लीक से हटकर बनने वाली फिल्म को लेकर फिल्म निर्माताओं को लंबे समय
से सेंसर बोर्ड से जूझना पड़ता है । संस्कारी सेंसर बोर्ड इस तरह की तकरीबन हर
फिल्म में अडंगा डालता ही है । जब से पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अद्यक्ष बने
हैं तब से केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड खुद को सेंसर बोर्ड बनाने में लगा हुआ है
। अब एक बार फिर से प्रकाश झा की फिल्म लिपस्टिक अंडर माई बुर्का को लेकर सेंसर
बोर्ड ने आपत्ति जता दी है । लिपस्टिक अंडर माई बुर्का को अलंकृता श्रीवास्तव ने
निर्देशित किया है । सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को देखने के बाद प्रकाश झा को यह
संदेश दिया है कि इसको सर्टिफिकेट नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इसमें महिलाओं की
फैंटेसी और इंटीमेट सेक्सुअल सींस हैं । इसके अलावा सेंसर बोर्ड के इस फिल्म को
लेकर यह भीआपत्ति है कि चूंकि यह महिलाओं को केंद्र में रखकर बनाई है लिहाजा इसमें
गाली गलौच की भाषा नहीं होनी चाहिए । आपत्ति तो यह भी है कि इस फिल्म में ऑडियो
पोर्नोग्राफी भी है और यह समाज के एक वर्ग विशेष को संवेदनहीनता के साथ चित्रित
करता है । सेंसर बोर्ड ने अपनी कई धाराओं को गिनाते हुए इस फिल्म को सर्टिफिकेट
देने से इंकार कर दिया है । यह फिल्म एक छोटे से शहर की महिलाओं की कहानी है
जिसमें कोंकणा सेन शर्मा, रत्ना पाठक शाह, आहना और प्लाबिता ने उनकी आकांक्षाओं को
परदे पर अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है । ये चारों महिलाएं अनी जिंदगी में आजादी
को तलाशती हैं और उसी तलाश के साथ फिल्म आगे बढ़ती है । स्त्रियों के आकांक्षा का
मानचित्र खींचती इस फिल्म में पात्र अपनीबोली-वाणी में बात करते हैं जिसपर सेंसर
बोर्ड को आपत्ति है । फिल्म की निर्देश अलंकृता का दावा है कि उनकी फिल्म देश के
पितृसत्तात्मक समाज को खुली चुनौती देता है इस वजह से सेंसर बोर्ड को इसको
प्रमाणित करने की राह में रोड़ा अटका रहा है । प्रकाश झा ने भी साफ किया है कि वो
अपनी इस फिल्म को लेकर अंत तक लड़ेंगे ताकि फिल्मकार की कल्पनाशीलता और समाज में
व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किया जा सके और उसको कोई रोक ना सके । प्रकाश झा ने
सेंसर बोर्ड के इस कदम को अभिव्यक्ति की आजादी से भी जोड़ा है ।
दरअसल प्रकाश झा की फिल्म को लेकर पहले भी सेंसर बोर्ड ने कई
आपत्तियां उठाई थीं । प्रकाश झा की फिल्म
जय गंगाजल को लेकर भी विवाद उठा था । तब प्रकाश झा ने सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पर
आरोप लगाया है कि वो बेवजह उनकी फिल्म से ‘साला’ और ‘घंटा’ शब्द हटवाना चाहते हैं । सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष
का तर्क था कि साला गाली है और इतनी बार इस गाली को फिल्म में बोलने-दिखाने की
इजाजत नहीं दी जा सकती है जबकि प्रकाश झा का तर्क है कि साला अब आम बोलचाल की भाषा
में प्रयुक्त होता है और वो गाली नहीं रह गया है । संस्कारी सेंसर बोर्ड सी बिनाह
पर जय गंगाजल को एडल्ट फिल्म का स्रटिफिरेट देना चाहता था लेकिन प्रकाश झा के
मुताबिक वो यू यानि अनरेस्ट्रिक्टेड पब्लिक एक्जीबिशन या फिर यू ए की श्रेणी की
फिल्म थी । बाद में प्रकाश झा की अपील पर फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्राइब्यूनल ने
बैगर किसी कट के जय गंगाजल को यू ए सर्टिफिकेट दे दिया था ।
हाल के दिनों में
सेंसर बोर्ड के कारनामों को लेकर उसके खुद के सदस्य भी खफा नजर आए है । उनका आरोप
