अभी हाल ही में तमिलनाडू में जिस तरह का सियासी ड्रामा हुआ उसपर
विराम तो लग गया है लेकिन अंदेशा इस बात का है कि ये विराम अस्थायी है । जयललिता
की विरासत को लेकर पनीरसेल्वम और शशिकला के खेमे के बीच जोर आजमाइश के कई दौर अभी
बाकी हैं । अम्मा की जगह चिनम्मा आ तो गईं लेकिन उनकी रहनुमाई कई अन्य नेताओं को
मंजूर नहीं है । वो तो सुप्रीम कोर्ट ने शशिकला को जेल भेज दिया नहीं तो
पलानीस्वामी की जगह वही तमिलनाडू की कमान संभालती । दरअसल यह पूरा खेल जयललिता की
राजनीतिक विरासत पर कब्जे को लेकर है । जयललिता ने पार्टी में दूसरे नंबर का नेता
बनाया ही नहीं या फिर किसी को इस तरह का दर्जा नहीं दिया । लिहाजा जब उनकी मृत्यु
हुई तो एआईएडीएमके में उनकी विरासत को लेकर ड्रामेबाजी शुरू हो गई । दरअसल यह
सिर्फ तमिलनाडू की सियासत में नहीं हुआ है । इस तरह के वाकए सभी राजनीतक दलों में
देखने को मिलते हैं । हाल ही में इसका नमूना उत्तर प्रदेश में देखने को मिला था
जहां मुलायम सिंह यादव की विरासत को लेकर उनके बेटे अखिलेश यादव और उनके छोटे भाई
शिवपाल यादव के बीच तलवारें खिचीं थी । उपर से देखने पर ये भले ही अमर सिंह या फिर
अन्य मसलों को लेकर अधिकारों की लड़ाई लगे लेकिन दरअसल ये पूरा झगड़ा मुलायम की
विरासत पर कब्जे की जंग को लेकर है । अखिलेश को लगता है कि मुलायम सिंह यादव के
पुत्र होने की वजह से उनकी सियासी विरासत पर उनका हक है, उधर शिवपाल सिंह यादव
लगातार इस बात का संकेत देते रहते हैं कि नेताजी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर
उन्होंने समाजवादी पार्टी को खड़ा किया है । जहां जहां कुनबा बड़ा है वहां सत्ता
का ये संघर्ष भी बड़ा है और हर कोई अपने हिस्से को लेकर सजग और आक्रामक दिखाई देता
है । इन दोनों दलों के अलावा अगर दो हजार तेरह और चौदह की देश की राजनीति पर नजर डालें
तो उस दौर में भारतीय जनता पार्टी में भी नेतृत्व को लेकर अच्छी खासी मशक्कत हुई
थी । नरेन्द्र मोदी अपनी कुशल रणनीति और मजबूत छवि की बदौलत भले ही बीजेपी का
शीर्ष नेतृत्व पर काबिज हो गए लेकिन उस वक्त भी लालकृष्ण आडवाणी के सियासी ड्रामे
के बाद । गोवा में पार्टी की बैठक से लेकर लालकृष्ण आडवाणी के खत तक में यह संघर्ष
देखने को मिला था । बीजेपी में नेतृत्वन की विरासत को लेकर उठा बवंडर की प्रकृति
भले ही तमिलनाडू और उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी के तूफान से अलग हो लेकिन
दोनों जगह विरासत ही सियासी अखाड़ेबाजी का आधार बनी ।
अभी भले ही एआईएडीएमके में जारी सियासी झगड़े पर डीएमके इपनी
राजनीतिक गोटियां सेट करने में लगा है लेकिन अलग अलग मौके पर पांच बार तमिलनाडू
में सत्ता संभालने वाले करुणानिधि के कुनबे में भी जो कलह हुआ था उसके पीछे भी वजह
तमिल राजनीति के इस पुरोधा की राजीतिक विरासतत ही थी । करुणानिधि के बेटों
अड़ागिरी और स्टालिन के बीच विरासत को लेकर जमकर झगड़ा हुआ था । एम के स्टालिन ने
बहुत करीने से डीएमके कार्यकर्ताओं के बीच अपने को करुणानिधि के वारिस के तौर पर
स्थापित करना शुरू कर दिया था उधर अड़ागिरी मदुरै और उसके आसपास के इलाकों में
अपनी ताकत बढ़ाने में जुटे थे । दोनों के बीच के संघर्ष में करुणानिधि ने स्टालिन
को चुना और अड़ागिरी पार्टी से बाहर हो गए । पारिवारिक सत्ता संग्राम में भाई
भतीजों के बीच भी मलाई बंटती है और कालांतर में वो भी इस संघर्ष में इस या उस पक्ष
के साथ हो जाते हैं । ये मुलायम परिवार में भी देखने को मिला और यही करुणानिधि के
परिवार में भी रेखांकित किया जा सकता है । आंध्र प्रदेश की राजनीति में भी एन टी
