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Monday, February 13, 2017

प्रवासी बहाना, स्तरहीनता निशाना

दिल्ली की हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष और वरिष्ठ उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा ने हाल ही में फेसबुक पर एक टिप्पणी की – दिल्ली विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आनेवाले ज़्यादातर कॉलेजों का हाल यह है कि उनके यहाँ की साहित्यक गोष्ठी के नाम के साथ 'अन्तर्राष्ट्रीय ' शब्द जुड़ जाये ,बस इसी लालच में विदेशों से छुट्टी मनाने आये औसत दर्जे के कहानी और कविता लेखकों को बुलाना नहीं भूलते । साहित्यक गोष्ठियों में जहाँ जाओगे "उन्हें" पाओगे जो दोनों हाथों में लड्डू की मुद्रा में मुस्करा रहे होते हैं । मैत्रेयी पुष्पा की इस टिप्पणी पर साहित्य जगत में अच्छा खासा विवाद हो गया । प्रवासी लेखक तेजेन्द्र शर्मा ने अपनी फेसबुक वॉल पर मैत्रेयी जी की इस पोस्ट को उद्धृत करते हुए मैत्रेयी पुष्पा पर जोरदार हमला बोला और उनको इशारों इशारों में साहित्य की अरविंद केजरीवाल बता दिया । तेजेन्द्र शर्मा ने व्यंग्य लेखक प्रेम जनमेजय के भी एक पोस्ट को उद्धृत किया- "इसी मौसम में प्रवासी साहित्यकार भी तो आते हैं - प्रजनन और थोड़े दिन ठहरने के लिये। कुछ दाना चुगने आते हैं और कुछ दाना डालने आते हैं। इसी समय तो हिंदी साहित्य का वसंत आता है। प्रवासी साहित्यकारों की काली कोयल कूकती है। काले कौए भी कांव-कांव करते हैं। कौओं तक के लिये पलक पावड़े बिछाए जाते हैं। आजकल कोयल हो या कौवा काले का बोलबाला है। यशस्वी प्रवासी को साधारण से लेकर असाधारण प्रकाशक तक संपूर्ण निहारते हैं। हवा में हाथ हिला कर या मुस्कान फेंक कर भ्रम में डाल जाता है। पीतल की चमक सोने को कुंठिंत कर रही है। घर की मुर्गियां दाल के बराबर भी नहीं रहीं उन्हें बर्ड फ़्लू हो गया है।" तेजेन्द्र शर्मा ने लिखा कि मैत्रेयी पुष्पा की तो समझ में आती है। वे तो पूरी युवा पीढ़ी के लेखन को नकार चुकी हैं। क्योंकि केजरीवाल ने उन्हें दिल्ली हिन्दी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया है, वे उसी की भाषा भी बोल रही हैं। मगर प्रेम जनमेजय के मन की कुण्ठा मुझे समझ नहीं आई। अगर उनको लगता है कि उपरोक्त भाषा किसी व्यंग्य की है तो व्यंग्य का अन्धकार युग आने में देर नहीं है। यह केवल अपने मन की भड़ास की अभिव्यक्ति है। प्रेम तो सुधा ओम धींगरा, दिव्या माथुर, सुषम बेदी और ज़किया ज़ुबैरी आदि के साहित्य पर समय समय पर बोल चुके हैं। उनकी गोष्ठियां अपने घर में आयोजित भी की हैं। प्रवासी लेखकों को लेकर मन में ऐसी कुण्ठा क्यों है। प्रेम जनमेजय तो व्यंग्य लेखक हैं उनकी बातें चुटीली होंगी ।