है कि अध्यक्ष उनकी नहीं सुनते हैं और मनमानी करते हैं । सेंसर बोर्ड में जिस तरह
से एडल्ट और यू ए फिल्म को श्रेणीबद्ध करने की गाइडलाइंस है उसको लेकर भी बेहद
कंफ्यूजन है । इन दोनों श्रेणियों के बीच बंटवारे को लेकर खासी मनमानी करने की
गुंजाइश होती है जिसका लाभ सेंसर बोर्ड उठाता रहा है । बदलाव की आवश्यकता के
मद्देनजर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने मशहूर फिल्मकार श्याम बेनेगल की अध्यक्षता
में एक समिति का गठन कर दिया था जिसने अपनी रिपोर्ट भी दे दी है । कई बदलाव भी
अपेक्षित हैं लेकिन पता नहीं कहां सरकारी फाइलों में ये रिपोर्ट गुम हो गई है । फिल्मकारों
को उम्मीद थी इन सुझावों को लागू कर देने से उनकी सृजनशीलता पर कैंची नहीं चलेगी ।
फिल्मों को
सर्टिफिकेट देने और उलपर विवाद का हमारे देश में लंबा इतिहास रहा है ।
सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952 के तहत सेंसर बोर्ड का गठन किया । 1983 में इसका नाम
बदलकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड कर दिया गया । इस एक्ट के तहत समय समय पर
सरकार गाइडलाइंस जारी करती रही है । जैसे पहले फिल्मों की दो ही कैटेगरी होती थी ए
और यू । कालांतर में दो और कैटेगरी जोड़ी गई जिसका नाम रखा गया यू ए और एस । यू ए
के अंतर्गत प्रमाणित फिल्मों को देखने के लिए बारह साल से कम उम्र के बच्चों को
अपने अभिभावक की सहमति और साथ आवश्यक किया गया । एस कैटेगरी में स्पेशलाइज्ड
दर्शकों के लिए फिल्में प्रमाणित की जाती रही हैं । फिल्म प्रमाणन के संबंध में
सरकार ने आखिरी गाइडलाइंस 6 दिसबंर 1991 को जारी की थी जिसके आधार पर ही अबतक काम
चल रहा है । इक्यानवे के बाद से हमारा समाज काफी बदल गया । आर्थिक सुधारों की बयार
और हाल के दिनों में इंटरनेट के फैलाव ने हमारे समाज में भी बहुत खुलापन ला दिया
है । एक जमाना था जब फिल्मों में नायक नायिका के मिलन को दो हिलते हुए फूलों के
माध्यम से दिखाया जाता था । छिपकली के कीड़े को खा जाने के दृश्य से रेप को
प्रतिबंबित किया जाता था । समय बदला और फिल्मों के सीन भी बदलते चले गए । राजकपूर
की फिल्म संगम में जब वैजयंतीमाला ने जब पहली बार बिकिनी पहनी थी तब भी जमकर
हंगामा और विरोध आदि हुआ था लेकिन अब वो फिल्मों के लिए सामान्य बात है । फिल्मों
में जब खुलेपन की बयार बहने लगी तो एक बार फिर सेंसर बोर्ड का मामला सुप्रीम कोर्ट
पहुंचा था और ये दलील दी गई थी कि फिल्मों के प्रमाणन को खत्म कर दिया जाना चाहिए
। लेकिन उन्नीस सौ नवासी में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में साफ कर दिया
था कि भारत जैसे समाज में फिल्मों के प्रमाणन की जरूरत है । कोर्ट ने कहा था कि
ध्वनि और दृश्यों के माध्यम से कही गई बातें दर्शकों के मन पर गहरा असर छोड़ती है
। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद उन्नीस सौ इक्यानवे में एक गाइडलाइन जारी की गई
जिसमें भी इस बात पर जोर दिया गया था कि फिल्मों में सामाजिक मूल्यों के स्तर को
बरकरार रखा जाए । उस गाइडलाइंस में यह भी कहा गया था कि फिल्मों में हिंसा को
गौरवान्वित करनेवाले दृश्यों को मंजूरी ना दी जाए । इस गाइडलाइंस की बिनाह पर ही
पहलाज निहलानी प्रमाणन बोर्ड को संस्कारी बोर्ड बना चुके हैं । अब इंतजार
श्यामबेनेगल कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का है
1 comment:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "मनमोहक मनमोहन - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
Post a Comment