म एक बॉलीवुड से लेकर समाज तक में विमर्श का नया
आधार प्रदान कर गई थी । सार्थक सिनेमा के दौर का खत्म हो जाने के बाद कमर्शियस
फिल्मों में इस तरह के विषय को उठाने के साहस को जनता का भी समर्थन मिला । अगर कोई
महिला स्वछंद है, सिगरेट और शराब पीती है तो इसका यह मतलब तो नहीं होता है कि वो
चालू है और किसी के साथ भी सोने के लिए उपलब्ध है । नहीं का मतलब नहीं होता है
इसको इस फिल्म ने पुरजोर तरीके से पेश किया। चंद सालों पहले तक इस तरह की फिल्मों
के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था । मीनल को जिस तरह से सरेआम उठा लिया जाता है
और उसके साथ यौन शोषण कर गाड़ी से बाहर फेंक दिया जाता है और उसके बाद उसको ही
गिरफ्तार करवा दिया जाता है । अपने को साबित करने की जद्दोजहद में एक लड़की को
कितना संघर्ष करना पड़ता है यह दर्शकों को पसंद आया क्योंकि इस तरह की वारदातें हर
रोज उनके आसपास घटित होती रहती हैं । फिल्मकार ने दर्शकों की इस मानसिकता को पकड़ा
और पिंक बनाकर अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया । इस तरह की फिल्म में एक रिस्क भी
था लेकिन वो रिस्क फिल्मकार ने उठाया ।
इसी तरह से अनुष्का शर्मा की फिल्म एनएच10 भी
दर्शकों को खूब पसंद आया। ये फिल्म भी समकालीन सामाजिक यथार्थ के बेहद करीब थी
लिहाजा दर्शकों ने पसंद किया । किस तरह से हाइवे पर बदमाशों का गैंग महिलाओं के
साथ बदतमीजी करता है और उसको बचाने आनेवाले पर हमला करता है यह इस फिल्म की शुरुआत
है और उसके बाद नायिका मीरा अपने तरीके से प्रतिशोध लेती है । ऐसा नहीं है कि
सिर्फ सामाजिक अपराध को झेल रही स्त्रियों के विषय को उठाकर ही फिलमें बनाई जा रही
हैं । अगर आप गौरी शिंदे की फिल्म इंगलिश विंगलिश पर नजर डालें तो इसमें एक ऐसी
स्त्री का चित्रण है जो अंग्रेजी नहीं बोल पाती है और उसका पति और बेटी हर दिन
उसका मजाक उड़ाते हैं । लड्डू का बिजनेस करनेवाली शशि गोडबोले की भूमिका में
श्रीदेवी वे अपने जीवंत अभिनय से रंग भर दिए थे । यह फिल्म पंद्रह साल बाद
श्रीदेवी की फिल्मों में वापसी की मुनादी भी थी । घर परिवार का संघर्ष, क्लास में
अंकुरित होता प्रेम जिसको सामाजिक मान्यताओं के बोझ तले दबाकर अपने अरमानों का गला
घोटती अभिनेत्री के रूप में फिल्म बेहद सफल रही थी । कहने का अर्थ यह है कि इस दौर में फिल्मकार
महिलाओं से जुड़े मुद्दे को लेकर लगातार प्रयोग कर रहे हैं और अच्छी बात यह है कि
इस तरह के प्रयोग सफल भी होते रहे हैं ।
ऐसा नहीं है कि पहलवे महिला प्रधान फिल्में नहीं
बनीं । मदर इंडिया से लेकर आंधी जैसी फिल्में बॉलीवुड में मील का पत्थर हैं । महबूब
खान की फिल्म मदर इंडिया जब 1957 में रिलीज हुई थी तो उसने भी समाज को झकझोरा था ।
इसी तरह से इसके बीस साल बाद रिलीज हुई फिल्म भूमिका में एक बाल कलाकार की
अबिनेत्री बनने की कहानी को जिस तरह से पेश किया गया था उसकी वजह से इसको नई
सिनेमा की शुरुआत माना गया था । उसके बाद अर्थ, मिर्च मसाला, दामिनी, चंदानी बार,
नो वन किल्ड जेसिका जैसी फिल्में भी आईं थी लेकिन अब की फिल्मों का धरातल थोड़ा
अलग है ।
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