हो सकता है कि लंदन में रह रहे कहानीकार तेज्नद्र शर्मा को किसी की कुंठा समझ में नहीं आ रही हो लेकिन प्रवासी साहित्य को लेकर जिस तरह से ढोल पीटा जाता है उससे तो यही लगता है । देश के बाहर रहनेवाले कुछ लेखक अपनी पहचान को लेकर बहुत परेशान रहते हैं । अपने देश से निकलने के पहले ही अपने भारत प्रवास के दौरान के कार्यक्रमों को इस तरह से विज्ञापित, प्रचारित करते हैं कि जैसे शहंशाह अकबर के यात्रा के पहले मुनादी की जा रही हो । यह क्या है ।आत्मश्लाघा, आत्मप्रचार और आत्मदंभ में डूबे प्रवासी लेखक अपनी दुंदुभि खुद ही बजाते घूमते रहते हैं । दरअसल कुछ प्रवासी लेखकों ने अपने देश में अपने लेखन की एजेंसी दे रखी है जिसके अभिकर्ता समय समय पर बदलते रहते हैं जो उनके हितों का ध्यान रखते हैं । बदले में अभिकर्ताओं को क्या  मिलता है यह ज्ञात नहीं है क्योंकि यह गोपनीय होता है ।  दूसरी बात यह कि साहित्य, साहित्य होता है उसको प्रवासी और निवासी के खांचे में बांधना ही गलत है । दरअसल अगर हम देखें तो हिंदी का जो प्रवासी साहित्य है उसका एक बड़ा हिस्सा विदेशों से लाए जानेवाले मोजे, टाई, कलम और इत्र की शीशियों पर टिका है । अब इसको ज्यादा विस्तार देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हिंदी के पाठक बेहद सजग हैं और वो साहित्यकारों की हर गतिविधि पर नजर रखते हैं । प्रवासी नामकरण कर देने से साहित्य का एक अलग खांचा बन जाता है और फिर उन खाचों में रहनेवाले लेखक अपने बीच ही तुलना का आग्रह करते हैं । इसका एक फायदा यह होता है कि औसत रचनाएं भी नजर में आ जाती हैं । जो लोग प्रवासी साहित्य के झंडाबरदार हैं उनको अपनी रचनाओं के अलावा अन्य कृतियां या काम दिखाई नहीं देते हैं । स्व के शोरगुल में वो दूसरे लेखकों को नजरअंदाज करते चलते हैं । कहना ना होगा कि प्रवासी साहित्य का ये परिदृश्य बेहद एकहरा है जबकि इसको प्रामाणिकता हासिल करने के लिए समावेशी होना पड़ेगा । अगर प्रवासी साहित्य को समकालीन भारतीय साहित्य में मजबूती से स्थापित करना है तो हमें विदेशों में रह रहे भारतीय भाषाओं के सभी लेखकों की रचनाओं को साथ लेकर चलना ही नहीं होगा उसपर विचार और मंथन भी करना होगा । इकहरे प्रचार प्रसार से फौरी तौर पर प्रसिद्धि तो मिल सकती है, मिल भी रही है , लेकिन उसका कोई स्थायी महत्व नहीं होगा । जिस तरह से प्रवासी साहित्य का कोलाहल गूंज रहा है उसमें डॉ पी जयरामन का नाम लगभग नहीं लिया जाता है । लंबे समय से अमेरिका में रह रहे पी जयरामन जी जिस खामोशी के साथ हिंदी साहित्य के लिए काम कर रहे हैं वो प्रवासी लेखकों के लिए उदाहरण है । डॉ पी जयरामन ने तमिल के भक्त कवियों की रचनाओं का अनुवाद किया है जो कि दस खंडों में प्रकाशित है । तमिल से हिंदी में अनुवाद और उसको पाठकों की सुविधानुसार शब्दों के साथ पिरोना एक ऐतिहासिक काम था और इस काम ने हिंदी और तमिल के बीच की खाई को पाटने की कोशिश तो की ही दोनों भाषाओं के बीच एक मजबूत सेतु निर्माण का कार्य भी किया । डॉ जयरामन पिछले करीब चार दशकों से अमेरिका में रह रहे हैं और वहां हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए सक्रिय हैं । नब्बे साल की उम्र में भी उनकी काम करने की ललक देखते ही बनती है । चार छह कहानियां लिखकर, दो चार पत्रिकाओं के अंक अपने उपर प्रकाशित करवा अगर कोई साहित्यकार महान बन सकता तो अबतक कई महान साहित्यकार स्थापित हो चुके होते ।
मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी पोस्ट में एक और सवाल उठाया जिसपर विस्तार से गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है ।मैत्रेयी जी ने कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आनेवाले ज़्यादातर कॉलेज अपनी साहित्यक गोष्ठियों में इस वजह से विदेशों से आए औसत दर्ज के लेखकों को बुलाते हैं ताकि उनके सेमिनारों में अंतराष्ट्रीय शब्द जुड़ सके । यह प्रवृत्ति पिछले कई सालों से जोर पकड़ रही है । तेजेन्द्र शर्मा ने उत्तेजना में भले ही मैत्रेयी जी को बुरा भला कह दिया हो लेकिन उनकी चिंता दिल्ली विश्वविद्यालयों में सेमिनारों के गिरते स्तर को लेकर थी । जब अंतराष्ट्रीय सेमिनार की परिकल्पना की गई होगी तो यह माना गया होगा कि ऐसे आयोजनों में विदेशों के उन विद्वानों को आमंत्रित किया जाएगा जिन्होंने अपनी लेखनी से संबंधित विषय में सार्थक हस्तक्षेप किया हो । अब अगर इस अवधारणा पर विचार करें तो तेजेन्द्र शर्मा को अपनी टिप्पणियों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता होगी या फिर ये बताने की कि उनके लेखकीय योगदान ने किस तरह से संबंधित विषय या विधा में हस्तक्षेप किया । मैत्रेयी पुष्पा और प्रेम जनमेजय पर हमलावर होने की बजाए अगर वो अपनी उपलब्धियों को बताते तो सार्थक होता । क़ॉलेजों का क्या है वो तो अपनी नैक की रैकिंग को लेकर चिंतित रहते हैं और शिक्षक अपने प्रमोशन में जुड़नेवाले प्वाइंट के लिए जुगाड़रत । इस तरह के सेमिनारों से दोनों का फायदा होता है, कागजी खानापूरी हो जाती है लेकिन विद्यार्थियों को क्या नई दृष्टि मिलती है, मैत्रेयी की टिप्पणी में छिपे इस सवाल का उत्तर सामने आना चाहिए । दरअसल हर वर्ष के आखिरी तिमाही में शैक्षणिक सेमिनारों की बाढ़ सी आ जाती है । देशभर के महाविद्यालय या फिर विश्वविद्यालयों के विभाग अपने अपने यहां सेमिनार आयोजित करते हैं । कुछ लोग तो इसको साहित्य की मार्च लूट भी कहते हैं । विश्वविद्लायों इस तरह के सेमिनार के लिए अनुदान देनेवाली संस्थाओं को इनकी गुणवत्ता पर भी ध्यान देने के लिए एक मैकेनिज्म को बनाने की आवश्यकता है ताकि साहित्य की इस मार्च लूट पर लगाम लगाई जा सके । अगर फंडिंग एजेंसी इस तरह के सेमिनारों की स्तरीयता बनाने या बचाने के लिए कोई मैकेनिज्म बना सकेंगे तो विद्यार्थियों का भी भला होगा और साहित्य का भी । विद्यार्थियों में वैश्विक दृष्टि का निर्माण होगा और अपने यहां के साहित्य को नई प्रवृत्तियों के बरक्श रखकर तुलनात्मक अध्ययन के द्वार खुल सकेंगे । लेकिन अगर यथास्थिति बरकरार रही तो करदाताओं के पैसे बर्बाद होते रहेंगे और बहुत संभव है कि जब पानी सर से उपर चला जाए तो सरकार इसको रोकने के लिए दखल दे । तब विश्वविद्लायों की स्वायत्ता का रोना रोया जाएगा, बेहतर हो उस आसन्न रुदन के पहले स्थितियां ठीत कर ली जाएं ।    


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