चाहे विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव जब भी चुनाव का दौर लंबा
चलता है तो नेताओं की जुबान थकने लगती है । जब जुबान थकती है तो वो फिसलने भी लगती
है । जब जुबान फिसलती है तो मर्यादा तार-तार होती है । जब मर्यादा तार-तार होती है
तो फिर एक बार दौर शुरू होता है उस चर्चा का जिसमें राजनीतिज्ञों के भाषा के गिरते
स्तर पर बात होती है । इन सबके बीच चुनाव खत्म हो जाता है और फिर नेताओं की जुबान
लगभग काबू में आ जाती है । जिसके पक्ष में जनादेश होता है और वो जश्न में डूब जाते
हैं और जिसको जनता ठुकरा देती है वो आत्ममंथन आदि की बात करते हुए नेपथ्य में चले जाते हैं । चुनाव
के दौरान जिस तरह से बदजुबानी का बवंडर उठता है वो भी थम सा जाता है । पाठकों को
याद होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान या दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान जिस
तरह की भाषा का इस्तेमाल हुआ था वो अब लगभग वोटरों के मानस पटल से लगभग विस्मृत हो
गया है । रामजादे के साथ जिस एक अन्य जादे का प्रयोग हुआ था वह बेहद आपत्ति जनक था
। लेकिन यह टीवी का दौर है और नेताओं को लगता है कि टीवी पर उनके भाषणों का वही
हिस्सा दिखाया जाएगा जो विवादस्पद होगा । स्वस्थ आलोचना कभी भी भाषा की मर्यादा को
नहीं तोड़ती और यह सच है कि जब भाषा की मर्यादा नहीं टूटती तो न्यूज चैनलों में
स्पंदन नहीं होता । सारे दिन चलनेवाले न्यूज चैनलों के इस दौर में नेताओं के
विवादित या बिगड़े बोल हमेशा प्राथमिकता पाते हैं । बार बार उन्हीं बयानों को
दिखाया जाता है । टीवी और सोशल मीडिया के दौर में भाषा अपनी सीमा रेखा का बार बार
अतिक्रमण करती है ।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जैसे जैसे चरणबद्ध तरीके से खत्म होने
की ओर बढ़ रहा है नेताओं की जुबान फिसलने लगी है । अखिलेश यादव ने जिस तरह से
गुजराती गधों का जिक किया उससे साफ था कि उनका इशारा किस ओर था । अखिलेश यादव ने सदी के महानायक यानि अमिताभ
बच्चन से अपील की वो गुजरात के गधों का विज्ञापन नहीं करें । गधों वाली सियासत
यहीं नहीं रुकी और बीजेपी के नेताओं ने अखिलेश पर निशाना साधा और कहा कि दरअसल
यूपी के लोग बताएंगे कि गुजरात के जंगली गधों और सामान्य गधों में क्या फर्क है,
तब अखिलेश को समझ आएगा । यहां भी इशारा साफ था । अब आप ही इस बात का अंदाजा लगाइए
कि हमारी सियासत किस तरह से गधे के प्रतीकों के सहारे मजबूती पा रही है । जब नेता
गधों की सियासत में करे तो उस पार्टी के अन्य लोगों के हौसले बुलंद हो जाते हैं और
अपने नेता से एक कदमआगे बढ़कर अपनी भी उपयोगिता साबित करने में लग जाता है । उत्तर
प्रदेश में भी यही हुआ समाजवादी पार्टी के नेता राजेन्द्र चौधरी ने प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह को आतंकवादी बता दिया । उन्होंने
बहुत चतुराई से अपना यह बयान एक एजेंसी के कैमरे पर दिया ताकि सभी चैनलों तक एक
साथ उनका बयान पहुंच जाए । आजम खान ने तो प्रधानमंत्री मोदी का नाम लिए बगैर उनको
रावण तक कह डाला । ऐसा नहीं है कि सिर्फ
समाजवादी पार्टी के नेताओं की तरफ से ही बदजुबानी की गई हो । बीजेपी के नेताओं ने
भी कई बार सियासी लक्ष्मण रेखा लांघी । केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान ने तो
मुलायम सिंह यादव के मरने की बात तक कह जाली । संजीव बालियान ने कहा कि मुलायम
सिंह यादव हमेशा से सांप्रदायिक राजनीति करते रहे हैं और मैं उनसे कहना चाहूंगा कि
अब उनके मरने का वक्त आ गया है । यह कैसी सियासत है जहां नेता एक दूसरे नेता के
मरने के वक्त की घोषणा करते नजर आ रहे हैं । संजीव बालियान पहले भी विवादित बयान
देते रहे हैं । विनय कटियार ने प्रियंका गांधी की खूबसूरती पर तंज कसते हुए कहा था
कि उनसे ज्यादा खूबसूरत नेता हमारे स्टार प्रचारक हैं । प्रधानमंत्री नरेन्द्र
मोदी ने भी बीएसपी की नेता मायावती पर जोरदार हमला बोला और उनकी पार्टी को बहनजी
संपत्ति पार्टी कह डाला । नरेन्द्र मोदी अपनी चुनावी सभा में इस तरह के बयान पहले
भी देते रहे हैं । पिछले चुनाव में उन्होंने शरद पवार की पार्टी एनसीपी को नैचुरली
करप्ट पार्टी कहा था । कुछ लोगों का आरोप है कि चुनावी रैलियों के दौरान नरेन्द्र
मोदी प्रधानमंत्री पद की मर्यादा और गरिमा भूल जाते हैं । बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह
ने अपने भाषणों में कहा था कि एक शहजादे से मां तो दूसरे से पिता परेशान हैं. और दो शहजादे प्रदेश लूटने आए हैं । राजनीति
की इस काली कोठरी में जिस तरह से बयानों के तीर चलते हैं उसकी कालिख से सबका दामन
दागदार होता है और दागदार होता है हमारा लोकतंत्र भी । नेताओं के बीच पहले भी भाषा
की मर्यादा टूटती रही है । नेहरू जी के शासन काल से लेकर इंदिरा गांधी के दौर तक
भी चुनाव के दौरान या उसके बाद भी नेताओं ने एक दूसरे पर कीचड़ उछाले थे । गली गली
में शोर है इंदिरा गांधी चोर है जैसे नारे भी इस देश में लगे थे । राजनारायण अपने
निम्नतम स्तर के भाषणों और बयानों के लिए के लिए कुख्यात रहे हैं । उनके चुनावी
भाषणों में तो कई बार गाली गलौच तक का इस्तेमाल होता था । लेकिन उस दौर में कम लोग
भाषा के निम्नतम स्तर पर जाते थे लेकिन अब तो बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा नेता
भी अपने बयानों से लोकतंत्र को शर्मसार करता है । यह लोकतंत्र के लिए बहुत बुरा और
अफसोस का वक्त है । वक्त तो संभलने का भी है क्योंकि अगर जनता के नुमाइंदे ही
भाषाई गरिमा को गिराएंगे तो फिर जनता से क्या उम्मीद की जा सकती है ।
No comments:
Post a Comment