रामाराव की विरासत को लेकर उनके परिवार में संघर्ष हुआ था । एन टी रामाराव को तो
उनके दामाद ने चंद्रबाबू नायडू ने ही मुख्यमंत्री की कुर्सी से अपदस्थ कर दिया
क्योंकि उनको शक था कि एनटीआर अपनी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती को सत्ता सौंपना
चाहते थे । उस वक्त एनटी रामाराव के बेटों ने चंद्रबाबू का साथ दिया था लेकिन
मुख्यमंत्री बनते ही को नायडू ने सबको किनारे लगा दिया । अब्दुल्ला परिवार के
बेटों और दामाद के बीच सत्ता को लेकर विवाद हुआ था । कुछ दिनों पहले जब महागठबंधन
ने बिहार विधानसबा चुनाव में बीजेपी को मात देकर सत्ता हासिल की तो लालू यादव के
कुनबे में उनके बेटों और बेटी के बीच उपमुख्यमंत्री पद को लेकर मतभेद की खबरें आई
थी । एक बेटे को उपमुख्यमंत्री बनाने के बाद दूसरे को मंत्री और बेटी को राज्यसभा
में भेजकर इस झगड़े को सुलझाने का प्रयास किया गया लेकिन यहां भी यह कितना स्थायी
है यह भविश्य के गर्भ में है । इन
पार्टियों में इस तरह का झगड़े इस, वजह से भी होते हैं कि ये किसी एक शख्स के
इर्दगिर्द चलनेवाले दल हैं और किसी विचारधारा से इनका बहुत लेना देना होता नहीं है
। विचारधाराओं के आधार पर चलनेवाली पार्टियों में सत्ता संघर्ष का इतना वीभत्स रूप
दिखाई नहीं देता है ।
कांग्रेस में विरासत को लेकर सियासी संघर्ष इस वजह से देखने को
नहीं मिलता है क्योंकि इस पार्टी में ज्यादातर एक परिवार के लोग ही नेतृत्व देते
रहे । इंदिरा गांधी को नेहरू और शास्त्री के निधन के बाद नेतृत्व के लिए कठिनाई का
सामना करना पड़ा था और पार्टी टूटी भी थी । लेकिन परिवार के करिश्मे और इंदिरा
गांधी के सियासी कौशल ने उनको स्थापित कर दिया था । कालांतर में जब राजीव गांधी की
हत्या के बाद सोनिया ने राजनीति में नहीं आने का एलान किया था तब नेतृत्व की
विरासत को लेकर एक बार पार्टी में फिर टूटी थी और नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन
सिंह ने कांग्रेस तिवारी बना ली थी । यह तो इतिहास है कि सोनिया के राजनीति में
उतरने के फैसले के बाद सीताराम केसरी के साथ क्या हुआ था । जिस तरह से इन नेताओं
की विरासत को लेकर जंग होती है वो कबीलाई सरदारों की जंग की तरह नजर आती है । फर्क
सिर्फ इतना है कि कबीलाओं में सत्ता को लेकर हिंसक झगड़े हुआ करते थे लेकिन इस जंग
में खून नहीं बहता है । सत्ता को लेकर सियासी दांव पेंच तो उसी तरह के चलते हैं ।
अगर हम इन पारिवारिक पार्टियों में जारी संघर्ष पर नजर डालें और
उसके पीछे की वजहों का विश्लेषण करें तो यह साफ तौर पर नजर आता है कि सियासी
विरासत के अलावा अकूत संपत्ति पर हक को लेकर भी ये झगड़े होते हैं । जिस तरह से
हाल के दिनों में निजी कंपनियों का दबदबा देश में बढ़ा है या उनका कारोबार उन
क्षेत्रों में भी फैला है जिनमें पहले सरकारी कंपनियों का एकाधिकार था, उसके बाद
से क्षेत्रीय नेताओं पर आय से अदिक संपत्ति के मामले भी बढ़े हैं । राजनीति में
पैसों का जो खेल होता है उसके केंद्र में हमेशा से नेता ही होता है और परिवार के लोगों
को इसकी जानकारी होती है । राजनीति में पैसों के दबदबे से विरासत को लेकर संघर्ष
सामने आता है । विरासत की जंग को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि पार्टियों में
आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा मिले, हलांकि फिलहाल इसकी कोई सूरत नजर आ नहीं रही है ।
चुनाव आयोग ही अगर कोई कड़ा कदम उठा सके तो शुरुआत हो सकती है ।
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